परम स्नेही स्वजन
सबसे पहले तो विलंब के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ | इस बार के तरही मुशायरे की फिसलती ज़मीन पर इतनी खूबसूरत गज़लें आईं हैं की मन आह्लादित है | इस मंच की यही खुसूसियत है की आप अपनी प्रगति धीरे धीरे नोटिस कर सकते हैं, यह बात मैं उन नए लोगो के लिए कह रहा हूँ जो हाल ही में इस मंच से जुड़े हैं साथ ही मैं मंच से जुड़े उन वरिष्ठ शायरों से गुजारिश भी करता हूँ की आप नए शायरों की रहनुमाई इसी प्रकार से करते रहे |
बात है मिसरों को चिन्हित करने की तो इस बार एक कदम आगे बढ़ते हुए इस बार मिसरों को लाल रंग के साथ-साथ हरे और नीले रंग से भी दर्शाया गया है|
लाल तो आप जानते ही हैं कि बेबह्र मिसरों के लिए है, हरे मिसरे भी बेबह्र हैं परन्तु वहां बह्र की गलती अलफ़ाज़ को गलत वजन में बाँधने से हुई है| नीले मिसरे ऐसे मिसरे हैं जिनमे कोई न कोई ऐब है | नीले मिसरों को चिन्हित करते समय जिन ऐबों को नज़र में रखा गया है वह है तनाफुर, तकाबुले रदीफ़, शुतुर्गुर्बा, ईता, काफिये के ऐब और ऐब ए ज़म |
गौरतलब है की बहुत से मिसरों और भी ऐब हैं परन्तु इस मंच पर चल रही कक्षा में जिन ऐब पर चर्चा हो चुकी है उन्हें ही ध्यान में रखा गया है | कई मिसरों में ऐब ए तनाफुर भी है पर इसे छोटा ऐब मानते हुए छोड़ा गया है, यक़ीनन ऐब तो ऐब होता है और शायर को इस ऐब से बचना चाहिए |
यदि कहीं कोई गलती हो गई हो या किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो तो तुरंत सूचित करें |
सादर धन्यवाद
राणा प्रताप सिंह
सदस्य टीम प्रबंधन सह मंच संचालक (तरही मुशायरा)
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प्रस्तुत है ग़ज़लों का संकलन :-
Tilak Raj Kapoor ज़रा सी दूर तलक, साथ चल के देखते हैं बुझे बुझे से चरागों में रौशनी देखी बहुत दिनों से नया कुछ नहीं कहा हमने सही समय पे जो खुद को बदल नहीं पाते गिरे कुछ ऐसे कि अब तक सम्हल नहीं पाये विदा के वक्त में दुल्हन के हाथ की मेंहदी सदा ही चाल औ तिकड़म कपट से काम लिया ************************************* चलो कि दूर जड़ों से निकल के देखते हैं हरिक दिशा से कई हाथ आ गये जुड़ने नसीहतों से भरा कल समझ गये जो भी कमी, कमी है, कमी है, न रोईये, चलिये जरा सी जि़द थी बिछुड़ कर मिले हैं मुद्दत से गुमे हुए हैं जो साजि़श में कब वो देखेंगे न सिर्फ़ बात करें कर के भी दिखायें कुछ ************************************* Saurabh Pandey बहुत किया कि उजालों में ज़िन्दग़ी काटी फिर आज वक़्त उमीदों से देखता है हमें किसी निग़ाह में माज़ी अभी तलक है जवां तब इस बगान में गुलमोहरों के साये थे लगा कि नाम तुम्हारा हमें छुआ ’सौरभ’.. . ************************************* फरमूद इलाहाबादी खुली रखो न हमेशा ही खिड़कियाँ दिल की पडी है लात उन्हें जब से, दांत टूट गये तुम्हारे इश्क में बेले हैं आज तक जितने कहे न साँप कोई आस्तीन का हमको सुना है इनमें जो डूबा उबर नहीं पाया मरा या ज़िंदा है फरमूद जानने के लिए ************************************* Arun Kumar Nigam चलो जहान की सूरत बदल के देखते हैं कहा सुनार ने सोना निखर गया जल के कभी कही न जुबां से गलत सलत बातें अभी उड़ान से वाकिफ नहीं हुये बच्चे जरा सबर तो रखो होश फाख्ता न करो ************************************* वीनस केसरी बनावटी जो अमल आजकल के देखते हैं सड़क पे कैसा तमाशा किया अमीरों में ये कैसे गुल खिले है हुस्न के चमन में, क्यों ? हम उनकी वज्ह से ये दिल का रोग ले बैठे अभी कुछ और जमीनें हैं जेह्न में "वीनस" ************************************* अरुन शर्मा 'अनन्त' तेरा ही जिक्र सुबह शाम लब ये करते रहे, लहूलुहान मुहब्बत में रोज होने लगा, न दूर याद गई ना ही नींद आई कभी, लगा के बीच में शे'रों के काफिया जादुई, ************************************* ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi) हम अपने घर से जो गुलशन निकल के देखते हैं चलो कि सहने चमन में टहल के देखते है नज़र से हटता नहीं है वो झील का मंज़र कहाँ वो प्यार के नग्मे विसाल की बातें जब आइना है मुकाबिल सवांर लें खुद को हमेशा रहता है मौसम वहां मोहब्बत का जिन्हें ज़रा भी नहीं प्यार अपने गुलशन से कही पे मीर है इकबाल है कही ग़ालिब नसीब होता नहीं एक घर भी ऐ गुलशन सुना है दर पे मिलेंगे उसी के सब "गुलशन" ************************************* कल्पना रामानी गगन में छाए हैं बादल, निकल के देखते हैं। सुदूर वादियों में आज, गुल परी उतरी, उतर के आई है आँगन , बरात बूँदों की, अगन ये प्यार की कैसी, कोई बताए ज़रा, नज़र में जिन को बसाया था मानकर अपना, चले तो आए हैं, महफिल में शायरों की सखी, विगत को भूल ही जाएँ, तो ‘कल्पना’ अच्छा, ************************************* मोहन बेगोवाल चलो मिजाज अभी हम बदल के देखते हैं रवाएती थी जदीद अब वो गज़ल हो गई, यहाँ चली हवाओं ने दिखाए रंग ऐसे, क्या बताएँ तुझे, ना यकीं रहा खुद पे, तलाश लिया बहुत कुछ मन के समंदर से , खुद के ना रहे, ना हम बेगानो के हो सके, ************************************* Dinesh Kumar Khurshid फिजा तो खूब है घर से निकल के देखते है ये अर्श-ओ-फर्श समन्दर पहाड़ सब्जों गुल कहाँ कहाँ हुए सैराब प्यास के मारे जहाँ का दर्द समेटे है अपने दामन में न हाथ आयेगा अमृत वगैर हुस्ने अमल कलम के जोर से सच्चाइयों की ताकत से नहीं जो देता है मांगे से फल शज़र "खुर्शीद" ************************************* Dr. Abdul Azeez "Archan" चरागे फ़िक्र हैं दिन रात जल के देखते हैं रहे हयात में जिस सम्त चल के देखते हैं हमारी फ़िक्र में क्या है हयाते मुस्तकबिल तुम्हारी राह्बरी में ये ठोकरें कब तक? तमाम शह्र पे काले धुवें की छत क्यों है? ज़मीं के दर्द से जुड़कर हकीकतों के सबब लगे न ठेस कोई तल्ख़ गुफ्तगू से अज़ीज़ ************************************* HAFIZ MASOOD MAHMUDABADI निगार खानये हस्ती में चल के देखते हैं जो लोग अपने कदों को बलंद कहते थे ग़ज़ल ने जलवे दिखाए हैं खूब खूब मगर अमीरे शह्र का वादा भी खोखला निकला सताती याद है बचपन की जिस घडी हमको गनीम देख के हैरत से काँप उठता है है खौफ फिर न कहीं इंक़लाब आ जाये ज़हाने इश्क में हद से गुज़र के हम 'मसऊद' ************************************* Sanju Singh शमा -ए -मानिंद हम भी पिघल के देखते हैं , नज़र उठे जब भी बस तु ही नज़र आये , इसी फ़िराक ज़रा हम संभल के देखते हैं . अजीब हाल तिरा दिल मुझे मुफ़ीद लगे , नज़र फ़लक के सितारों पे आज है मेरी , ज़मीन ख्वाब फकत हम महल के देखते हैं . सुबह से शाम हुई हम बहर में उलझे हैं , ************************************* Ajay Kumar Sharma निसारे जात से बाहर निकल के देखते हैं सफर का शौक है हम को कहीं भी ले के चलो ************************************* गीतिका 'वेदिका' यकी हमे है जो खुद पर लो जल के देखते है कभी रहा न वो मेरा कोई छलावा था न कोई दाव वे जीते न कोई हम हारे गये पहाड़ पे फिर प्यार मिल गया हमको मिली दगा फिर भी जिन्दगी रुकी तो नही, ************************************* Amit Kumar Dubey Ansh लहू जमा कब से अब पिघल के देखते हैं सफ़र गुज़र कर भी साथ चल रहा मेरे सुना बहुत कि कयामत तुम्हारी महफ़िल में नयी उडान नये ख्वाब जादुई मंज़र कि सर से पांव मिरा हो गया ग़ज़ल पुरनम बड़ा हसीन तिरा सिम्त -सिम्त लगता है प्रलय विनाश हुआ जो उसे न भूलेंगे ************************************* Ashok Kumar Raktale चलो की आज बगीचे में चल के देखते हैं, कभी विनाश हुआ है रुकी नदी से भी? मचल-मचल के गए थे नदी किनारे पर, बही विशाल शिलाएं गजब रवानगी थी उन्हें सकून मिला है ‘अशोक’ देख अहा ! ************************************* Shijju S. हर एक सिम्त उन्हें जब मचल के देखते हैं फिर आज रौनके-शह्र आम हो गयी शायद जहाँ मिले थे कभी हम कई दफ़ा तुमसे कभी ग़ज़ल में उतर ख़्वाब में समा के कभी किसी तरह से नुमायाँ हुई न हालते-दिल शुरू हुआ कि अभी दौरे नज़्म ये ''तनहा'' |
Abid ali mansoori जरा आओ घर से निकल के देखते हैँ, जीस्त खुशियोँ से उनकी जगमगाने के लिए, ************************************* Abhinav Arun हकीकतों की ज़मी पर जो चल के देखते हैं , ************************************* अरुन शर्मा 'अनन्त' बुरी नियत से दरिन्दे मचल के देखते हैं, झुकी झुकी सी नज़र वार बार बार करे, ये सारी उम्र तेरी राह तकते बीत गई, बड़ा हसीन सा दिखने में है तारों का जहाँ सभी के शे'र निराले सभी के शे'र जवां, ************************************* Er. Ganesh Jee "Bagi" सदैव भाग्य भरोसे जो चल के देखते हैं, न कोई फैसला ज़ज्बात मे कभी होता, तना-तनी में बनी बात क्यों बिगाड़े हम, बदलने गाँव की सूरत पधारे नेता जी, रदीफ़ -ओ- काफ़िया बह्रो कहन का है जादू, ************************************* Dr Lalit Kumar Singh निगाहे-नाज़ नजारों में ढल के देखते हैं तिरी निगाह की जद में रहा यहाँ अबतक दिखे नहीं जो किसी को, तो आह भरता क्यूँ कहाँ तो एक भी तिनका कभी नहीं जुटता कहा कि सुन लो मिरी बात ऐ जहाँ वालो तिरा हिजाब उठाते, तो फिर जमाना था कहाँ-कहाँ, ये नचाया हमें तिरा ज़ल्बा ************************************* Ram Shiromani Pathak चलो की आई है बारिस टहल के देखते है , हुआ है क्या जो नहीं मेघ नभ पे दिखते है ! बहुत मज़े से ही काटी है ज़िन्दगी ,थोड़ा ! पड़ी थी मार पड़ोसन को प्यार से देखा ! बड़ा ही प्यार दिलाती है ये कलम दीपक , ************************************* गीतिका 'वेदिका' नदीम आज नदीदा में ढल के देखते है नजीब टेड़ के गोशा में छल के देखते है मिली न वो हमे ए यार चाह दिलबर की हुयी न उम्र कि अहसास मिले है इतने चलो न दूर कहीं दूर घर बसा ले सुनो चलो न आज कि शब् चाँद पे जिया ज़लवा ************************************* Rajesh Kumari वो अब्रपार निगाहें बदल के देखते हैं गई चुगान को माँ ना अभी तलक आई मुसीबतों से हमें हारना नहीं आता सुना है दिन में उन्हें बिजलियाँ डराती हैं हमे अजीज बड़ी वो फ़कीर की बेटी रुबाइयों ने बड़ी वाहवाहियां लूटी नसीब "राज" ये सबका करम से ही बनता ************************************* Harkirat Heer चलो आज गम के सांचे में ढल के देखते हैं हौसला हो तो दूर नहीं होती मंजिल कभी क्या पता वो कभी थाम ले हाथ मेरा ये कौन ले आया अँधेरे में रौशनी का दिया दर्द भी है ,दवा भी और इक तड़प भी कहते हैं मुहब्बत इक आग का दरिया है ************************************* Kewal Prasad सुहानी रात में चांदनी, छल के देखते हैं। कभी खुशी कभी गम, रूला-रूला जाते। सुबह से शाम दीवाने भटकते हैं गम में। सभी ने मौत के डर से, जला दिया दीपक। वो आसमां से उतर के, सुबक-सुबक रोए। पुरूष-बच्चे तड़प के, मरे-जिए ऐसे। उड़ा दें होश की परतें, झुकी-झुकी है नजर। ************************************* Harjeet Singh Khalsa उसी के रंग में हम भी आ ढल के देखते है न पा सके कुछ हम जब वफ़ा निभाकर भी, असर दवा में नहीं सुन ज़रा ऐ चारागर, मिटा दिए ग़म भी और हर उदासी भी, ************************************* Sanju Singh फुहार रिमझिम है हम मचल के देखते हैं तमाम खार गुलों को मचल के देखते हैं नज़र जिधर भी उठे, तू ही तू नजंर आये अजीब हाल तिरा दिल मुझे मुफ़ीद लगे , नज़र फ़लक के सितारों पे आज है मेरी , सुबह से शाम हुई हम बहर में उलझे हैं , ************************************* Saurabh Pandey वो चाँदरात में छत पर निकल के देखते हैं वो बन-सँवर के अदा से निहारते हैं हमें न सोगवार दिखे, दर्द भी बयां न किया खुशी की चाह में चलते दिखे.. मग़र सब ही हम अपने हाथ में नर्गिस लिये मुहब्बत का हर इक निग़ाह में ज़िन्दा हुआ है आईना ************************************* सानी करतारपुरी ख्बाबों के दस्तेरस से फ़िसल के देखते हैं, लम्स- स्पर्श अलफ़ाज़ के ये तिलिस्मात जब तक न टूटें, ************************************* Ram Shiromani Pathak वो मुफलिसी में भी सपने महल के देखते है , हरेक मोड़ पे बिखरा था खौफ का मंज़र , तवील होने लगी है हिज्र की रात यूँ अब , हरेक मोड़ पे पसरी थी रात की चादर सभी तरफ हो रही प्यार की ही बातें अब !! ************************************* Dr Ashutosh Mishra छुपी निगाह से जलवे कमल के देखते हैं ग़जल लिखी हमे ही हम महल मे देखते हैं हया ने रोक दिया है कदम बढ़ाने से पर कहीं किसी ने बुलाया हताश हो हमको तमाम जद मे घिरी है ये जिन्दगी अपनी हमें बताने लगा जग जवान हो तुम अब हमें न उन के तरीके कभी ये खास लगे अभी दिमाग मे बचपन मचल रहा अपने हयात जब से मशीनी हुई लगे डर पर ************************************* Arun Kumar Nigam गये तुरंग कहाँ अस्तबल के देखते हैं सभी ने ओढ़ रखी खाल शेर की शायद वही तरसते यहाँ चार काँधों की खातिर वो आज थाल सजाये हुये चले आये बड़ों-बड़ों में भला क्या बिसात है अपनी ************************************* आशीष नैथानी 'सलिल' गरीब बच्चे भी सपने महल के देखते हैं सँभल-सँभल के चले हम मगर रहे तन्हा अभी तो आँसुओं से रोशनाई बन पड़ी है पतंगा जानता है उस शमा को कौन है वो ? पडोसी कौन है, कैसा है किसको है पता ये ************************************* SANDEEP KUMAR PATEL वो अपने आप को पल पल बदल के देखते हैं बहुत से हर्फ़ जहन में मचल के देखते हैं ख़ुशी औ गम है दो पहलू हमारे जीवन के हैं जिनकी जेब भरी जेब काटकर हरदम बबूल बोते रहे रात दिन जतन कर जो नक़ल अकल से करो दीप कारनामा हो |
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ग़ज़लों को संकलित करने हेतु पुनः आभार आदरणीय राणा प्रताप जी ।
मेरी ग़ज़ल दे २ मिसरे लाल हो गये :)) लेकिन मैं अभी भी खामियाँ नहीं ढूंढ़ पाया ।
मार्गदर्शन कीजियेगा ।
अभी तो आँसुओं से रोशनाई बन पड़ी है
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं ॥
पडोसी कौन है, कैसा है किसको है पता ये
अगर है वक़्त तो घर से निकल के देखते हैं ॥
अ/१/भी/२/ तो/१/ आँ/२/सु/१/ओं/२/ से/१/ रो/२/श/१/ना/२/ई/१/ बन/२/ प/१/ड़ी/२/ है/१
प/१/डो२/सी१/ कौ/२/न/१/ है/१/, कै/२/सा२/ है/१/ किस/२/को/१/ है/२/ प/१/ता/२/ ये/१/
आशीष जी पहले मिसरे के दूसरे और अंतिम रुक्न तथा दूसरे मिसरे के अंतिम रुक्न में बह्र की गलती है|
आदरणीय राणा प्रताप जी कुछ शंका है, निवारण कीजियेगा -
१) क्या हम आंसुओं में 'ओं' को गिरा नहीं सकते ताकि वज्न २११ हो जाय ?
आपने से और आखिरी है की मात्रा १ ली है, क्या ये २ नहीं होगी ? कुछ ऐसे -
अ/१/भी/२/ तो/१/ आँ/२/सु/१/ओं/१/ से/२/ रो/२/श/१/ना/२/ई/१/ बन/२/ प/१/ड़ी/१/ है/२
1212 1122 1212 112
२) दूसरे मिसरे में (प/१/ता/२/ ये/१/) को क्या ११२ नहीं गिनेंगे ?
प/१/डो२/सी१/ कौ/२/न/१/ है/१/, कै/२/सा२/ है/१/ किस/२/को/१/ है/२/ प/१/ता/१/ ये/२/
1212 1122 1212 112
पता नहीं आप मेरी बातों से कितना मुतास्सिर हो पाते हैं, भाई अशीष जी.
लेकिन मैं निवेदन करूँ, कि हर दीर्घ मात्रिक अक्षर को नहीं गिराया जा सकता. जिस किसी शब्द का संज्ञात्मक गठन किसी मात्रिक अक्षर पर निर्भर है तो उस अक्षर को गिराना उचित नहीं होता. उदारणार्थ : सोच शब्द के सो को गिरना इस शब्द के निहितार्थ को ही नकारना या मिटाना हुआ. यही कारण है कि आपके मिसरे पड़ी के ड़ी को गिराने से और पता के ता को गिराने से बेबह्र समझे गये हैं.
जो विद्वान इस तथ्य को न मानना चाहें तो वह अपनी बात को चलाने के लिए स्वतंत्र हैं
शुभम्
आदरणीय मंच संचालक जी ,इस पोस्ट की काफी प्रतीक्षा थी आभार !!!
मैं भी इस मुशायरे में भाग लेना चाहती थी पर मुझे तब तक सदस्यता नहीं मिली थी इसलिए उसे मैंने अपने ब्लॉग पर डाला था क्या मशविरे के लिए उसे मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकती हूँ ?
जी यक़ीनन ...यह तो सीखने और सिखाने का ही मंच है.....और हम सब समवेत सीख रहे हैं |
सादर
आदरणीय सिंह साहब सादर नमन ....अनुमति प्रदान करने के बहुत बहुत धन्यवाद
ग़ज़ल के शिल्प से अनजान हूँ सीखने के क्रम में की गयी यह कोशिश है कृपया सुधार की गुंजाइश जरूर बताइये ......आभार !!!
खयाल था कि दरीचे बदल के देखते हैं
कहाँ हुए गुम रास्ते निकल के देखते हैं
उन्हें सिखाकर चालें हवा हुई गुम थी
मगर आज़ाद परिंदे मचल के देखते हैं
निगाह की जद के ये मिरे हंसीं सपने
इरादतन रंगे धनक ढल के देखते हैं
जुनून है उनका या मुगालता हद है
तमाम रात चिराग जल के देखते हैं
मिसाल हों इन रास्तों कदम तिरे साथी
रवायतन पगपग जो संभल के देखते हैं
न धूप से न गिला छाँव से कोई हमको
लिए नशेमन काँधे टहल के देखते हैं
सुनो ग़ज़ल लिख पायें कि काश आप कहें
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
रवायतें गर राहत न दे सकें हमको
चलो लकीर हम सभी बदल के देखते हैं
करें सियासत जुगनू चराग झिलमिलायें
कहीं सराब कहीं घात छल के देखते हैं
(अन्यत्र पूर्व प्रकाशित रचना )
आदरणीया वन्दना जी
आपके अन्दर गज़लियत की कमी नहीं है यह आपके इस प्रयास से दिखाई देता है ..काफिये रदीफ़ आपने बखूबी निभाये हैं| मेरा सुझाव है की आप थोड़ा और समय निकाल कर ग़ज़ल की तख्तीय अर्थात मात्रा गणना सीख लें ..आपकी ग़ज़लों में चार चाँद लग जायेंगे|
सादर
बहुत बहुत शुक्रिया सर कि आपने व्यस्तता के बावजूद यहाँ समय दिया और वाकई मात्रा गणना ही मेरी कमजोरी है जो इस फोरम से जुड़कर दूर करने का प्रयास करूंगी
अभी तक कोई मार्गदर्शन नहीं मिला था पर अब आशा जगी है कृपया अपना मार्गदर्शन सदैव देते रहियेगा... साभार
गजल संकलन हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय राणा प्रताप जी!
१२१२ ११२२ १२१२ ११२
हुयी न उम्र कि अहसास मिले है इतने,,
तो बार बार ये हम क्यों मचल के देखते है,,,
में अगर इस तरह परिवर्तन कर दूंगी तो क्या मिसरा बहर में आ जायेगा ?
हुयी न उम्र कि अहसास है मिले इतने ।।
मिली दगा फिर भी जिन्दगी रुकी तो नही,
चलो न प्यार में फिर से फिसल के देखते है ।।
इस मिसरे में मुझे में मुझे पुनः निर्देशित करें,
सादर वेदिका
हुयी न उम्र कि अहसास मिले है इतने,,
तो बार बार ये हम क्यों मचल के देखते है,,,
में अगर इस तरह परिवर्तन कर दूंगी तो क्या मिसरा बहर में आ जायेगा ?
हुयी न उम्र कि अहसास है मिले इतने ।।
बिलकुल सही तरीके से आपने मिसरा दुरुस्त कर लिया
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मिली दगा फिर भी जिन्दगी रुकी तो नही,
चलो न प्यार में फिर से फिसल के देखते है ।।
इस मिसरे में मुझे में मुझे पुनः निर्देशित करें,
इसे ऐसा करे तो
"मिली दगा, न रुकी ज़िन्दगी मेरी फिर भी"
शुभकामनाएं
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