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गज़ब की लघुकथा हुई है डॉ रवि प्रभाकर जी। "पहचान" शब्द को अति प्रभावशाली तरीके से परिभाषित कर दिया। भीषम काका को "भीखू नाई" और डॉक्टर साहिब को "भीखू नाई का लौंडा" बनाकर एक तीर से दो-दो शिकार कर डाले। लघुकथा इतनी कसी हुई है कि "बीच से निकल सके न हवा।" पूरा दृश्य आँखों के सामने आ रहा है। वाह वाह वाह !!
यह सब आपके मार्गदर्शन का परिणम है आदरणीय प्रधान संपादक जी । नमन
पिछड़ी मानसिकता का सुंदर चित्रण।
आदरणीय पंकज जोशीजी,
सूचनार्थ -
अति आवश्यक सूचना :-
२. सदस्यगण एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हलकी टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।
निस्संदेह इस आयोजन की अबतक की सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति..
हार्दिक शुभकामनाएँ और बहुत-बहुत बधाइयाँ, भाई रवि जी..
आपसे बेहतर लघुकथा समीक्षक शायद पूरे विश्व में कोई नहीं है आदरणीय सौरभ भाई जी । अपने प्रयास को सार्थक मान रहा हूं आदरणीय सौरभ भाई जी ।
//आपसे बेहतर लघुकथा समीक्षक शायद पूरे विश्व में कोई नहीं है //
यह पक्ति बताती है कि इसे लिखने वाला व्यक्ति या तो अनन्य आत्मीय है या फिर पंजाब से है. क्योंकि पंजाबीज अल्वेज गो इण्टरनेशनल.. यहाँ आप तो दोनों हैं मरे लिए .. :-))
हा हा हा..
पुनः हार्दिक बधाई रवि भाई.
शुभ-शुभ
"अच्छा अच्छा, तो ऐसे बोलो ना कि भीखू नाई का लौंडा है ।" Ravi Prabhakar जी इस पंक्ति ने लघुकथा की सार्थकता को सिद्ध कर दिया है .बधाई आप को .
आदरणीय रवि जी,
सारी पढाई और जानकारी एक तरफ़ और जाति का बोझ एक तरफ़. बहुत सुन्दर कथा. बधाई हो.
सादर.
सामाजिक सोच के एक पहलू को उजागर करती रचना , अच्छी है
आदरणीय रवि जी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर आधारित इस लघुकथा में आदमी की असली पहचान को बढ़िया परिभाषित किया है. कोई कितने ही आवरण ओढ़ ले पर वास्तविकता से भाग नहीं सकता.
कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर बहुत अच्छी लघुकथा हुई है
बहुत बधाई इस सशक्त लघुकथा पर
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