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कुछ याद आने में ही बहुत कुछ कह दिए ..जिन्दगी में भी तो कितने प्यादे मिलते रहते बस फर्क ये होता कभी कभी कि कभी हम उन्हें प्यादे समझते कभी वो हमें | सादर नमस्ते आदरणीय भैया
आदरणीय विजय जी प्रदत विषय पर सुंदर और सार्थक लघुकथा बनी है , हार्दिक बधाई स्वीकर करें।
इस बार वो पहले से भी ज्यादा गम्भीर दिखे , " सही पोजीशन पे हो तो , और कवर में हो , तो एक पैदल भी काफी है , जनाब खेल खतम करने को//हर खेल में सही पोजीशन की दरकार है बेशक चाहे वो ज़मीनी हो या दिमाग़ी,,,,वाह आदरणीय बहुत सटीक ताना बना बुना है ,बधाई आपको सादर
बादशाह के खेल में पैदल की अहमीयत को रेखांकित करती आपकी प्रस्तुति भली लगी आदरणीय विजय शंकरजी. हार्दिक शुभकामनाएँ व बधाइयाँ
शतरंज
उसने जैसे ही ऑफिस जाने के लिए स्कूटी घर से बाहर निकाली ,वह अचानक मुस्कराता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ I पहले तो वह अचकचाई ,फिर क्रोध और घृणा की एक मिली जुली सी लहर उसके तन में दौड़ गयी I
' तुम ! तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? ' क्रोध से फुफकार ही तो उठी थी वह I किन्तु वह बिना भाव परिवर्तन के उसी प्रकार मुस्कराता रहा
' हां मैं ! कैसा लगा मेरा सरप्राइज !! वह उसके चेहरे के भावों को भी पढ़ने की कोशिश करता सा लगा I
' मतलब !! '
' हां रिमी तुम नही जानती मेरे साथ क्या हुआ था ! मेरा एक्सीडेंट हो गया था जिससे महीनों अस्पताल में कोमा में रहना पड़ा I ठीक होते ही मैं तुमसे माफ़ी मांगने आया हूँ और तुमसे विवाह - बंधन में बंधना चाहता हूँ I रिमी मैं सब कुछ पहले जैसा करना चाहता हूँ I प्लीज मुझे माफ कर दो I ' लेकिन ...वह अब भी उसे शंकित निगाहों से देखते हुए सोच रही थी I कैसे मान ले वो !! अचानक बिना बताये उसका उसे बीच मझधार में उसे छोड़ जाना ,आफिस वालों का कहना की जॉब ही छोड़ गया वो ! फिर यूँ इस तरह अचानक आना ! और उसने तो उसके खिलाफ शादी का झांसा दे यौन शोषण का केस भी कर दिया था I अब क्या करे समझ नही पा रही थी कुछ वह I
वह उसका हाथ अपने हाथ में ले रोड पर ही घुटनो के बल बैठ गया I 'अरे रे ये क्या कर रहे हो ?वह हड़बड़ा कर बोली लोग देख रहे हैं '
' देखने दो ,मुझे फर्क नही पड़ता I बस तुम मुझे माफ़ कर दो I ' अब वह अधिक देर अपने को रोक नही पायी I वह उसके सीने से लग गयी उसकी नाराजगी ,आशंकाए सब आँखों के रस्ते बाहर आने लगी थी इमां ही मन केस वापसी का मन भी बना लिया था उसने I पुराना प्रेम एक बार फिर से हिलोरे लेने लगा था
वह भी उसे बाहों में लिए यूँ ही खड़ा रहा लेकिन मन में सुकून और चेहरे पर कुटिल मुस्कान लिए मन ही मन सोच रहा था -- ' शुक्र है ! सब कुछ आसानी से सलट गया I वो तो अच्छा हुआ दरोगा उसका मित्र था और वक़्त पर मुझे केस के बारे में इतिला कर दिया वर्ना तो कोर्ट कचहरी का महीनो का चक्कर ... उफ़ .....उसे सोच कर ही झुरझुरी सी आ गयी I
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