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मैं आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी की बात से सहमत हूँ, दरअसल यह लघुकथा बहुत ही ढीली और बिखरी बिखरी सी है जिस कारण कोई प्रभाव नहीं डाल सकी आ० डॉ टी आर सुकुल जी I वैसे भी यह लघुकथा प्रदत्त विषय से न्याय करती हुई प्रतीत नहीं हो रही है I दरअसल लघुकथा में "क्या कहना है", "क्यों कहना है" और "कैसे कहना है" के तीनो बिन्दुयों में से यदि एक में भी कोताही हो जाये तो रचना बेअसर हो जाती है I इस रचना में तो तीनो ही जगह कमजोरी नज़र आ रही है I
आभार सहित बहुत धन्यवाद योगराज प्रभाकर जी। आप जैसे लघुकथा के मर्मज्ञों के बीच मेरा यह बचकाना प्रयास ही है। आशा है, आपके ही मार्गदर्शन में कभी न कभी यह आपकी अपेक्षा के अनुरूप अवश्य हो सकेगा।
लघु कहना तो ठीक है पर लघु कहानी दिए गए विषय पर सटीक नहीं लग रही डॉ टी आर सकुल साहब | प्रस्तुति के लिए बधाई
आभार ...
अच्छे थीम के साथ अच्छी लघुकथा हो सकती थी मगर..........
बढ़िया कथानक लेकिन लघुकथा थोड़ी कसावट चाहती है. बहरहाल इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आदरणीय सुकुल जी
अच्छी कथा ,किन्तु कालखंड का ध्यान अपेक्षित है, बधाई आ. टी आर शुक्ला जी
प्रत्युत्तर
बरामदे में साईकिल रखकर मैंने कालबेल बजाई I सरहज ने दरवाजा खोला I मुझे देखा तो बड़ी अदा से मुस्कराई I उनकी गोद में तीन साल का बेटा था I कमरे में दूर कोने पर सासू जी थी i औपचारिक बातों के बाद मैं भतीजे से खेलने लगा-“मुन्ना आज मैं तुम्हारी मां को फिल्म दिखाने ले जाऊँगा I मुन्ना कुछ न बोला i मैंने फिर अपनी बात दोहराई i मुन्ने ने दरवाजे से बरामदे में झांका और भोलेपन से बोला –‘इसी साईकिल से ले जाओगे ?’ उसका इतना कहना था कि सास और बहू ठहाका लगाकर हंस पड़े I मैं स्तब्ध. अवाक, हक्का बक्का ,लज्जित और शर्मिंदा I इस भोले प्रश्न भरे उत्तर का प्र)त्युत्तर मेरे पास नहीं था I
(मौलिक्व व् अप्रकाशित)
आदरणीय गोपाल नारायण जी आप ने तो लघुकथा के जरिए अनुत्तरित कर दिया. सटीक व सार्थक लघुकथा के लिए मेरी बधाई स्वीकार करे.
यह तो "बच्चों के मुख से" मार्का एक संस्मरण है जो किसी ज़माने में सरिता मैगजीन में छपा करते थे I लघुकथा तो यह किसी कोण से लगती नहीं है आ० डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी I
बढ़िया कथा आदरणीय .बच्चों की भोली बातें सभी कभी शर्मिंदा कर ही देती हैं ....सादर नमस्ते
बहुत बढ़िया संस्मरण है आदरणीय गोपाल सर. इस हेतु हार्दिक बधाई
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