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दहेज़ लोभियों पर तंज कसती सुंदर लघु कथा है पर कुछ भाषा सम्बन्धी अशुद्धियों के कारण पढने में अटपटी लग रही है, जिन्हें सुधार ले आदरणीया रीता गुप्ता जी
//“क्यों री,कंगले की बेटी , तूने कुछ कहा क्या उन्हें .........”//
कथनी और करनी में अंतर करती अच्छी लघुकथा हुई है किन्तु लघुकथा में नयापन नहीं लगा, बधाई इस प्रस्तुति पर.
जिस दिन हमारा समाज इस दोगलेपन से निजात पायेगा उसी दिन हम अपने आपको विकसित कह सकते हैं ,बधाई आपको आ० रीता जी
भ्रम /परिभाषा, विषयानुरूप प्रस्तुति /
"आपके सामने वाले घर में सजायाफ्ता मुजरिम रहता है ।" पडोसन के मुंह से सुनी बात पैनी -धार सी दिल में उतर गई । गृहप्रवेश की खुशी काफूर हो गई थी ।
" चाची , ओ चाची , .... जल्दी दौड़ों, चाचा को कुछ हो गया है ।" बाहर से आवाज आई ।
" क्या हुआ ? " रसोई से सीधे वह बाहर की ओर दौड़ पडीं ।
" ये जमीन पर कैसे ..... उठो ना जी, ... क्या हो गया तुम्हें ...? कोई तो डाॅक्टर बुलाओ जल्दी से ! " उनको जमीन पर औंधे पड़े देख वह काँप उठी ।
पल भर में ही वो अनाथ सी कलप उठी थी कि एक अनजाने ने अपनी गाड़ी में निष्प्राण से शरीर को जमीन से उठा कर लिटा दिया । संग उसे भी बैठने को कह गाड़ी अस्पताल की ओर दौडा दी ।
कहने को पूरा परिवार लेकिन ऐसे में कोई आगे ना बढ़ा । गला रूँध रहा था बार - बार । " भाई साहब, आप कहाँ ... कौन सा अस्पताल लिए जा रहे है ? इस वक्त तो मेरे पास रूपये का इंतजाम भी ...." चिंता से निर्बल मन अब और अधीर हो उठा ।
" अरे , कैसी बात करती है ! आप भाई साहब पर ध्यान दें ! हम हैं ना ...सब देख लेंगे ! " सुनते ही कलेजा गड्डमड्ड होने लगा । उसके अपनेपन से भरे बोल ने उसकी लडखडाहट को जैसे सम्बल दे गये ।
" चिंता की कोई बात नहीं , अब ठीक है मरीज । वक्त पर उपचार मिलना कारगर सिद्ध हुआ । ," जैसे ही डाॅक्टर नें कहा मन में होश - भरोस हो आया ।
"भाईसाहब , आप अनजान होकर मेरे पति की जान बचाये है । आप कौन है ...आपका घर कहाँ है ? " उसे वो देवदूत के समान लग रहे थे ।
" अरे बहन जी , अनजान कहाँ ....मै पडोसी हूँ । आपके सामने वाले घर में ही तो रहता हूँ ! "
" कौन ...? सजायाफ्ता मुजरिम .....! "
मौलिक और अप्रकाशित
आदरणीया कांता जी, बदनामी कभी पीछा नहीं छोडती और वही आपकी पहचान बन जाती है. प्रदत्त विषय अनुरूप बढ़िया लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति हेतु हेतु हार्दिक बधाई. रचना पर पुनः उपस्थित होता हूँ. सादर
सिर्फ सजायाफ्ता होने को ही इंसान का इंसानी पहचान कायम कर देना कहाँ तक उचित है ? इस सोच को और पात्र के अंदर संभावित अच्छाईयों के बारे मे हम सोचे । इसी संदेश को रोपित करने की मैने एक कोशिश की । आपको कथा पसंद आई ये मेरे लिये अति हर्ष का विषय हुआ । आभार आपको आदरणीया मिथिलेश वामनकर जी ।
आदरणीया मेरे कहे के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार
मुजरिमों में भी दिल होता है. इस को बयां करती खुबसूरत रचना . बधाई आ कांता रॉय जी .
जी, आदरणीय ओमप्रकाश जी , ुजरिमों मेंभी दिल होता है यही इस लघुकथा का संदेश था जो आप समझ गये । आभार आपको मेरे लेखन को सम्मान देने के लिये।
दंड प्राप्त व्यक्ति भी मानवीयता से भरा हो सकता है इसी भाव को दिखाने का सहज प्रयास करती कथा पर बधाई कांता जी..
आदरणीय कांता जी बहुत ही सशक्त कथानक ढूंढा है आपने 'परिभाषा' को परिभाषित करने के लिए और आप खामख्वाह संदेह कर रही थी अपनी कैपीबिलटीज पर । मुझे विश्वास था कि आप कथा लिखेंगी और बहुत उम्दा लिखेंगी, धन्यवाद मेरे विश्वास को कायम रखने के लिए । पिछले आयोजन में मेरी कथा पर आदरणीय योगराज प्रभाकर सर ने मुझे कुछ अनावश्यक डॉटस के बारे में आगाह किया था, मुझे तो लगा कि आपने वो पढ़ा होगा और सर्तकता बरतेंगी । खैर ! कथा की पंचलाइन /" अरे बहन जी , अनजान कहाँ ....मै पडोसी हूँ । आपके सामने वाले घर में ही तो रहता हूँ ! "/ ने इस कथा को बहुत प्रभावशाली बना दिया है। सादर शुभकामनाएं इस प्रभावशाली रचना के लिए ।
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