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//हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था.
मिलें खुशियाँ या गम आबाद मयखाना भी होता था..//
प्रणाम आचार्य जी! आपका स्वागत है! बहुत ही खूबसूरत मतला दिया आपने .......
//न थे तनहा कभी हम-तुम, नहीं थी गैर यह दुनिया.
जो अपने थे उन्हीं में कोई बेगाना भी होता था.//
वाह वाह! क्या बात कही है आपने जिन्दगी का सच तो यही है ना ......
//किया था कौल सच बोलेंगे पर मालूम था हमको
चुपाना हो अगर बच्चा तो बहलाना भी होता था..//
वाकई! यही है हृदय स्पर्शी शेर ........
//वरा सत शिव का पथ सुन्दर बनाने यह धरा शिव ने.
जो अमृत दे उसी को तो ज़हर पाना भी होता था..//
इस बेहतरीन शेर के माध्यम से शाश्वत सत्य कह दिया आपने .......
//हुए वो दिन फ़ना जब थे तबस्सुम में कँवल खिलते .
'सलिल' होते रहे सदके औ नजराना भी होता था..//
दिलकश शेर! वाह वाह वाह !
//शमा यादों की बिन पूछे भी अक्सर पूछती है यह
कहाँ है शख्स वो जो देख परवाना भी होता था..//
क्या बात है आचार्य जी! पुनः प्रणाम.....
//रहे जो जान के दुश्मन ‘सलिल’ जीना सदा मुश्किल.
अचम्भा है उन्हीं से देख याराना भी होता था..//
लाख टके का मकता कह डाला आपने! ...सभी शेर सार्थक हैं .....बहुत बहुत बधाई ......:))
किया था कौल सच बोलेंगे पर मालूम था हमको
चुपाना हो अगर बच्चा तो बहलाना भी होता था..
क्या रिश्ता कायम किया है आपने कौल और बच्चे का, लाजवाब।
वरा सत-शिव का पथ, सुन्दर बनाने यह धरा शिव ने.
जो अमृत दे उसी को तो ज़हर पाना भी होता था..
वाह साहब वाह।
ये जग फिरसे तलाश रहा है ऐसे प्रण लेने वालों को इस परिपाटी को खुशी खुशी जिन्दा रख सकें।
जो अमृत दे उसको ज़हर पाना भी होता था..
फ़ना वो दिन हुए जब तबस्सुम में कँवल खिलते थे.
कहाँ है शख्स वो जो 'सलिल' परवाना भी होता था..
अचम्भा है उन्हीं से 'सलिल' याराना भी होता था..
आदरणीय आचार्य जी
गज़ल तो है ही ख़ूबसूरत पर उपर्युक्त मिसरे खटक रहे हैं|
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