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चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक-१४ में सम्मिलित सभी रचनाएँ एक साथ...

चित्र से काव्य तक प्रतियोगिता अंक-१४ में सम्मिलित सभी रचनाएँ एक साथ|

 

श्री संदीप कुमार पटेल "दीप"

|| दस दोहे ||

 कठपुतली को देख के, बालक करे विचार ||

नाचे कैसन काठ ये , कौन नचावनहार ||१||

 

नाचे ऐसे झूम के, ठुमके मारे चार ||

मन बेचारा बाबरा, रम जाये हर बार ||२||

 

जा तन लागे काठ को, डोरी मन को तार ||

कठपुतली है आदमी , नचा रहे करतार  ||3||

 

नचा रहा है हाथ से,  दंग है देखनहार ||

ऊँगली पे नाचे सभी, कौन पाएगा पार ||४||

 

इतराता क्यूँ आदमी, अपनी छवी निहार ||

कठपुतली सा नाचता , मन में लिये विकार ||५||

 

कठपुतली का खेल सा, एक है नर एक नार ||

ब्याह रचाके ईश ने , मिलन किया साकार ||६||

 

कठपुलती देखे नहीं , क्या मीठा क्या खार ||

भूला बैठा आदमी , इस जीवन का सार  ||७||

 

कठपुतली बोले नहीं , कभु ना माने हार ||

हर मौसम में नाचती ,  गरमी हो कि बहार ||८||

 

कठपुतली के नाच सा, मनुज का है संसार ||

मन ही तन की डोर है, लावे विषय विकार ||९||

 

इस टी वी के दौर में, कठपुतली बेकार ||

मिलके सब हैं देखते, सास बहू का प्यार ||१०||

 

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अम्बरीष श्रीवास्तव

(प्रतियोगिता से अलग)

कुंडलिया छंद (दोहा +रोला =कुंडलिया )

 

कैसी चिंता में पड़े, क्योंकर हुए उदास?

दिन भर तोड़े हाड़ पर, नहीं कमाई पास.

नहीं कमाई पास, डोर जो अपने पल्ले.

मेहनत की भरपूर, नहीं पर बल्ले-बल्ले.

‘अम्बरीष’ है  डोर, राम के हाथों जैसी.

वैसी होगी भोर, भूख की चिंता कैसी??

 

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श्रीमती रेखा जोशी

हरिगीतिका

झुकाएं अपने  शीश  रघुवर ,अर्चना तेरी करें  |

वंदनीय प्रभु हमारे दया ,तुम्हारी बनी रहे     ||

रहिमलाह वो है कहीं पे , है कहीं यशुमसीहा    |

ये राम तो मेरा नही ये, राम घट घट में बसे  ||

पुतले बने हम  नाचते है ,डोर तेरे  हाथ  में    |

देखना ये डोर बांधे और, प्रीति से मिलजुल रहें ||

 

मेरे प्रभु [शीर्षक]

(हरिगीतिका  छंद पर आधारित)

झुकाये हम सब अपने शीश ,तुम्हे पुकारते रहे |

हे मेरे प्रभु हे  मेरे ईश ,जगत में बच्चे तेरे ||

मुसलमानों का मुहम्मद जहां ,इसाई का मसीहा |

हिन्दु लेता नाम राम का ,पर रब तो तू सब का ||

है मानवता की काया पर ,पड़ी यह कैसी छाया |

तमस यह लेगी लीन कर ,हे प्रभु यह कैसी माया ||

मानव की इस भ्रमित बुधि को ,आज दो प्रेम दीक्षा |

भक्तजनों की अपार भक्ति की ,मत लो प्रभु परीक्षा ||

 

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श्री संजय मिश्र ‘हबीब’

दोहे (प्रतियोगिता से पृथक)

ऊपर बैठा वह कहीं, थामे सबकी डोर।

पुतले सारे चल पड़े, वो चाहे जिस ओर।

 

बाल रूप धरकर करे, लीला अपरमपार।

नन्हें नन्हें हाथ में, लिए जगत का सार।

 

छोड़ उसे जाएँ कहाँ, वही मीत, वह नाथ।

अक्सर अद्भुत स्वांग धर, रहें हमारे साथ॥

 

प्रभु ने पुतले रच दिये, देकर अपना अंश।

उन्हें भूल हम हो गए, पुतलों के ही वंश॥

 

अहंकार की यातना, समझे नहीं अदेव।

देव कठपुतले तेरे, खुद बन बैठे देव॥

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(प्रतियोगिता से पृथक)

हरिगीतिका : एक प्रयास

ले कर खिलौने हाट को अब, जा रहा गोपाल जी।

गगरी न माखन वह कमाता, भात रोटी दाल जी।

घर की दिवारें राह तकती, कृष्ण घर को आ रहा।

बीमार मइया, आज बोतल, वह दवा की ला रहा॥

 

गोकुल घिरा है, बन गरीबी, कंस की सेना खड़ी।

व्याकुल निवासी है उदासी, हर घड़ी विपदा बड़ी॥

खुद कृष्ण ‘राधा-कृष्ण’ मूरत, बेचता भी दिख पड़े।

नन्हा सिपाही छोड़ स्कुल, घर बचे, हर विध लड़े।

 

क्यूँ शर्म ऐसे दृश्य पर यह, मुल्क ना महसूसता।

क्यूँ बालश्रम कानून अक्सर, लक्ष्य से भी चूकता॥

क्यूँ तप रहे मासूम नन्हें, नौनिहाल अङ्गार में।

क्यूँ पढ़ रहे सब, पाठशाला, छोड़ कर बाजार में॥

 

कुंडलिया 

कठपुतली के खेल में, हम सब शामिल आज.

शब्दों में क्या पंख हैं, क्या उन्नत परवाज.

क्या उन्नत परवाज, गगन छोटा है जिसको

मगन मुदित मन देख, सृजन कहते हैं किसको

कात रहे सब भ्रात, सफल भावों की तकली

देख देख हरषाय, रही होगी कठपुतली.

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डॉ० प्राची सिंह

"प्रतियोगिता से बाहर "

कुण्डलिया छंद (१ दोहा + १ रोला )

 

भोला विस्मित सोचता, कठपुतली ले हाथ .

सौंपी कुदरत नें उसे, इक अद्भुत सौगात .

इक अद्भुत सौगात, ज्ञान से भरी तलैया .

राजा, रानी,रंक, और जादूगर भैया .

बदल कहानी पात्र, खोलता अपना झोला .

हमें नचाए राम, और पुतलों को भोला

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श्री राजेंद्र स्वर्णकार

 सात हरिगीतिका छंद

पुतली कभी हूं , आदमी हूं , मैं कभी भगवान हूं !

क्या भेद है ? क्या अर्थ है ? मैं सोच कर हैरान हूं !

इक रोज़ कठपुतली बनूं मैं , एक दिन इंसान हूं !

उसकी कृपा से नाचता मैं , अन्यथा बेजान हूं !

 

कठपुतलियों ज्यों ही जगत भर को नचाना चाहता !

मैं आदमी , ख़ुद को ख़ुदा से कम कभी कब आंकता ?

मन की सदा करता , मगर उस की रज़ा कब जानता ?

औक़ात है बेजान पुतले-सी मगर कब मानता ?

सच है , उसी के हाथ में तो हम सभी की डोर है !

कठपुतलियां हैं हम , हमारा सांस पर कब जोर है ?

देता… , वही लेता ; कहो मत – ठग लुटेरा चोर है !

क्यों जन्मने पर हर्ष , मरने पर रुदन है , शोर है ?

 

ख़ंज़र किसी की पीठ में , काटे किसी का तू गला !

इससे दग़ा , उससे दग़ा , इस को छला , उस को छला !

बेजान कठपुतली कभी कुछ कर सकी है क्या भला ?

क्यों… आदमी दो-चार कौड़ी के ! ख़ुदा बनने चला ?

 

सुन आदमी ! औक़ात अपनी वक़्त रहते जानले !

तू… सिर्फ़ कठपुतली ख़ुदा के हाथ की है , मानले !

कर आइने का सामना , ख़ुद को ज़रा पहचानले !

मिट्टी बने मिट्टी उसी पल , जिस घड़ी वो ठानले !

 

हस्ती नहीं कठपुतलियों से ख़ास ज़्यादा आदमी !

वश में नहीं दम , हुक्म दुनिया पर चलाता आदमी !

मतलब पड़े सिर को झुका कर दुम हिलाता आदमी ?

ज़र्रा नहीं ; ख़ुद को सितारा क्यों बताता आदमी ?

 

कठपुतलियों ! फिर भी भली तुम आदमी की जात से !

जो… पेश आता छल-कपट से , नीचता से , घात से !

अनजान जो… औरों के ग़म से , दर्द से , जज़बात से !

जो… ढूंढ़ता ख़ुद का भला , हर बात से , बेबात से !

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श्रीमती राजेश कुमारी जी

दोहे

(1)

नन्हीं  सी कठपुतलियाँ ,बालक को ललचाय

देख के दो दो गुड्डे  , सोते  से जग  जाय

(2)

कपड़े की कठपुतलियाँ देख- देख ललचाय

राजा- रानी की  छबी  ,आँखों में बस जाय

(3)

बत्तीसों कठपुतलियाँ ,सिंहासन मढ़ वाय

और विक्रमादित्य को ,नैतिक पाठ पढाय

(4)

बालक  बूढ़े औ सभी ,  मन में  जाते झूम

मच जाये जब  गाँव में ,कठपुतली की धूम

(5)

ज्ञान  के पट रे बन्दे  ,खोल सके तो खोल

कठपुतली सम जगत में ,डोल सके तो डोल

(6)

पुतलियों की तभी चली ,नाटकों की बहार

चलचित्रों संग आज कल  ,क्रिकेट की भरमार

(7)

जीवन रंग मंच सकल ,नाटक कई हजार

खेलना है सभी वही, रब  के हैं  किरदार

(8)

सुन्दर सी कठपुतलियाँ ,देख कहूँ मैं बात

मुझको तो प्यारी लगें  ,जैसे माँ औ तात

(9)

चार दिनों की जिंदगी ,चार दिनों का साथ

नाच जैसे कठपुतली ,डोरी उसके हाथ

(10)

सर्व प्रथम कठपुतलियाँ, इजिप्ट दियो बनाय

तब फिर जयपुर में बनी  ,अंतरजाल बताय

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कुंडली छंद

प्यारी सी कठपुतलियाँ ,थक-थक नाच दिखाय
बालक यह मनहर मगन , मंद- मंद मुस्काय
मंद -मंद मुस्काय , ख़ुशी सब संगी- साथी
रसिक राजा रानी , मगन मतवाला हाथी
नाच नचावै डोर , हरी की इच्छा न्यारी
मानव की छबी ज्यों , लगे कठ पुतली प्यारी

 

 

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श्री अविनाश एस० बागडे

दोहे...

आँखों की ये पुतलियाँ,थम जाती है आज.

कठपुतली क़े खेल का ,देख सुखद अंदाज़.

--

हाँथ लिए कठ-पुतलियाँ,सोच रहा ये बाल.

हम भी ऐसे ही जिसे,नचा रहा है काल!!

--

जीवन की आपा -धापी,सांसों का संग्राम!

जन्म और मृत्यु महज़ ,कहलाते पैगाम.

--

रंगमंच पर पुतलियाँ,हाँथ किसी क़े डोर.

कला मुखर हो बोलती, दर्शक भाव-विभोर.

--

परंपरा  क़े गीत है, अनुभव  क़े  हैं  बोल.

कड़वे मीठे कच्चे पर ,सबके सब अनमोल.

--

लय में सब कुछ है बंधा,नियम-बद्ध संसार.

आनेवाला जायेगा,जीवन का यह सार.

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रोला:एक प्रयास(११-१३)

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कठपुतली का खेल,हमें दिल से दिखलाये.

राजस्थानी - कला, हमारा मान  बढ़ाये.

सधी उंगलियाँ करें,डोर से खींचा-तानी.

तब होती साकार,मंच पर सुखद कहानी.

-----

सुंदर सा ये खेल,हमें कुछ है सिखलाता.

ऊपरवाला  हमें , देखिये  खूब  नचाता.

हमें दिखे ना कभी, नचाती चपल उंगलियाँ!

फिर भी हरकत करें,जगत की सभी पुतलियाँ.

-----

फिर काहे हम करें , बताओ दंभ अकारण.

ऊपरवाला जब हो , सकल सृष्टि का कारण.

यही सोचता दिखे , बाल-कठपुतलीवाला ,

तेरी-मेरी डोर , हिलाता  ऊपरवाला...!!!

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श्री नीलेश

 

सम्बंधित छंद का नाम का उल्लेख न करने के कारण निम्नलिखित

दोनों रचनाओं को प्रतियोगिता से अलग किया जा रहा है

मंच संचालक

 

नक्काशी कर दिया किसी ने रंग भर दिया

.................................................

नक्काशी कर दिया किसी ने रंग भर दिया
एक बेजान को भी खुदा, रूहानी कर दिया

कठपुतलियों की शहर की है ये दास्ताँ
नन्हे मुन्हो से पंछियों ने असर कर दिया

हाथ छूटे हो इनके शोहरत और अमीरी से
हाथ थाम कर किसी को दिल में घर दिया

इनकी कहानियों को भी सुन ले कभी खुदा
बीज-ऐ-अमन को जिन्होंने शज़र कर दिया

चस्म-ऐ-पुरनम है इन्ही की गूंजों से सदा
दश्त में भी आज देखो शहर कर दिया

" नील " आँखों में छुपे हैं दर्द के सागर
ख़्वाबों की कश्ती से शुरू सफ़र कर दिया

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प्रतियोगिता से परे (कठपुतली)

कठपुतली मानव बना , है फिर भी सीनाजोरी

अक्ल बांटता बादशाह, क्यूँ ऊपर थोड़ी थोड़ी

ले ली है पतवार हाथ में ,ये जीवन मंगल हो

क्यूँ आपस में गुत्थम गुत्थी ,क्यूँ  अब दंगल हो

ज़रा ज़रा सी बात पे ,है कठपुतली नाराज़

बालक मन रूठ गया ,बिखर गया है साज

देख तमाशा दुनिया का , है बालक मन घबराया

हाथ थाम कठपुतली का ,उसने फिर जीना सिखाया

दिल में बेचैनी पली की माँ को है कौर खिलाना

ए कठपुतली नाच ज़रा ,मेरा साथ निभाना

बूढ़ा चरवाहा लौटेगा ,ले बकरी ,गैया , सपने

कठपुतली में जान आ गयी ,लगी स्वयं थिरकने

 

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श्री विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी

(दोहा)
बाल सुलभ मन में हुआ,प्रश्न जटिल साकार।
कठपुतली सम जगत है,डोर हाथ करतार॥

सबके निश्चित पात्र हैं,सबके निश्चित काम।
कठपुतली ज्यों नाचते,सुबह दोपहर शाम॥

(चौपाई)
उसकी जैसी इच्छा होती।कठपुतली हर हरकत करती॥
जैसा चाहे नाच नचावे।जन्म देय या मृत्यु करावे॥

भिन्न-भिन्न वह रुप बनावे।जीर्ण छोड़ि नव पट पहिरावे॥
वो अद्भुत लीला रचता है।सबका मनरञ्जन करता है॥

उसकी आंखों में दुश्चिंता।क्या खतरे में मेरी सत्ता॥
जबसे विज्ञान क युग आया।लीला पर संकट मडराया॥

ईश्वर पर मानव भारी है।उसकी कुदरत बेचारी है॥
मनरञ्जन तकनीकि नयी है।कठपुतली अब फीकि पड़ी है॥

(दोहा)
बाल रूप हरि सोचते,संकट में है सृष्टि।
कैसे मैं रक्षा करूं,प्रश्नाकुल है दृष्टि॥


देखो ये कठपुतलियां,लगती मृतक समान।
सोच रहा है सूत्रधर,कैसे फूंकूं जान॥

(सोरठा)
दीनबंधु भर्तार,सृष्टि बचाना चाहते।
लेव धरा अवतार,मंदिर मस्जिद छोड़ि के॥

देखै तुहका लोग,कठपुतरी यदि चाहती।
करो नया प्रयोग,परिवर्तनमय जगत है॥

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श्री दिनेश रविकर

कुंडली

बालक सोया था पड़ा,  माँ-बापू से खीज |
मेले में घूमा-फिरा, मिली नहीं पर चीज  | 
मिली नहीं पर चीज, करे पुरकस नंगाई  |
नटखट नाच नचाय, नींद निसि निश्छल आई |

हो कठपुतली नाच, मगन मन जागा गोया ।

डोर कौतिकी खींच,  करे खुश बालक सोया ||

 

दूसरी प्रस्तुति

कुंडली

नहीं बिलौका लौकता, ना ही कुक्कुर भौंक |
खिड़की भी तो बंद है, देखे भोलू चौंक |

देखे भोलू चौंक, लाप लय लहर अलौकिक |
हो दोनों तुम कौन, पूँछता परिचय मौखिक |

मंद मंद मुस्कान, मौन को मिलता मौका |
रविकर मन की चाह, कभी क्या नहीं बिलौका ||

 

तीसरी प्रस्तुति

दोहे

कठपुतली बन नाचते, मीरा मोहन-मोर |

दस जन, पथ पर डोलते, करके ढीली डोर ||

कौतुहल वश ताकता, बबलू मन हैरान |

*मुटरी में हैं क्या रखे, ये बौने इन्सान ??

*पोटली

बौने बौने *वटु बने, **पटु रानी अभिजात |

कौतुकता लख बाल की, भूप मंद मुस्कात ||

*बालक **चालाक

राजा रानी दूर के, राजपुताना आय |

चौखाने की शाल में, रानी मन लिपटाय ||

भूप उवाच-

कथ-री तू *कथरी सरिस, क्यूँ मानस में फ़ैल ?

चौखाने चौसठ लखत, मन शतरंजी मैल ||

*नागफनी / बिछौना

बबलू उवाच-

हमरा-हुलके बाल मन, कौतुक बेतुक जोड़ |

माया-मुटरी दे हमें, भाग दुशाला ओढ़ ||

 

रविकर तन-मन डोलते, खोले हृदयागार |
स्वागत है गुरुवर सभी, प्रकट करूँ आभार |


प्रकट करूँ आभार, सार जीवन का पाया |
ओ बी ओ ने आज, सत्य ही मान बढाया |


अरुण निगम आभार, कराया परिचय बढ़कर |
शुचि सौरभ संसार, बहुत ही खुश है रविकर ||

 

कुंडलिया

गर जिज्ञासा बाल की, होय कठिनतर काम ।

सदा बाल की खाल से, निकलें प्रश्न तमाम ।

निकलें प्रश्न तमाम, बने उत्तर कठपुतली ।

करे सुबह से शाम, जकड ले बोली तुतली |

है दर्शन आध्यात्म, समझ जो पाओ भाषा |

रविकर शाश्वत मोक्ष, मिटा दो गर जिज्ञासा ||

 

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श्री दिलबाग विर्क

कुंडलिया

 

कठपुतली-सा आदमी, नचा रहा भगवान

जो समझ न पाया इसे , दुखी वही इंसान |

दुखी वही इंसान , करे है चिंता फल की

कर्म हमारे हाथ , बात ना हमने समझी |

खुदा के हाथ डोर , वही ताकत असली

करना उसका ध्यान , सभी उसकी कठपुतली |

 

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श्री अरुण कुमार निगम

कुण्डलिया छंद
जिज्ञासा यह बाल मन ,कठपुतली निर्जीव
कैसे नाचे मंच पर , अभिनय करे सजीव
अभिनय करे सजीव , लगाए लटके ठुमके
पग पैंजन झंकार , झमाझम झमके झुमके
कहे अरुण कविराय , जिन्दगी खेल तमासा
लेकिन मुश्किल काम,शांत करना जिज्ञासा .

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श्री आलोक सीतापुरी

 

(प्रतियोगिता से अलग)

छंद कुंडलिया (दोहा+रोला)

 

कठपुतली दीवार पर, टंगी हुई बेजान.

मनोयोग से देखता, यह बालक नादान|

यह बालक नादान, नाचती नहीं नवाबो|

खूब लड़ी थीं रात, गुलाबो और सिताबो|

कहें सुकवि आलोक, बंधी माया की सुतली|

नियति नटी नित नचा, रही जग है कठपुतली||

___________________________________________________________________________________
श्री नीरज

चार - चौपाइयाँ

काया काठ दिखे अति प्यारी.पहिने जो पोशाक निराली..
धागा से संचालित होई.कठपुतली जानै सब कोई..[१]
गांव नगर द्वारे चौपारी.भीड़ लगी दौरे नर नारी.
कठपुतली का नाच निराला.करतब करै मुनीजर लाला.[२]
पप्पू एकटक रहे निहारी.कठपुतली पर द्रष्टी डाली.
कठपुतलिन ते ज्ञान सिखाई.करैं गुलब्बो खूब लड़ाई.[३]
जैसे लाला करतब करई.कठपुतलिन मां जीवन डरई.
अइसेन कठपुतली संसारा.ईश्वर एक नचावन हारा[४]

 

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श्री धर्मेन्द्र शर्मा

 

कुछ दोहे.......

.
आज हमारे गाँव में, होगी रेलमपेल 
सांझ ढले होगा यहाँ,कठपुतली का खेल (१)

.
ठंडी इनको लग रही, झीना है पहनाव

चादर ओढा दूँ इन्हें, इनका होय बचाव (२)

.
बीन बजाना बाद में, कर लो कुछ आराम

गुडिया से बतिया ज़रा, मैं कर लूँ कुछ काम (३)
.
तेरी दुनिया खाब की, मेरी चिंता रोज

तुमको घर में टांगते, मेरा घर इक खोज (४)
.
कठपुतली का खेल था, उसको लगा विराम
नेता हमसे खेलते, उनका ही यह काम (५)

.

ग़ुरबत के इस दौर में, बालक ढूंढे प्यार

ऊपर वाले ने किया, कैसा अत्याचार (६)

 ________________________________________________________________________________

 

श्री प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा

 (प्रतियोगिता के नियमानुसार सम्बंधित छंद के नाम का उल्लेख न किये जाने के कारण इसे प्रतियोगिता से अलग किया जा रहा है)

 

चल रही प्रतियोगिता  बैठा आस लगाय

प्रथम गुर  चरण वंदना  दूसर न कोई सहाय

 

दीजे अब  आशिस मुझे   प्रस्तुत  छन्द  समान

है  दोहा या छन्द  ये  इसका न   अबहू   ज्ञान

 

निरख निरख पुतलियाँ  मन हुआ भाव विहोर

एक डोर मेरे हाथ है दूजी प्रभु की ओर

 

रंग बिरंगी पुतलियाँ नयनन रही लुभाय

चिततेरे भगवान् की देखो महिमा गाय

 

कठपुतलियां निर्जीव हैं मानव में  है जान

इन्हें नचाता मानव है मानव को भगवान्

 

भले भलाई करन  लगे पकड़ प्रीत की डोर

पल  भर  में मिट जाएगा  कंचन काया  छोड़

 

पुतलियाँ  निष्काम  है मानव है सरबोर

लोभ   दासता से भरा कपटी लम्पट चोर

 

रंग बिरंगी पुतलियाँ मन को खूब लुभाती

नशा गरीबी उन्मूलन जग शिक्षा दे जाती

 

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श्री विवेक मिश्र

(प्रतियोगिता के नियमानुसार सम्बंधित छंद के नाम का उल्लेख न किये जाने के कारण इसे प्रतियोगिता से अलग किया जा रहा है)

तुम  काठ  के  शिल्प   न  मात्र  लगौ,
नव  सृष्टि  को  आज  सन्देश  दई l
जस  प्रेम  के  धागन  माहिं  बंधी,
तस  प्रेम  के  नेह  के  गेह  मई l
तुम  शाँत  रही  नित  सिन्धु  तना,
दुःख  दर्द  की  पीर  छुपाय   गई l
जन  में  नित  हास  बिखेरइ   का,
अपने  मन  मा  प्रण ठानि   लई ll


तुम   मानि  जमूरे  की  बात  सबै,
हमका  दीन्हें  उपदेश  कई l
भटकूँ  भगवान  की  राह  से  ना ,
मन  माथे  हमारे  ये  सीख  दई l
यह  माटिक  देह  मिली  सबका,
तुमरी  यह  काठ  कि  छाप  नयी l
अब  केवट   बानि    विवेक  लगै ,
कलिकाल  में   आय  के  साँच भईll

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Replies to This Discussion

आदरणीय अम्बरीश भाई जी, सभी रचनायों को एक स्थान पर संग्रहीत करने के इस महती कार्य के लिए सादर साधुवाद स्वीकारें. सारी रचनाएँ दोबारा पढ़ कर सच में आनद आ गया.

धन्यवाद आदरणीय प्रधान संपादक जी ! सच कहा आपने ! सारी रचनाएँ दोबारा पढ़ कर वास्तव में आनंद आ गया! प्रभु जी, रचनाओं के एक स्थान पर संकलन का कार्य तो होना ही था क्योंकि यह तो इस आयोजन का अभिन्न अंग है ! साभार

एक जगह सब छंद पढ़े मन मोर हुलाश बहुत अधिकै।
सखि भाव रसीले हैं शिल्प सधे सब छंद रहे सब से बढ़िकै॥
किसको हम अतिशय वाह कहें खुद को ही लाज लगे कहिकै।
रस सिंधु बहे रस भूमि में आ बस लेव मजा इसमें बुड़िकै॥

स्वागत है भाई विन्ध्येश्वरी जी ! बहुत अच्छा प्रयास किया है आपने ! बधाई मित्र|

धन्यवाद भाई नीरज जी !

अति सुन्दर दुर्मिल आइ रचा लखि भ्रातहि नीरज नेह दियो.

रसधार बहे निज कानन में मनभावन मोहक प्रेम पियो.

गणदोष अनेक सुधारि सबै तत् शिल्प सदा अपनाय लियो.

सच आज सुहावनि मंच यही जंह ज्ञान क सार बसाय हियो..

सस्नेह

आदरणीय अम्बरीष जी, प्रतियोगिता की सभी रचनाओं को एक स्थान पर संकलित करना काफी कठिन कार्य है, आपके परिश्रम को नमन . एक बार फिर से छंदों को पढ़ कर मन झूम उठा. 

 आपका हार्दिक आभार आदरणीय अरुण जी ! यह तो अपना दायित्व है |

आदरणीय अम्बरीश जी, सादर 

प्रसन्न हुआ मन देख के संपादन के हाथ 
कृपा हुई अति आपकी छोड़ा न मेरा साथ 
प्रतियोगिता अन्दर रहूँ या बाहर रहूँ तात
आखिर में तो जुड़ गया पुलकित हूँ भ्रात
इधर गिनो या उधर गिनो दोनों होते आठ 
प्रथम अंतिम फरक   नहीं देखो मेरे ठाट 
गुरु कृपा सब मिले करत रहो अभ्यास 
लूला लंगड़ा सब चले जा बैठे आकाश 
मात्रा बिंदी अर्धाक्षर गड़ना का नहीं पूरा ज्ञान 
छन्द कुण्डलियाँ कब बने दोहे का नहीं ज्ञान 
देओ अब आशीष मोहे अम्बरीश योगराज साथ 
सौरभ बागी संग हैं मोहिको है विश्वास

क्या बात है प्रदीप जी ! बहुत सुंदर ! वैसे भी कुछ छंद बहुत उम्दा लिखे है आपने आपको हार्दिक बधाई। ये छंद बहुत अच्छा लगा : कठपुतलियां निर्जीव हैं मानव में  है जान, इन्हें नचाता मानव है मानव को भगवान्।

भले भलाई करन  लगे पकड़ प्रीत की डोर, पल  भर  में मिट जाएगा  कंचन काया  छोड़

आदरणीय बाली जी. सादर 

आपके पीछे पीछे चल रहा हूँ 
समय दिया आपने मिला अति आनंद 
लिख रहा दोहे था कैसे  बन गया छ न्द
सीख रहा अतिशीघ्र मैदां में आऊंगा 
अछि सी रचना सेवा में दे जाऊंगा 
धन्यवाद उत्साह वर्धन हेतु, आगे भी. 

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Apr 27

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