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कई बार साथी को समझने में सारी जिन्दगी निकल जाती है और कहीं पल में समझी जाती है ये नजर और सूझबूझ का ही कमाल है कहानी शुरू से अंततक पाठक को बांधे रखने में सफल है दिल से बधाई लीजिये इस सुन्दर लघुकथा हेतु आ० सुधीर द्विवेदी जी |
बहुत प्यारी रचना, शायद लड़कियां ऐसे पलों को बहुत सहजता से पहचान लेती हैं| बधाई आपको
साथी
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मुहल्ले वालों ने अनेक वर्षों से किसी को न तो शर्मा जी के घर जाते देखा और न ही उन्हें किसी के साथ कभी कहीं भी आते जाते। वह अकेले ही अपने घर में रहते और प्रतिदिन प्रातःकालीन भ्रमण के लिये अवश्य 6 से 7 वजे के बीच मुहल्ले की ही सड़कों पर अकेले ही धीरे धीरे घूम कर अपने घर आ जाते। पड़ौसी उन्हें आदर से नमस्कार करते तो वे अपनी लाठी सहित दोनों हाथ जोड़कर उन्हें अपने मस्तक तक अंगूठों को छूने की स्थिति तक ले जाते और फिर हृदय के पास लाकर आगे की ओर सामान्य से अधिक झुककर प्रत्युत्तर देते। उनका मानना था कि वह किसी के शरीर को नमस्कार नहीं करते, उसके भीतर स्थित परमपुरुष को अपने मन और हृदय की शुद्धता से उचित मुद्रा के साथ करते हैं।
उनकी आयु को ध्यान में रख, उन्हें आदर करने वाले अधिकाॅंश लोग उन्हें सामने जाकर नमस्कार न कर दूर से ही प्रणाम करना उचित समझने लगे ताकि उन्हें अनावश्यक झुकने में कष्ट न हो। एक दिन प्रातः भ्रमण के समय, सामने से आते हुए एक यात्री ने मुहल्ले में किसी का पता पूछने की इच्छा से उन्हें नमस्कार किया। शर्माजी ने अपनी मुद्रा के साथ ज्यों ही लाठी सहित अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रत्युत्तर देना चाहा कि उनके पैरों का संतुलन खो गया और वह नीचे गिर पड़े। यात्री ने अपना सामान तत्काल नीचे पटका और उन्हें सहारा देकर उठाते हुए कहने लगा-
‘‘ दादाजी ! इस अवस्था में प्रातः भ्रमण के समय अपने साथ किसी को ले लिया करें‘, ओह! व्यर्थ ही मेरे कारण आपको कष्ट पहुंचा‘‘
‘‘ नहीं , इसमें आपका कोई दोष नहीं और न ही इस लाठी का, वह तो मेरी ही असावधानी थी कि मैं अपने पैरों को संतुलन में नहीं रख पाया। भाई साब! पिछले सतत्तर सालों से अनेक ‘जीव‘ यथा समय साथ देने आते रहे और क्रमशः जाते रहे, अन्त में यह ‘निर्जीव‘ लकड़ी (अर्थात् लाठी) आयी और, मुझे इसकी निष्ठा पर पूरा विश्वास है कि वह मेरी अंतिम साॅंस तक साथ देगी।‘‘..... ...
कहते कहते शर्माजी आगे चलते गये और यात्री उनकी साधुता, सौम्यता और निर्द्वन्द्वता को मन ही मन प्रणाम करता अपने गन्तव्य की तलाश में आगे बढ़ गया।
मौलिक व अप्रकाशित
वाह आदरणीय इस निर्जीव की निष्ठा पर पूरा भरोसा है।कितना बढ़िया साथी कोई अविश्वास नहीं।साथ ही कथा में नमस्कार की महिमा को प्रप्रतिपादित कर दिया। बधाई इस सुंदर कथा हेतु ।
कथा को अनुमोदन देते हुए प्रशंसा करने के लिए कोटिशः धन्यवाद , आदरणीय जैन साब।
कथा को अनुमोदन देते हुए प्रशंसा करने के लिए कोटिशः धन्यवाद , आदरणीय शेख साब।
कथा को अनुमोदन देते हुए प्रशंसा करने के लिए कोटिशः धन्यवाद , आदरणीया अर्चना जी।
जनाब टी आर शुक्ल साहिब ,असलियत बयां करती लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
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