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ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक 36 में सम्मिलित सभी गज़लों का संकलन (चिन्हित मिसरों के साथ)

परम स्नेही स्वजन

सबसे पहले तो विलंब के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | इस बार के तरही मुशायरे की फिसलती ज़मीन पर इतनी खूबसूरत गज़लें आईं हैं की मन आह्लादित है | इस मंच की यही खुसूसियत है की आप अपनी प्रगति धीरे धीरे नोटिस कर सकते हैं, यह बात मैं उन नए लोगो के लिए कह रहा हूँ जो हाल ही में इस मंच से जुड़े हैं साथ ही मैं मंच से जुड़े उन वरिष्ठ शायरों से गुजारिश भी करता हूँ की आप नए शायरों की रहनुमाई इसी प्रकार से करते रहे |

बात है मिसरों को चिन्हित करने की तो इस बार एक कदम आगे बढ़ते हुए इस बार मिसरों को लाल रंग के साथ-साथ हरे और नीले रंग से भी दर्शाया गया है|

लाल तो आप जानते ही हैं कि बेबह्र मिसरों के लिए है, हरे मिसरे भी बेबह्र हैं परन्तु वहां बह्र की गलती अलफ़ाज़ को गलत वजन में बाँधने से हुई है| नीले मिसरे ऐसे मिसरे हैं जिनमे कोई न कोई ऐब है | नीले मिसरों को चिन्हित करते समय जिन ऐबों को नज़र में रखा गया है वह है तनाफुर, तकाबुले रदीफ़, शुतुर्गुर्बा, ईता, काफिये के ऐब और ऐब ए ज़म |

गौरतलब है की बहुत से मिसरों और भी ऐब हैं परन्तु इस मंच पर चल रही कक्षा में जिन ऐब पर चर्चा हो चुकी है उन्हें ही ध्यान में रखा गया है | कई मिसरों में ऐब ए तनाफुर भी है पर इसे छोटा ऐब मानते हुए छोड़ा गया है,  यक़ीनन ऐब तो ऐब होता है और शायर को इस ऐब से बचना चाहिए |

यदि कहीं कोई गलती हो गई हो या किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो तुरंत सूचित करें |

सादर धन्यवाद

राणा प्रताप सिंह
सदस्य टीम प्रबंधन सह मंच संचालक (तरही मुशायरा)

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प्रस्तुत है ग़ज़लों का संकलन :-

Tilak Raj Kapoor 

ज़रा सी दूर तलक, साथ चल के देखते हैं
बिखर चुका है यकीं, चल बदल के देखते हैं।

बुझे बुझे से चरागों में रौशनी देखी
अभी कुछ और करिश्‍मे ग़ज़ल के देखते हैं।

बहुत दिनों से नया कुछ नहीं कहा हमने
किसी के दर्द के दरिया में जल के देखते हैं।

सही समय पे जो खुद को बदल नहीं पाते
वही दरख्‍़त कभी हाथ मल के देखते हैं।

गिरे कुछ ऐसे कि अब तक सम्‍हल नहीं पाये
तुम्‍हारा साथ मिला है, सम्‍हल के देखते हैं।

विदा के वक्‍त में दुल्‍हन के हाथ की मेंहदी
इसी में ख्‍़वाब कई रंग कल के देखते हैं।

सदा ही चाल औ तिकड़म कपट से काम लिया
कहॉं ये लोग कभी खुद को छल के देखते हैं।

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चलो कि दूर जड़ों से निकल के देखते हैं
नयी हवा है, नयी चाल चल के देखते हैं।

हरिक दिशा से कई हाथ आ गये जुड़ने
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं।

नसीहतों से भरा कल समझ गये जो भी
वही ज़मीं से जुड़े ख्‍़वाब कल के देखते हैं।

कमी, कमी है, कमी है, न रोईये, चलिये
बहुत मिला है, नज़रिया बदल के देखते हैं।

जरा सी जि़द थी बिछुड़ कर मिले हैं मुद्दत से
जरा सी बात पे फिर से मचल के देखते हैं।

गुमे हुए हैं जो साजि़श में कब वो देखेंगे
जो हादिसों से मिटे दिल, दहल के देखते हैं।

न सिर्फ़ बात करें कर के भी दिखायें कुछ
यहॉं के लोग नतीज़े अमल के देखते हैं।

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Saurabh Pandey
सियाह रात के मारे दहल के देखते हैं
सड़क से लोग नज़ारे बगल के देखते हैं

बहुत किया कि उजालों में ज़िन्दग़ी काटी
कुछ एक पल को अँधेरों में चल के देखते हैं

फिर आज वक़्त उमीदों से देखता है हमें
उठो कि वक़्त की घड़ियाँ बदल के देखते हैं

किसी निग़ाह में माज़ी अभी तलक है जवां
अभी तलक हैं चटख रंग कल के, देखते हैं

तब इस बगान में गुलमोहरों के साये थे
मिलेगी शाख पुरानी.. टहल के देखते हैं

लगा कि नाम तुम्हारा हमें छुआ ’सौरभ’.. .
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं !!

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फरमूद इलाहाबादी
ग़ज़ल से ऊब के हमको मचल के देखते हैं
उछल पड़े हैं जो जलवे हज़ल के देखते हैं

खुली रखो न हमेशा ही खिड़कियाँ दिल की
जवान झुक के तो बच्चे उछल के देखते हैं

पडी है लात उन्हें जब से, दांत टूट गये
तभी से और ज़ियादा संभल के देखते हैं

तुम्हारे इश्क में बेले हैं आज तक जितने
लगी है भूक तो पापड वो तल के देखते हैं

कहे न साँप कोई आस्तीन का हमको
लिहाज़ा आप के नेफे में पल के देखते हैं

सुना है इनमें जो डूबा उबर नहीं पाया
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

मरा या ज़िंदा है फरमूद जानने के लिए
दुबारा जीप से अपनी कुचल के देखते हैं

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Arun Kumar Nigam 

चलो जहान की सूरत बदल के देखते हैं
पराई आग में कुछ रोज जल के देखते हैं

कहा सुनार ने सोना निखर गया जल के
किसी सुनार के हाथों पिघल के देखते हैं

कभी कही न जुबां से गलत सलत बातें
हरेक बात पे मेरी उछल के देखते हैं

अभी उड़ान से वाकिफ नहीं हुये बच्चे
हमारे नैन से सपने महल के देखते हैं

जरा सबर तो रखो होश फाख्ता न करो
अभी कुछ और करिश्में गज़ल के देखते हैं

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वीनस केसरी 

बनावटी जो अमल आजकल के देखते हैं
तो हम भी अपना ये लहजा बदल के देखते हैं

सड़क पे कैसा तमाशा किया अमीरों में
गरीब लोग ये क्या आँखें मल के देखते हैं

ये कैसे गुल खिले है हुस्न के चमन में, क्यों ?
वो अपने आप को इतना सँभल के देखते हैं

हम उनकी वज्ह से ये दिल का रोग ले बैठे
पर उनसे ये न हुआ "चलिए चल के देखते हैं"

अभी कुछ और जमीनें हैं जेह्न में "वीनस"
"अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं"

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अरुन शर्मा 'अनन्त'
किसी के प्यार में खुद को बदल के देखते हैं,
जरा सा इश्क की गलियों में चलके देखते हैं,

तेरा ही जिक्र सुबह शाम लब ये करते रहे,
तेरा ही ख्वाब निगाहें मसल के देखते हैं,

लहूलुहान मुहब्बत में रोज होने लगा,
अजब ये मर्ज लगा है सँभल के देखते हैं,

न दूर याद गई ना ही नींद आई कभी,
कि सारी रात ही करवट बदल के देखते हैं,

लगा के बीच में शे'रों के काफिया जादुई,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं.

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ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi)

हम अपने घर से जो गुलशन निकल के देखते हैं
फिर O.B.O. के सदस्यों को चल के देखते हैं

चलो कि सहने चमन में टहल के देखते है
जरा मिजाज़ हम अपना बदल के देखते हैं

नज़र से हटता नहीं है वो झील का मंज़र
हसीन फूल खिले है कवँल के देखते है

कहाँ वो प्यार के नग्मे विसाल की बातें
सुनहरे ख्वाब यहाँ लोग कल के देखते हैं

जब आइना है मुकाबिल सवांर लें खुद को
गमे हयात की सूरत बदल के देखते है

हमेशा रहता है मौसम वहां मोहब्बत का
के सूए वादिये कश्मीर चल के देखते है

जिन्हें ज़रा भी नहीं प्यार अपने गुलशन से
वही गुलाबों को अक्सर मसल के देखते है

कही पे मीर है इकबाल है कही ग़ालिब
"अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते है"

नसीब होता नहीं एक घर भी ऐ गुलशन
हसीन ख्वाब तो हम भी महल के देखते है

सुना है दर पे मिलेंगे उसी के सब "गुलशन"
चलो दयार में उसके ही चल के देखते है

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कल्पना रामानी 

गगन में छाए हैं बादल, निकल के देखते हैं।
उड़ी सुगंध फिज़ाओं, में चल के देखते हैं।

सुदूर वादियों में आज, गुल परी उतरी,
प्रियम! हो साथ तुम्हारा, तो चल के देखते हैं।

उतर के आई है आँगन , बरात बूँदों की,
बुला रहा है लड़कपन, मचल के देखते हैं।

अगन ये प्यार की कैसी, कोई बताए ज़रा,
मिला है क्या जो पतंगे, यूँ जलके देखते हैं।

नज़र में जिन को बसाया था मानकर अपना,
फरेबी आज वे नज़रें, बदल के देखते हैं।

चले तो आए हैं, महफिल में शायरों की सखी,
अभी कुछ और करिश्में, ग़ज़ल के देखते हैं।

विगत को भूल ही जाएँ, तो ‘कल्पना’ अच्छा,
सुखी वही जो सहारे, नवल के देखते हैं।

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मोहन बेगोवाल

चलो मिजाज अभी हम बदल के देखते हैं
बदल रहें जहाँ के संग चल के देखते हैं.

रवाएती थी जदीद अब वो गज़ल हो गई,
अभी कुछ और करिश्मे गज़ल के देखते हैं.

यहाँ चली हवाओं ने दिखाए रंग ऐसे,
कभी इनसे बच,कभी इनमें ढल के देखते हैं.

क्या बताएँ तुझे, ना यकीं रहा खुद पे,
ख्वाब फिर भी हमेशा महल के देखते हैं.

तलाश लिया बहुत कुछ मन के समंदर से ,
चलो खुदा साथ रिश्ता बदल के देखते हैं.

खुद के ना रहे, ना हम बेगानो के हो सके,
शमअ की तरह अक्सर जल के देखते हैं.

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Dinesh Kumar Khurshid 

फिजा तो खूब है घर से निकल के देखते है
तमाम सब्ज़ मनाज़िर के चल के देखते है

ये अर्श-ओ-फर्श समन्दर पहाड़ सब्जों गुल
खुदा के सारे करिश्मे संभल के देखते है

कहाँ कहाँ हुए सैराब प्यास के मारे
तमाम चश्मे वफ़ा यूँ उबल के देखते हैं

जहाँ का दर्द समेटे है अपने दामन में
बहुत अजीब है तेवर ग़ज़ल के देखते है

न हाथ आयेगा अमृत वगैर हुस्ने अमल
तो आज ज़हर हमी खुद निगल के देखते है

कलम के जोर से सच्चाइयों की ताकत से
हम इन्कलाब के धारे बदल के देखते है

नहीं जो देता है मांगे से फल शज़र "खुर्शीद"
तो मेरे हाँथ के पत्थर उछल के देखते है

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Dr. Abdul Azeez "Archan"

चरागे फ़िक्र हैं दिन रात जल के देखते हैं
हिसारे तीरह फिजा से निकल के देखते हैं

रहे हयात में जिस सम्त चल के देखते हैं
नतीजे रूबरू अपने अमल के देखते हैं

हमारी फ़िक्र में क्या है हयाते मुस्तकबिल
बहुत अजीब है मंज़र जो कल के देखते हैं

तुम्हारी राह्बरी में ये ठोकरें कब तक?
हम आज खुद नया रस्ता बदल के देखते हैं

तमाम शह्र पे काले धुवें की छत क्यों है?
हुआ है क्या चलो घर से निकल के देखते हैं

ज़मीं के दर्द से जुड़कर हकीकतों के सबब
बदल गए हैं जो तेवर ग़ज़ल के देखते हैं

लगे न ठेस कोई तल्ख़ गुफ्तगू से अज़ीज़
रुख आइनों का हमेशा संभल के देखते हैं

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HAFIZ MASOOD MAHMUDABADI

निगार खानये हस्ती में चल के देखते हैं
वफ़ा के नक़्शे कदम पर निकल के देखते हैं

जो लोग अपने कदों को बलंद कहते थे
बलंदियों को वही अब उछल के देखते हैं

ग़ज़ल ने जलवे दिखाए हैं खूब खूब मगर
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

अमीरे शह्र का वादा भी खोखला निकला
मिजाज़ अपना चलो फिर बदल के देखते हैं

सताती याद है बचपन की जिस घडी हमको
तो मां के क़दमों पे हम भी मचल के देखते हैं

गनीम देख के हैरत से काँप उठता है
जब अपने हम कभी तेवर बदल के देखते हैं

है खौफ फिर न कहीं इंक़लाब आ जाये
मिजाज़ बदले हुए हम ग़ज़ल के देखते हैं

ज़हाने इश्क में हद से गुज़र के हम 'मसऊद'
सुलगती रेत पे सेहरा की चल के देखते हैं 

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Sanju Singh 

शमा -ए -मानिंद हम भी पिघल के देखते हैं ,
चिराग बुझ गए अब हम भी जल के देखते हैं .

नज़र उठे जब भी बस तु ही नज़र आये ,

इसी फ़िराक ज़रा हम संभल के देखते हैं .

अजीब हाल तिरा दिल मुझे मुफ़ीद लगे ,
सुनों कि आज यही दिल बदल के देखते हैं .

नज़र फ़लक के सितारों पे आज है मेरी ,

ज़मीन ख्वाब फकत हम महल के देखते हैं .

सुबह से शाम हुई हम बहर में उलझे हैं ,
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

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Ajay Kumar Sharma

निसारे जात से बाहर निकल के देखते हैं
हम अपना आज नज़रिया बदल के देखते हैं

सफर का शौक है हम को कहीं भी ले के चलो 
तुम्हारे साथ भी कुछ दूर चल के देखते हैं....

ज़माने को तो बदलना हमारे वश में नहीं
लो अपने आप को ही हम बदल के देखते हैं ....

किसी को फिक्र है कितनी चलो ये आज़मा लें
खिलौनों के लिए हम भी मचल के देखते हैं...

भला ये कौन है जो तीरगी से लड़ रहा है
अँधेरों से ज़रा बाहर निकल के देखते हैं....

ये जुस्तजू का सफर भी तमाम होने को है
सुकूँ के वास्ते हम साथ चल के देखते हैं....

संवार लेते हैं गेसू ग़ज़ल के हम भी चलो
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ....

लकीरें हाथ की शायद बदल ही जाएँ अजय
ज़रा सा वक़्त के साँचे में ढल के देखते हैं ....

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गीतिका 'वेदिका'

यकी हमे है जो खुद पर लो जल के देखते है
भरोसा जिनको नही वो उछल के देखते है

कभी रहा न वो मेरा कोई छलावा था
अगर गिरे भी तो एक बार चल के देखते है

न कोई दाव वे जीते न कोई हम हारे
चलो न अब के ये पाली बदल के देखते है

गये पहाड़ पे फिर प्यार मिल गया हमको
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है

मिली दगा फिर भी जिन्दगी रुकी तो नही,
चलो न प्यार में फिर से फिसल के देखते है

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Amit Kumar Dubey Ansh 

लहू जमा कब से अब पिघल के देखते हैं 
बहुत हुआ जमना अब उबल के देखते हैं

सफ़र गुज़र कर भी साथ चल रहा मेरे 
उसी अदा से चलो फिर मचल के देखते हैं

सुना बहुत कि कयामत तुम्हारी महफ़िल में
रकीब लाख़ सही हम टहल के देखते हैं

नयी उडान नये ख्वाब जादुई मंज़र
नया मिज़ाज चलो यार ढल के देखते हैं

कि सर से पांव मिरा हो गया ग़ज़ल पुरनम
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

बड़ा हसीन तिरा सिम्त -सिम्त लगता है
चलो कुछ और नज़ारे महल के देखते हैं

प्रलय विनाश हुआ जो उसे न भूलेंगे
बढ़े चलो कि प्रलय से निकल के देखते हैं

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Ashok Kumar Raktale 

चलो की आज बगीचे में चल के देखते हैं,
खिले गुलाब चमेली टहल के देखते हैं.

कभी विनाश हुआ है रुकी नदी से भी?
हुआ विनाश न! कैसे? सम्हल के देखते हैं.

मचल-मचल के गए थे नदी किनारे पर,
हशर जिन्हें न पता हो मचल के देखते हैं.

बही विशाल शिलाएं गजब रवानगी थी
"अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं"

उन्हें सकून मिला है ‘अशोक’ देख अहा !
बचे कुछेक जनों को उछल के देखते हैं,

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Shijju S.

हर एक सिम्त उन्हें जब मचल के देखते हैं
लिये हिजाब हमें वो सँभल के देखते हैं

फिर आज रौनके-शह्र आम हो गयी शायद
चलो फिर आज घरों से निकल के देखते हैं

जहाँ मिले थे कभी हम कई दफ़ा तुमसे
उठो ज़रा कि उसी राह चल के देखते हैं

कभी ग़ज़ल में उतर ख़्वाब में समा के कभी
जमालो-वुसअते-कुदरत टहल के देखते हैं

किसी तरह से नुमायाँ हुई न हालते-दिल
हुज़ूरे-यार क़याफ़ा बदल के देखते हैं

शुरू हुआ कि अभी दौरे नज़्म ये ''तनहा''
''अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं''

Abid ali mansoori 

जरा आओ घर से निकल के देखते हैँ,
लगी है आग कैसे चल के देखते हैँ!

बहुत हो चुके यह ताअस्सुब के सिलसिले,
अदाबत को मोहब्बत मेँ बदल के देखते हैँ!

इक नई सहर की उम्मीद लिए दिल मेँ,
किसी शाम की तरह ढल के देखते हैँ!

थके परिन्दोँ की उड़ान अभी बाकी है,
मंज़र ये पहरेदार महल के देखते हैँ!

एक रोज़ तो मिलेगी हमेँ चाहतोँ की मंज़िल,
गर्दिश मेँ ज़माने की संभल के देखते हैँ!

तपते सहरा को भी समन्दर बना देती है,
अभी कुछ और करिश्मेँ ग़ज़ल के देखते हैँ!

जीस्त खुशियोँ से उनकी जगमगाने के लिए,
चिरागोँ की तरह हम भी जल के देखते हैँ!

न फ़रेब न सितम न अदाबत हो जहां मेँ,
चलो किरदार अपना 'आबिद' बदल के देखते हैँ!!

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Abhinav Arun 

हकीकतों की ज़मी पर जो चल के देखते हैं ,
वही कमान से बाहर निकल के देखते हैं ।

वो आँधियों में भी बाहर निकल के देखते हैं ।
हवा के रुख को परिंदे, बदल के देखते हैं

कई सदी तो तुम्हारे हरम के दास रहे ,
हमें भी हक़ है कि सपने महल के देखते हैं ।

तरक्कियों के ये सांचे मुझे पसंद नहीं ,
जिन्हें लुभाते हैं वो इनमे ढल के देखते हैं ।

जिन्हें ज़मीनी हकीकत का कोई इल्म नहीं ,
वो आपदा को भी पुष्पक पे चल के देखते हैं ।

हमीं ने झुनझुने वालो पे ऐतबार किया ,
कि जैसे बाप को बच्चे उछल के देखते हैं ।

अभी तो मुझको इबादत की एक ठौर मिली ,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ।

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अरुन शर्मा 'अनन्त'

बुरी नियत से दरिन्दे मचल के देखते हैं,
बड़ो को प्यार से बच्चों को छल के देखते हैं,

झुकी झुकी सी नज़र वार बार बार करे,
वो उसपे और अदायें बदल के देखते हैं,

ये सारी उम्र तेरी राह तकते बीत गई,
तू आयेगी कि नहीं आज जल के देखते हैं,

बड़ा हसीन सा दिखने में है तारों का जहाँ
चलो चलें कि फलक साथ चलके देखते हैं,

सभी के शे'र निराले सभी के शे'र जवां,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं...

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Er. Ganesh Jee "Bagi" 

सदैव भाग्य भरोसे जो चल के देखते हैं,
वो बंद आँखों से सपने महल के देखते हैं |

न कोई फैसला ज़ज्बात मे कभी होता,
वफ़ा की राह पे कुछ पल टहल के देखते हैं |

तना-तनी में बनी बात क्यों बिगाड़े हम,
जो आप बदलें तो हम भी बदल के देखते हैं

बदलने गाँव की सूरत पधारे नेता जी,
जनानी ओट से औ हम उछल के देखते हैं |

रदीफ़ -ओ- काफ़िया बह्रो कहन का है जादू,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं |

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Dr Lalit Kumar Singh 

निगाहे-नाज़ नजारों में ढल के देखते हैं
गिरा कोई भी अगर,खुद संभल के देखते हैं

तिरी निगाह की जद में रहा यहाँ अबतक
कहो तो आज नज़र से निकल के देखते है

दिखे नहीं जो किसी को, तो आह भरता क्यूँ
खुद अपनी सांस की हद में टहल के देखते हैं

कहाँ तो एक भी तिनका कभी नहीं जुटता
कहाँ तो ख्वाब, सुना है, महल के देखते हैं

कहा कि सुन लो मिरी बात ऐ जहाँ वालो
जो बात बन न सकी तो उबल के देखते हैं

तिरा हिजाब उठाते, तो फिर जमाना था
चलो यहाँ से कहीं और चल के देखते हैं

कहाँ-कहाँ, ये नचाया हमें तिरा ज़ल्बा
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

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Ram Shiromani Pathak

चलो की आई है बारिस टहल के देखते है ,
वही थी याद पुरानी उछल के देखते है !

हुआ है क्या जो नहीं मेघ नभ पे दिखते है !
किसान ख्वाब तो अच्छी फसल के देखते है !!

बहुत मज़े से ही काटी है ज़िन्दगी ,थोड़ा !
निशाते ग़म का मज़ा भी निगल के देखते है !!

पड़ी थी मार पड़ोसन को प्यार से देखा !
पकड़ के हाँथ नज़ारे बगल के देखते हैं !!

बड़ा ही प्यार दिलाती है ये कलम दीपक ,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते है !!

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गीतिका 'वेदिका' 

नदीम आज नदीदा में ढल के देखते है

नजीब टेड़ के गोशा में छल के देखते है

मिली न वो हमे ए यार चाह दिलबर की
चलो खजां से कही दूर चल के देखते है

हुयी न उम्र कि अहसास मिले है इतने
तो बार बार ये हम क्यों मचल के देखते है

चलो न दूर कहीं दूर घर बसा ले सुनो
यहाँ नदीम हमें खूब जल के देखते है

चलो न आज कि शब् चाँद पे जिया ज़लवा
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है

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Rajesh Kumari 

वो अब्रपार निगाहें बदल के देखते हैं
किसान आज घरों से निकल के देखते हैं

गई चुगान को माँ ना अभी तलक आई
इधर उधर तभी चूजे उछल के देखते हैं

मुसीबतों से हमें हारना नहीं आता
तपी जमीन पे हम आज चल के देखते हैं

सुना है दिन में उन्हें बिजलियाँ डराती हैं
सियाह रात में जुगनू संभल के देखते हैं

हमे अजीज बड़ी वो फ़कीर की बेटी
मिज़ाज और हुनर तो कमल के देखते हैं

रुबाइयों ने बड़ी वाहवाहियां लूटी
अभी कुछ और करिश्मे ग़जल के देखते हैं

नसीब "राज" ये सबका करम से ही बनता
सुना है रोज वो सपने महल के देखते हैं

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Harkirat Heer

चलो आज गम के सांचे में ढल के देखते हैं
जलती शमा में परवाने सा जल के देखते हैं

हौसला हो तो दूर नहीं होती मंजिल कभी
चलो कुछ और कदम भी चल के देखते हैं

क्या पता वो कभी थाम ले हाथ मेरा
इस वास्ते हम साथ चलके देखते हैं

ये कौन ले आया अँधेरे में रौशनी का दिया
तारे भी आज मचल - मचल के देखते हैं

दर्द भी है ,दवा भी और इक तड़प भी
अभी कुछ करिश्में गज़ल के देखते हैं

कहते हैं मुहब्बत इक आग का दरिया है
हीर चलो इस आग में जल के देखते हैं

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Kewal Prasad

सुहानी रात में चांदनी, छल के देखते हैं।
अजी ये बात है तो साथ, चल के देखते हैं।।

कभी खुशी कभी गम, रूला-रूला जाते।
अजब है दुनियां यहीं पे, मचल के देखते हैं।।

सुबह से शाम दीवाने भटकते हैं गम में।
मिलाएं कौन से मंजर, निकल के देखतें हैं।।

सभी ने मौत के डर से, जला दिया दीपक।
जलधि में ज्वार जो आया,खगंल के देखते हैं।।

वो आसमां से उतर के, सुबक-सुबक रोए।
हुए हैं ईंट भी सैलाब, चल के देखते हैं।।

पुरूष-बच्चे तड़प के, मरे-जिए ऐसे।
कहानी दर्द के जैसे, दहल के देखते हैं।।

उड़ा दें होश की परतें, झुकी-झुकी है नजर।
अभी कुछ और करिश्में, गजल के देखते हैं।।

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Harjeet Singh Khalsa

उसी के रंग में हम भी आ ढल के देखते है
कि साथ वक़्त के थोड़ा बदल के देखते है

यूँ बैठ जाने से मन्जिल नहीं मिला करती,
उदास-ऐ-दिल, कुछ और चल के देखते है 

न पा सके कुछ हम जब वफ़ा निभाकर भी,
वफ़ा के कौल से बाहर निकल के देखते है

असर दवा में नहीं सुन ज़रा ऐ चारागर,
ज़हर ले आ अब वो ही निगल के देखते है

मिटा दिए ग़म भी और हर उदासी भी,
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते है

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Sanju Singh 

फुहार रिमझिम है हम मचल के देखते हैं
चलो न यार लड़कपन में चल के देखते हैं

तमाम खार गुलों को मचल के देखते हैं
चमन बहार हुआ हम भी चल के देखते हैं

नज़र जिधर भी उठे, तू ही तू नजंर आये
इसी फ़िराक ज़रा हम संभल के देखते है.

अजीब हाल तिरा दिल मुझे मुफ़ीद लगे ,
सुनों कि आज यही दिल बदल के देखते हैं

नज़र फ़लक के सितारों पे आज है मेरी ,
ज़मीन ख्वाब फकत हम महल के देखते हैं .

सुबह से शाम हुई हम बहर में उलझे हैं ,
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं

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Saurabh Pandey 

वो चाँदरात में छत पर निकल के देखते हैं
घड़ी-घड़ी में अदाएँ बदल के देखते हैं

वो बन-सँवर के अदा से निहारते हैं हमें
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

न सोगवार दिखे, दर्द भी बयां न किया
चलो कुछ और मुखौटे बदल के देखते हैं

खुशी की चाह में चलते दिखे.. मग़र सब ही
नये-नये कई पहलू अज़ल के देखते हैं

हम अपने हाथ में नर्गिस लिये मुहब्बत का
ये ज़लज़ले ये तलातुम जदल के देखते हैं 

हर इक निग़ाह में ज़िन्दा हुआ है आईना
अज़ब लिहाज़ हैं ये आजकल के, देखते हैं

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सानी करतारपुरी 

ख्बाबों के दस्तेरस से फ़िसल के देखते हैं,
क्या है दुनिया, घर से निकल के देखते हैं। 

पहाड़ों ने तो हमें आबशार करके फैंक दिया,
चलो किसी सहरा की ओर चल के देखते हैं। 

अब वो दिल में बसाये या पलकों से छिंटके,
ख्बाब बन उन आँखों में ढल के देखते हैं।

तय है जब हादसे हमें सहरा कर ही देंगे,
चलो कोई दरिया तो निगल के देखते हैं।

लहरा जाये तो बादल, बिछ जाये तो सब्ज़ा,
क्या-क्या तसव्वुर तेरे आँचल के देखते हैं। 

तारीक बस्ती के लिए यही सूरज हो जायेगा,
अदालते-झूठ में एक सच उगल के देखते हैं। 

ये भी तेरे लम्स की नाज़ुकी तक न पहुँचे,
गुलाब चेहरे पे हम मल-मल के देखते हैं।.

लम्स- स्पर्श

आर्ज़ुओं के सब खिलौनें तो टूट-बिखर गये,
बस ये दुनिया बची है, बहल के देखते हैं।

जिंदगी ने कहा आकबत को तारीख़ बना लें,  
मकतल के नेज़ों पे चल उछल के देखते हैं।

चाँद-सूरज न हुये पर कुछ तो रौशनी करेंगे,
चलो, चिराग़ों की तरह जल के देखते हैं।

मेरी पहली सूरत कोई भी न दिखलाये 'सानी',
घर के सारे आईने ही बदल के देखते हैं।

अलफ़ाज़ के ये तिलिस्मात जब तक न टूटें,
अभी कुछ और करिश्में ग़ज़ल के देखते हैं।

*************************************

Ram Shiromani Pathak 

वो मुफलिसी में भी सपने महल के देखते है ,
गुनाह तो नहीं सपने दो पल के देखते है !!

हरेक मोड़ पे बिखरा था खौफ का मंज़र ,
डरो नहीं चलो हम भी चल के देखते है !!

तवील होने लगी है हिज्र की रात यूँ अब ,
विरह की आग में अब खुद को जल के देखते हैं !!

हरेक मोड़ पे पसरी थी रात की चादर
बढ़ें सभी यूँ ही जुगनूँ सा जल के देखते है !

सभी तरफ हो रही प्यार की ही बातें अब !!
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं!!

*************************************

Dr Ashutosh Mishra

छुपी निगाह से जलवे कमल के देखते हैं
लगे न हाथ कहीं हम संभल के देखते हैं

ग़जल लिखी हमे ही हम महल मे देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

हया ने रोक दिया है कदम बढ़ाने से पर
जरा मगर मेरे हमदम पिघल के देखते हैं

कहीं किसी ने बुलाया हताश हो हमको
सभी थे सोये जरा हम निकल के देखते हैं

तमाम जद मे घिरी है ये जिन्दगी अपनी
जरा अभी गुड़ियों सा मचल के देखते हैं

हमें बताने लगा जग जवान हो तुम अब
अभी ढलान से पर हम फिसल के देखते हैं

हमें न उन के तरीके कभी ये खास लगे
गुलाब को बेबजह ही मसल के देखते हैं

अभी दिमाग मे बचपन मचल रहा अपने
किसी खिलोने से हम भी बहल के देखते हैं

हयात जब से मशीनी हुई लगे डर पर
चलो ए आशु जरा हम बदल के देखते हैं

*************************************

Arun Kumar Nigam 

गये तुरंग कहाँ अस्तबल के देखते हैं
कहाँ से आये गधे हैं निकल के देखते हैं

सभी ने ओढ़ रखी खाल शेर की शायद
डरे डरे से सभी दल बदल के देखते हैं

वही तरसते यहाँ चार काँधों की खातिर
सभी के सीने पे जो मूँग दल के देखते हैं

वो आज थाल सजाये हुये चले आये
जिन्हें हमेशा बिना नारियल के देखते हैं

बड़ों-बड़ों में भला क्या बिसात है अपनी
अभी कुछ और करिश्में गज़ल के देखते हैं

*************************************

आशीष नैथानी 'सलिल' 

गरीब बच्चे भी सपने महल के देखते हैं
ये अच्छी बात कि चश्मा बदल के देखते हैं ॥

सँभल-सँभल के चले हम मगर रहे तन्हा
चलो अब इश्क में ही पर फिसल के देखते हैं ॥

अभी तो आँसुओं से रोशनाई बन पड़ी है
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ॥

पतंगा जानता है उस शमा को कौन है वो ?
मगर ये उसकी वफ़ा है, कि जल के देखते हैं ॥

पडोसी कौन है, कैसा है किसको है पता ये
अगर है वक़्त तो घर से निकल के देखते हैं ॥

*************************************

SANDEEP KUMAR PATEL 

वो अपने आप को पल पल बदल के देखते हैं
बदलते वक़्त के जो साथ चल के देखते हैं

बहुत से हर्फ़ जहन में मचल के देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

ख़ुशी औ गम है दो पहलू हमारे जीवन के
जो आज गम हैं तो आगे निकल के देखते हैं

हैं जिनकी जेब भरी जेब काटकर हरदम
वही हैं आज जो सपने महल के देखते हैं

बबूल बोते रहे रात दिन जतन कर जो
चुभन भरे वो अभी फल फसल के देखते हैं

नक़ल अकल से करो दीप कारनामा हो
अकल को छोड़ अब जलवे नक़ल के देखते हैं

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ग़ज़लों को संकलित करने हेतु पुनः आभार आदरणीय राणा प्रताप जी । 

मेरी ग़ज़ल दे २ मिसरे लाल हो गये  :))  लेकिन मैं अभी भी खामियाँ नहीं ढूंढ़ पाया ।

मार्गदर्शन कीजियेगा ।

अभी तो आँसुओं से रोशनाई बन पड़ी है
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ॥

पडोसी कौन है, कैसा है किसको है पता ये
अगर है वक़्त तो घर से निकल के देखते हैं ॥

अ/१/भी/२/ तो/१/ आँ/२/सु/१/ओं/२/ से/१/ रो/२/श/१/ना/२/ई/१/ बन/२/ प/१/ड़ी/२/ है/१

प/१/डो२/सी१/ कौ/२/न/१/ है/१/, कै/२/सा२/ है/१/ किस/२/को/१/ है/२/ प/१/ता/२/ ये/१/

आशीष जी पहले मिसरे के दूसरे और अंतिम रुक्न तथा दूसरे मिसरे के अंतिम रुक्न में बह्र की गलती है|

आदरणीय राणा प्रताप जी कुछ शंका है, निवारण कीजियेगा -

१) क्या हम आंसुओं में 'ओं' को गिरा नहीं सकते ताकि वज्न २११ हो जाय ?
  आपने से और आखिरी है की मात्रा १ ली है, क्या ये २ नहीं होगी ? कुछ ऐसे -
अ/१/भी/२/ तो/१/ आँ/२/सु/१/ओं// से// रो/२/श/१/ना/२/ई/१/ बन/२/ प/१/ड़ी// है/
1212  1122  1212  112


२) दूसरे  मिसरे में (
प/१/ता/२/ ये/१/) को क्या ११२ नहीं गिनेंगे ?
प/१/डो२/सी१/ कौ/२/न/१/ है/१/, कै/२/सा२/ है/१/ किस/२/को/१/ है/२/ प/१/ता/
/ ये//

1212  1122  1212  112

पता नहीं आप मेरी बातों से कितना मुतास्सिर हो पाते हैं, भाई अशीष जी.

लेकिन मैं निवेदन करूँ, कि हर दीर्घ मात्रिक अक्षर को नहीं गिराया जा सकता. जिस किसी शब्द का संज्ञात्मक गठन किसी मात्रिक अक्षर पर निर्भर है तो उस अक्षर को गिराना उचित नहीं होता.  उदारणार्थ :  सोच शब्द के सो को गिरना इस शब्द के निहितार्थ को ही नकारना या मिटाना हुआ.  यही कारण है कि आपके मिसरे पड़ी के ड़ी को गिराने से और पता के ता को गिराने से बेबह्र समझे गये हैं.

जो विद्वान इस तथ्य को न मानना चाहें तो वह अपनी बात को चलाने के लिए स्वतंत्र हैं

शुभम्

आदरणीय मंच संचालक जी ,इस पोस्ट की काफी प्रतीक्षा थी आभार !!!

मैं भी इस मुशायरे में भाग लेना चाहती थी पर मुझे तब तक सदस्यता नहीं मिली थी इसलिए उसे मैंने अपने ब्लॉग पर डाला था क्या मशविरे के लिए उसे मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकती हूँ ?

जी यक़ीनन ...यह तो सीखने और सिखाने का ही मंच है.....और हम सब समवेत सीख रहे हैं |

सादर

आदरणीय सिंह साहब सादर नमन ....अनुमति प्रदान करने के बहुत बहुत धन्यवाद 

ग़ज़ल के शिल्प से अनजान हूँ सीखने के क्रम में की गयी यह कोशिश है कृपया  सुधार की गुंजाइश जरूर बताइये ......आभार !!!

खयाल था कि दरीचे बदल के देखते हैं

कहाँ हुए गुम रास्ते निकल के देखते हैं

 

उन्हें सिखाकर चालें हवा हुई गुम थी

मगर आज़ाद परिंदे मचल के देखते हैं

 

निगाह की जद के ये मिरे हंसीं सपने

इरादतन रंगे धनक ढल के देखते हैं

 

जुनून है उनका या मुगालता हद है

तमाम रात चिराग जल के देखते हैं

 

मिसाल हों इन रास्तों कदम तिरे साथी

रवायतन पगपग जो संभल के देखते हैं

 

न धूप से न गिला छाँव से कोई हमको

लिए नशेमन काँधे टहल के देखते हैं

 

सुनो ग़ज़ल लिख पायें कि काश आप कहें

अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं

 

रवायतें गर राहत न दे सकें हमको

चलो लकीर हम सभी बदल के देखते हैं

 

करें सियासत जुगनू चराग झिलमिलायें

कहीं सराब कहीं  घात छल के देखते हैं

(अन्यत्र पूर्व प्रकाशित रचना )

आदरणीया वन्दना जी 

आपके अन्दर गज़लियत की कमी नहीं है यह आपके इस प्रयास से दिखाई देता है ..काफिये रदीफ़ आपने बखूबी निभाये हैं| मेरा सुझाव है की आप थोड़ा और समय निकाल कर ग़ज़ल की तख्तीय अर्थात मात्रा गणना सीख लें ..आपकी ग़ज़लों में चार चाँद लग जायेंगे|

सादर 

बहुत बहुत शुक्रिया सर कि आपने व्यस्तता के बावजूद यहाँ समय दिया और वाकई मात्रा गणना ही मेरी कमजोरी है जो इस फोरम से जुड़कर दूर करने का प्रयास करूंगी

अभी तक कोई मार्गदर्शन नहीं मिला था पर अब आशा जगी है कृपया अपना मार्गदर्शन सदैव देते रहियेगा... साभार 

गजल संकलन हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय राणा प्रताप जी! 

१२१२    ११२२    १२१२    ११२

हुयी न उम्र कि अहसास मिले है इतने,, 
तो बार बार ये हम क्यों मचल के देखते है,,, 

में अगर इस तरह परिवर्तन कर दूंगी तो क्या मिसरा बहर में आ जायेगा ?

हुयी न उम्र कि अहसास है मिले इतने ।। 

मिली दगा फिर भी जिन्दगी रुकी तो नही,

चलो न प्यार में फिर से फिसल के देखते है ।।  

इस मिसरे में मुझे में मुझे पुनः निर्देशित करें,

सादर वेदिका  

हुयी न उम्र कि अहसास मिले है इतने,, 
तो बार बार ये हम क्यों मचल के देखते है,,, 

में अगर इस तरह परिवर्तन कर दूंगी तो क्या मिसरा बहर में आ जायेगा ?

हुयी न उम्र कि अहसास है मिले इतने ।। 

बिलकुल सही तरीके से आपने मिसरा दुरुस्त कर लिया

**************************************************************************

मिली दगा फिर भी जिन्दगी रुकी तो नही,

चलो न प्यार में फिर से फिसल के देखते है ।।  

इस मिसरे में मुझे में मुझे पुनः निर्देशित करें,

 

इसे ऐसा करे तो 

"मिली दगा, न रुकी ज़िन्दगी मेरी फिर भी"

शुभकामनाएं

 

उत्साह वर्धन के लिए और आपके सुझाव का धन्यवाद आदरनीय राना प्रताप जी! 

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