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बढ़िया रचना आद मोहन जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी!बहुत सशक्त और मर्म स्पर्शी लघुकथा!बुरा खोजने निकलो तो सबसे पहले अपना चेहरा आइने में अवश्य देखो!
समाज में फैली बुराईयों को जड़ से उखाड़ फैंके” अध्यापक ने बच्चों से कहा ।
फिर उसने खुद से सवाल किया “ये बुरईयाँ असमान से तो उतरी नहीं,इस समाज की तो है'.......बहुत सशक्त पंक्तियाँ हैं ये ,हार्दिक बधाई आपको आदरणीय
शिक्षक की मानसिकता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है आदरणीय मोहन जी सर, इस लघुकथा हेतु कृपया सादर बधाई स्वीकार करें|
बच्चे के जीवन में पैदा होने से लेकर ताउम्र मां-बाप , परिवार, संस्कार भरते हैं, फिर शिक्षक उसे जीवन जीने के आदर्श स्थापित करने में मदद करते हैं शिक्षा के माध्यम से। बुराइयों का सबक देकर खुद किनारा कर लेना अच्छे शिक्षक की पहचान नहीं है, उसे तो स्वयं आदर्श स्थापित करना होता है, ताकि बच्चे बुराइयों से बचें व समाज में फैली बुराइयों को दूर करने में योगदान दे सकें। अच्छी लघुकथा आ. मोहन जी।
जब हम एक ऊँगली दूसरे की तरफ उठाते हैं तो चार उँगलियाँ हमारे तरफ उठती हैं । किसी भी बुराई के खात्मा की शुरुवात अपने से ही करें तो बेहतर , बढ़िया आत्मसंवाद की रचना , बधाई आपको
सार्थक प्रयास आदरणीय मोहन जी । शुभकामनाएं ।
सभी साथियों का मेरी रचना के लिए उत्साहत करने के लिए धन्यवाद
वैचारिक द्वंद्व को शाब्दिक करती बढ़िया प्रस्तुति हुई है. हार्दिक बधाई आपको
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