नवगीत हिन्दी काव्यधारा की एक नवीन विधा है। नवगीत एक तत्व के रूप में साहित्य को महाप्राण निराला की रचनात्मकता से प्राप्त हुआ । इसकी प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान की प्रवाहमयी रचनाओं और लोकगीतों की समृद्ध भारतीय परम्परा से है ।
नवगीत विधा नें गीत को संरक्षण प्रदान करने के साथ आधुनिक युगबोध और शिल्प के साँचे में ढाल कर उसको मनमोहक रूपाकार प्रदान करने का काम किया है । समकालीन सामाजिकता एवं मनोवृत्तियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करती काव्य रचनाएँ नवगीत कहलाती हैं। नवगीत में गीत की अवधारणा कदापि निरस्त नहीं होती, अपितु वह तो पूर्णतः सुरक्षित है। गीत के ही पायदान पर नवगीत खड़ा हुआ है।
यदि कोई रचना सिर्फ प्रस्तुति के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है, जो हृदय सागर में व्याप्त भावों से निस्सृत होती है, यदि वह जन चेतना को शब्द नहीं देती, यदि वह अंतस की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति नहीं हैं, यदि वह उल्लसित हृदय का उन्मुक्त गीत नहीं है, यदि वह मस्तिष्क में कोई सवाल उठाने में सक्षम नहीं है, यदि उसमें मन में कौंधते सवालों का जवाब देने की सामर्थ्य नहीं है, यदि वह अमृत रसधार की वर्षा से जन मानस को संतृप्त नहीं करती, तो वह निष्प्राण है, बेमानी है। इसी दृष्टिकोण से किये गए रचनाकर्म में नवगीत के प्राण हैं।
नवगीत में कथ्य, प्रस्तुति के अंदाज, रागात्मक लय और भाव प्रवाह का रचाकार के हृदय में ही नवजन्म होता है। नवगीत जितना ही बौद्धिक आयाम में स्वयं को संयत रखता है और आत्मीय संवेदन की अभिव्यक्ति बनता है , उतना ही खरा उतरता है। समकालीन पद्य साहित्य में नवगीत नें अपने माधुर्य, सामाजिक चेतना और यथार्थवादी जनसंवादधर्मिता के ही कारण अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है ।
नवगीत का शिल्प :
अनुभूति की संवेदनशील अभिव्यक्ति किसी भी रचना को मर्मस्पर्शी बनाती है । महाकवि निराला की सरस्वती वंदना में “नव गति नव लय ताल छंद नव” को ही नवगीत का बीजमंत्र माना गया है ।
नवगीत सनातनी या शास्त्रीय छंदों में प्रयोग के तौर पर प्रारंभ हुए. जैसे, दोहे के मात्र विषम चरण को लेकर साधी गयी मात्रिक पंक्तियाँ, या किसी दो छंदों का संयुक्त प्रयोग कर साधी गयी पंक्तियाँ. आदि-आदि. बाद मे नवगीतकारों ने स्वयंसंवर्धित मात्राओं का निर्वहन करना प्रारम्भ किया और बिम्ब, तथ्य और कथ्य में भी विशिष्ट प्रयोग करने की परिपाटी चल पड़ी. इसी तौर पर आंचलिक या ग्राम्य बिम्बों पर जोर पड़ा.
समकालीन नवगीतकारों दो श्रेणियाँ आज स्पष्ट देखने को मिलती हैं : एक वे हैं जो छंदों को महत्त्व देकर उनकी मर्यादा में रहकर गीत लिखते हैं, और दूसरे वे हैं जो छंद में नए प्रयोग करते हैं और लय आश्रित गीत लिखते हैं । प्रथम मतावलम्बी कहते हैं कि नयेपन के लिए छंद तोड़ना आवश्यक नहीं, बल्कि उसकी सीमा का निर्वहन करते हुए आत्मा और हृदय की मुक्तावस्था को शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, मुहावरों, अलंकारों के द्वारा नयेपन के प्रति प्रतिबद्ध होना आवश्यक है । वहीं दूसरे वर्ग के मतावलम्बी अनुभूतियों की भावात्मक और उन्मुक्त प्रस्तुति के लिए लय व विधान के निर्धारण में भी स्वतंत्रता व अनंत विविधता के पक्षधर हैं ।
नवगीत में एक मुखड़ा व दो-तीन या चार अंतरे होते हैं । हर अंतरे का कथ्य मुख्य पंक्ति से साम्य लिए होता है, व हर अंतरे के बाद मुख्य पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है । हर अंतरे में अंतर्गेयता सहज व निर्बाध होती है साथ ही हर अंतरा दूसरे अंतरे व मुखड़े से सम्तुकान्ताता अनिवार्य रूप से रखता है । मुखड़े की पंक्तियाँ ही गीत की अंतर्धारा का निर्धारण करती हैं व गीत की आत्मा को चंद शब्दों में ही प्रस्तुत करने में समर्थ होती हैं ।
नवगीत में असाधारण कथ्य का एक उदाहरण पेश है..
"कांधे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम हँसता है तम
युद्धों के लावा से उठते हैं प्रश्न और गिरते हैँ हम”
राधेश्याम बन्धु जी के नवगीत में से अदम्य जिजीविषा और चेतावनी का स्वर का एक उदाहरण देखिये
"जो अभी तक मौन थे वे शब्द बोलेंगे
हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे।"
मौसम पर आधारित नवगीत में परोक्ष सन्देश का एक उदाहरण देखिये
"धूप में जब भी जले हैं पाँव घर की याद आयी
नीम की छोटी छरहरी छाँव में डूबा हुआ मन
द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता माँ-बँध ऑंगन
सफर में जब भी दुखे हैं पाँवघर की याद आयी”
इस नवगीत में ग्रीष्म का वर्णन भर न होकर संतप्त मनुष्य को अपनी जड़ों की ओर लौटने का परोक्ष संदेश भी निहित है
अटल जी के प्रस्तुत नवगीत में सामयिक कथ्य और पीढा की अनुभूति देखिये
"चौराहे पे लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखरी चाल
कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं"
अटल जी के नवगीत में आह्वाहन भरी पंक्तियाँ देखिये
"आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।"
नवगीत लेखन में सावधानियाँ :
नवगीत जितना सहज होता है, उतना ही प्रभावशाली होता है। अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में यह नहीं भूलना चाहिए कि संप्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। भाषीय क्लिष्टता और प्रयुक्त बिम्बों की दुरूहता चौंकाती ज्यादा है और सुहाती कम है, जिसके कारण उसका पाठकों व श्रोताओं से सहज संवाद स्थापित नहीं हो पाता । नवगीत का सहज गीत होना भी ज़रूरी है ।
नवगीतों नें सदा से ही लोकजीवन से ऊर्जस्विता ग्रहण की है, किन्तु यह नवगीत का प्रतिमान नहीं है । आँचलिकता रचना में नव्यता लाती है, किन्तु जब आँचलिकता ही प्रधान हो जाए तो वह नवगीत का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही पूरा नहीं करती। भाषायी स्तर पर किये गए अत्यधिक आँचलिक प्रयोग कथ्य की संप्रेषणीयता को कम करते हैं । कभी कभी तो रचनाओं को समझने के लिए शब्दकोशों का सहारा लेना पड़ता है । वास्तव में ऐसी क्लिष्टताओं से मुक्त गीत ही नवगीत होता है। अतः नवगीत में आँचलिक शब्दों को उनके परिवेश के अनुरूप ही संयत तरह से उठाना चाहिए ।
नवगीत में आत्मकथा कहने की प्रवृत्ति नहीं होती । जीवन के सुख-दुःख को विस्तार से समेटने, स्मृति की सिरहनों को सम्पूर्णता से शब्दशः व्यक्त करने , आगत अनागत को चित्रित करने , आपबीती का बखान करने आदि का विस्तार नवगीत में दोष माना जाता है ।
नवगीत में बिम्ब प्रधान काव्यता तो अभिप्रेय है, किन्तु सपाट बयानी नहीं , क्योंकि सपाट सिर्फ गद्य ही होता है, गीत नहीं। सपाट बयानी सम्प्रेषण का माधुर्य हर लेती है, बिना गेयता और प्रवाह के कोई भी अभिव्यक्ति नवगीत नहीं हो सकती ।
नवगीत सदा ही अर्थप्रधान होना चाहिए, कोरी तुकबंदी उसे फ़िल्मी गीत सा सतही, अत्यधिक आँचलिकता उसे लोक-गीत सा आँचलिक और आपबीती का बखान उसे सिर्फ साधारण गीत ही रहने देते हैं ।
नवगीत में मात्रा गणना के नियम :
नवगीत विधा गीत का ही नया आधुनिक स्वरुप है, तो जितने नियम गीत में होते हैं वह तो नवगीत में होंगे ही पर कुछ और नव्यता के साथ...
@सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि गीत क्या है......?
सुर लय और ताल समेटे एक गेय रचना जो अंतर्भावों की प्रवाहमय सहज अभिव्यक्ति हो
@अब यह जानना होगा कि समान गेयता और सुर लय ताल कैसे आते हैं?
यदि हम मात्रिक नियमों का पालन करते हैं... शब्द संयोजन में कलों के समुच्चय का निर्वहन करते हुए..यानी सम शब्दों के साथ सम मात्रिक शब्द लेकर व विषम शब्दों के साथ विषम मात्रिक शब्द लेकर.
स्वयं ही देखिये कि क्या एक पंक्ति में १४ मात्रा और दूसरी पंक्ति में १७ मात्रा किन्ही दो पंक्तियों में सम गेयता दे सकती हैं?
यह सही है कि मात्रा के निर्धारण में स्वतंत्रता होती है, पर जो निर्धारण मुखड़े में किया जाता है ...यदि अंतरे की अंतिम पंक्ति उसी का पालन नहीं करेगी तो फिर उसी लय में मुखड़े को दोहराया कैसे जाएगा..
यदि मुखड़ा १६, १६ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी ८ या १६ की यति पर होनी चाहियें
यदि मुखड़ा १२, १२ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी १२ की होनी चाहियें
इसमें ....अनंत विविधताएं ली जा सकती हैं इसीलिये इसे नियमबद्ध करना संभव नहीं है....पर एक बात ज़रूर है कि एक ही गणना क्रम का पालन तो पूरे गीत में करना ही चाहिए
अब एक महत्वपूर्ण बात आती है...कि सुधि पाठक जन और रचनाकार कई उदाहरण पेश कर सकते हैं जो इस क्रम का पालन न करते हों, फिर भी नवगीत की श्रेणी में लिए जाते हों... तो इस महत्वपूर्ण बात को समझना आवश्यक है, कि नवगीत विधा को साहित्यकारों का खुला समर्थन अभी तक प्राप्त नहीं है..
दुर्भाग्यवश इस विधा के आलोचक भी नहीं हैं, और जो आलोचक हैं वो पूर्वाग्रह ग्रसित हैं और इस विधा को ही अस्वीकार कर देते हैं तो शिल्प गठन पर तो चर्चा ही नहीं होती..
इस विधा में मात्रा का निर्धारण अभी तक नियमों में आबद्ध नहीं है, लेकिन यदि सुविवेक से कोई भी प्रबुद्ध रचनाकार एक गेयता में पंक्तियों को बाँधता है तो यह मात्रा निर्धारण या वार्णिक क्रम निर्धारण के बिना संभव ही नहीं.. इस बिंदु पर ही एक स्वस्थ चर्चा की आवश्यकता है... इसीलिये मैंने आलेख में किसी भी उदाहरण को प्रस्तुत नहीं किया था...
सभी पाठकों से मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें और इस विधा पर अपनी एक समझ को विकसित होने का सुअवसर दें... न कि किसी भी अपवाद को उदाहरण मान कर नवगीत के प्रतिमान स्थापित कर लें...
सादर.
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नोट: प्रस्तुत आलेख अंतरजाल पर उपलब्ध जानकारियों व तदनुरूप विकसित निजी समझ पर आधारित है.
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जी आदरणीय सौरभ जी, मुझे नव गीत, नई-कविता,और अतुकांत कविता के बीच अंतर का स्पष्ट ज्ञान नहीं है | मै तो
कुछ सन ७० से ७५ के मध्य हमारे समाज की मासिक पत्रिका अग्रगामी में प्रकशित रचनाओ के आधार पर सह-
संपादक सन ७५ से ७८ बनाया गया तो अपने आप को लेखक समझने लग गया था (चूहे को हल्दी की गाँठ वाली
कहावत लागु हो गयी)| अब इस अंतर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए ओबीओ पर कोई link उपलब्ध हो तो
जानकारी करावे | या फिर मेरी एक दो रचनाए जो ८० के दशक में हमारे अग्रवाल समाज की पत्रिकाओं में ज्यादा
पसंद की गयी को उदधृत करू, और वह नव गीत,नए कविता जो भी हो के बारे में बतावे, तो कुछ ज्ञान हो सकता है|जैसे-
आदरणीय लक्ष्मण जी
आलेख लेखन के श्रम पर अनुमोदन के लिए आपकी आभारी हूँ.
//.....तो नव गीत को गद्य साहित्य ही मानते है और उनके कथनानुसार बगर लय,ताल,गेयता और शिप विधा के लिखा गया काव्य नहीं है और वेदों दे अनुसार रचनाकर्मीपाप करते है |अर्थात वेद संमंत नहीं है |//
नवगीत के साथ यही बहुत बड़ी विडम्बना या कहें कि दुर्भाग्य रहा है...कि पूर्वाग्रही साहित्यकारों ने इस खूबसूरत विधा को एक सिरे से नकार दिया..यही बहुत बड़ा कारण भी रहा कि यह विधा विधापरक जागरूक आलोचकों की समीक्षा से वंचित रह गयी.
शेष...आपकी जिज्ञासाओं का स्वागत है.
ऐसा नहीं है, आदरणीया.
इस विधा को समुन्नत विद्वानों द्वारा ’नकारा गया’ कहना अनुचित होगा. जब नई कविता तक की स्वीकार्यता बनी तो नवगीत अपनी गेयता और शाब्दिक प्रौढ़ता के कारण दिलों में बस गया, रचनाकारों के भी तो श्रोता और पाठकों के भी.
मैं इस बीच जोड़ता चलूँ कि नई कविता का प्रादुर्भाव बंधनमुक्तता के क्रम में हुआ, किन्तु अपनी असहजता और अनावश्यक इंगितों के बोझ के कारण स्वयं आज हाशिये पर चली गयी है.
हम दखें कि नवगीतों के पुरोधा कैसी-कैसी विभूतियाँ रहीं हैं. वे आज साहित्य के आँगन में पूज्य हैं. किसी एक का नाम क्या लिया जाय ! चाहे भवानीभाई हों, वीरेंद्र मिश्र हों, रमानाथ हों, राम अवतार हों, नईम हों, नीरज हों, उमाकांतजी, बुद्धिनाथ हों, कन्हैया लाल नंदन हों, शांति सुमन हों, कैलाश गौतम हों, हरीश निगम हों. ये कुछ ऐसे नाम हैं जो बस एकबारग़ी दिमाग़ में आगये. वर्ना इनके समकक्ष कई-कई प्रखर नाम हैं.
हम अतुकांत कविता, गेय अतुकांत कविता, नई कविता, नवगीत और गीत के फ़र्क को स्पष्ट रखें. अन्यथा विष्यांतर ही नहीं होगा बल्कि कई विधाओं में घालमेल हो जायेगा.
सादर
नवगीत की स्वीकार्यता के विषय में अपनी समझ भर एक बात जोड़ना चाहता हूं कि नवगीत को जो नकारते हैं वे दरअसल साहित्य के विकास की प्रक्रिया को नकारने का प्रयास करते हैं। छंद से लेकर आज तक जितनी भी विधाओं ने जन्म लिया है चाहे वे हिन्दी साहित्य में हो या विश्व साहित्य में पुरानी विधा की जड़ता या कहें के बंधनों से मुक्त करने के प्रयास में किसी नई विधा का जन्म हुआ। यह मानवीय प्रवृत्ति भी है कि पुरानी परम्पराओं की जड़ता को नकारने के लिए ही नई परम्पराओं की नींव पड़ती है। साहित्य में किसी नई विधा ने पैठ बनाई है तो उसके पीछे नए प्रयोगों का प्रयास रहा है और ये प्रयोग साहित्य के विकास के लिए आवश्यक भी हैं।
प्रिय प्राची जी नव गीत के शिल्प पर इतनी विस्तृत सार्थक व्याख्या पढने को मिली बहुत अच्छा लगा बहुत लोग लाभान्वित होंगे हमारी एक ब्लॉग मित्र पूर्णिमा बर्मन जी नवगीत में सिद्धहस्त हैं उन्होंने बहुत से कालजयी नवगीतों की रचना की है हिंदी ब्लॉग्गिंग में कदम रखने वाली पहली महिला हैं उनसे लखनऊ में हमारी भेंट हुई थी आज ये पोस्ट देखी तो उनकी याद आ गई
आदरणीया राजेश कुमारी जी आलेख पर कथ्य के विस्तार की सार्थकता को आपका अनुमोदन मिलना बहुत संतुष्टि प्रदान कर रहा है...सादर आभार.
आदरणीया पूर्णिमा बर्मन जी तो नवगीत की सिद्धहस्ताता में अतुलनीय हैं.इस आलेख को देख कर आपने उन्हें याद किया व उनसे मुलाक़ात के क्षणों को पुनः स्मरण किया ये तो खुशी की बात है
सादर.
बिलकुल सही कहा राजेश कुमारी जी आपने पूर्णिमा वर्मन जी के नवगीत मैंने भी पढ़े है , मुझे उनका लेखन ही बहुत उम्दा लगता है वे सदा नवगीत के लिए कार्य करती रहती है .
नवगीत विधा सच में मनभावन है , ......यह चर्चा के लिए हर बार प्राची जी को धन्यवाद कहना न भूलेंगे .
एक सुलझा हुआ और नवगीत को उचित ढंग से परिभाषित करते हुये इस आलेख के लिए हार्दिक बधाई प्राची जी ..इसी संदर्भ में मैंने जो समझा था नवगीत के विषय में उसे दोहराऊंगी
" नव गीत परिस्थितियों के सन्दर्भ में भावनाओं और संवेदनाओं को चेतना और चिंतन के धरातल पर उर्जस्विता के साथ शब्दों में बुनते हुए ,गुनगुनाते हुए चलते हैं, जनमानस को साथ लेकर उनसे संवाद करते हुए अपनी बात कहते हैं , नए बिम्ब और प्रतीकों के माध्यम से सदैव रोचक और उर्जावान रहते हैं । गीत अगर झील का ठहराव हैं तो नवगीत चंचल नदी जो मस्ती में बहती जरूर है पर दो तटों के बीच में सीमित रहते हुए एक गति का अनानुशासित अनुशासन का पालन करते हुए "
आपने जो उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ये दोनों ही गीत अटल जी के है ......इसे आलेख में संशोधित कर लीजिये
"चौराहे पे लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखरी चाल
कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं"
अटल जी के नवगीत में आह्वाहन भरी पंक्तियाँ देखिये
"आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।"
आदरणीया सीमा जी
आलेख के तथ्य आपको सुलझे हुए और विषय के विस्तार से न्याय करते हुए लगे यह जान मुझे बहुत संतुष्टि मिली है आदरणीया.
//गीत अगर झील का ठहराव हैं तो नवगीत चंचल नदी जो मस्ती में बहती जरूर है पर दो तटों के बीच में सीमित रहते हुए एक गति का अनानुशासित अनुशासन का पालन करते हुए //
आपने जिन खूबसूरत शब्दों में गीत व नवगीत के भेद व माधुर्य को बताया है बहुत मुग्धकारी है..
आदरणीया सीमा जी मुझे भी यही पता था कि यह गीत "चौराहे पर लुटता चीर..."आ० अटल जी का है...और इसे मैंने स्व० जगजीत सिंह की आवाज में सूना भी है आज ही अंतरजाल पर इसे डॉ० शिवमंगल सिंह सुमन जी के नाम से देखा तो भ्रमित हो उनका नाम लिख बैठी...इस सुधार को इंगित करने के लिए हार्दिक आभार .
वाह सीमा जी आपकी चर्चा को पढ़कर आपका नवगीत याद आ गया जो मुझे बहुत प्रिय है , आपने नवगीत की जो व्याख्या दी है , पढ़कर मन में एक संतुष्टि मिली और नवगीत का संगीत मन में हिलकोरे मारने लगा .
//गीत अगर झील का ठहराव हैं तो नवगीत चंचल नदी जो मस्ती में बहती जरूर है पर दो तटों के बीच में सीमित रहते हुए एक गति का अनानुशासित अनुशासन का पालन करते हुए //
आपके बयां करने का अंदाज ही रस में खुला हुआ है जो चर्चा को और रोचकता प्रदान कर रहा है .
बिखर रही है खुशबू
नवगीत की
...........
आपकी बातों को हम हृदय से समर्थन देते हैं, आदरणीया शशिजी. वस्तुतः इस मंच पर इस विधा में सबसे पहला आलेख आदरणीया सीमाजी का ही है.
डॉ प्राची जी,
इस लेख के माध्यम से जिस सहजता से नवगीत के मूल तत्वों पर चर्चा की गयी है और जानकारी साझा की गयी है इसके लिए आपको हार्दिक धन्यवाद
ग़ज़ल के अतिरिक्त इस विधा ने मुझे अक्सर अपनी ओर खींचा है और पूर्णिमा वर्मन जी के प्रोत्साहित करने पर कुछ नवगीत लिखे भी थे मगर अभी तक शिल्प पर पकड़ नहीं बना सका, या शायद ग़ज़ल हावी हो जाती है इस कारण बात नहीं बन सकी ...
इस विधा के सन्दर्भ में किन बातों से बचना चाहिए और किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ये सब मुझे स्पष्ट नहीं था
आपके लेख से बहुत कुछ जानने का सुअवसर प्राप्त हुआ
आपके निर्देश अनुसार उदाहरण के रूप में एक नवगीत प्रस्तुत करता हूँ आशा करता हूँ इसके गुण दोष पर कुछ जानकारी मिलेगी ...
एक नवगीत : शब्द चित्रों की सफलता के लिए
खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे,
शब्द चित्रों की सफलता के लिए |
शहर धीरे धीरे
बन बैठा महीन
दिख रहा है हर कोई
कितना जहीन
गाँव दण्डित है
सहजता के लिए
खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे,
शब्द चित्रों की सफलता के लिए |
घर की दीवारों
में हाहाकार है
लक्ष्मी का रूप
अस्वीकार है
कौन सोचे
नव प्रसूता के लिए
खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे,
शब्द चित्रों की सफलता के लिए |
जब से हम सब
खुद पे अर्पण हो गये
बस तभी शीशा से
दर्पण हो गये
या सुपारी हैं
सरौता के लिए
खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे,
शब्द चित्रों की सफलता के लिए |
हाशियों में भी
नहीं संवेदना
हर नए पन्ने में
खुद की कल्पना
हैं सभी आतुर
नवालता के लिए
खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे,
शब्द चित्रों की सफलता के लिए |
पंक्तियाँ भावों से
कोरी हो गईं
अनकही ग़ज़लें भी
चोरी हो गईं
हम तखल्लुस भर हैं
मक्ता के लिए
खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे,
शब्द चित्रों की सफलता के लिए |
- वीनस केसरी
सादर
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