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गज़ब लघुकथा हुई है आ० शशि बांसल जी I यह तो वही बात हो गई कि किसी को तो सूरज पाकर भी संतुष्टि नहीं और कोई सिर्फ एक दिए की लौ से ही खुद को रौशन समझ रहा है I आकांक्षा के दो अलग-अलग रूपों को बुत बखूबी से उभारा है आपने इस लघुकथा के माध्यम से, हार्दिक बधाई स्वीकार करें I
हार्दिक बधाई आदरणी शशि जी!किसी की आकांक्षा कार और हीरे मोती और कोई महज़ देशी घी की दाल रोटी पाकर ही अपना जीवन सार्थक मान लेता है!वाह, बेहद खूबसूरत लघुकथा!
छोटी छोटी खुशियां भी बड़े बड़े अरमानों पर भारी पड़ जाती हैं , बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर | बधाई आपको
आजे देसी घी री रोटी अन्ने मूँग री दाल खाई ने आवी रियू हूँ । दो बार हाथ धोई लीदा , अबार तक खुसबू आयी री है ... साची , मजो आवी गयो ।नरा दिना बाद देसी घी की आस पूरन हुई .......। " कितनी ही बार पढ़ गई ये पंक्तियाँ ,बहुत सुन्दर लघु कथा लिखी है आपने आदरणीया शशि जी , बधाई
समीकरण (आकांक्षा )
9 महीने माँ की कोख में बिताये स्वर्णिम पल ही मेरे लिए अपने से थे। बस, पल -पल बाहर की आवाज़ें मुझे डरा देती थीं।
" लड़की हुई तो ? "
दादी ,पापा,माँ, पलक और छवि सभी को तो काका चाहिए। गुड़िया नहीं ?
इस दुनियाँ में आने से पहले ही मेरा सौदा तय हो गया। कि, लड़की हुई तो ननिहाल में पलेगी। ये मेरे ज़ीने की शर्त थी।
जैसे -जैसे दिन करीब आ रहे थे मेरा दिल बैठा जा रहा था।सबकी अपनी-अपनी चाहतें थीं।मेरा क्या?
मैं भी माँ के आँचल की छाँव में सोना चाहती हूँ।बाबा के हाथों में झूलना और नन्हें -नन्हें कदमों से बहनों के पीछे भागना चाहती हूँ।खुले आसमान को मुठ्ठी में कैद करना चाहती हूँ।
"लेकिन देखो ना ! कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता ?"
आज़ ज्यों - ज्यों विदा की बेला करीब आ रही है। मैनें माँ की ऊँगली कस कर पकड़ ली है।
" अरे ! ये क्या ? नर्स आंटी ने दादी की गोद में ये किसे दे दिया ? सब उसे कितना प्यार कर रहे हैं । कान्हा- कान्हा कहकर पुचकार रहे हैं।"
मेरे अंदर सन्नाटा और बाहर ख़ुशी।
" ओ माँ ! ये कैसा समीकरण ?
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मौलिक एवम् अप्रकाशित
एक छोटे से मादा भ्रूण की भावनाओं को व्यक्त करती बहुत ही सुंदर रचना हुई है आदरणीया जानकी जी | हार्दिक बधाई आपको इस रचना के सृजन के लिये|
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