आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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ऐसे ही बच्चों को समझदारी का पाठ पढ़ाया जाता है और फिर बालमन उसी तरह ढल जाता है| बढ़िया रचना विषय पर, बधाई आपको
समाज का एक सत्य उजागर करती हुई रचना कही है सुनील भाई, प्रत्येक व्यक्ति ने कभी न कभी ऐसा महसूस किया ही होगा| सादर बधाई स्वीकार करें इस सुंदर के सृजन लिए|
आदरणीय सुनील वर्मा जी आप ने आजकल की सच्चाई बेहतरीन ढंग से व्यक्त की है. बधाई.
दुनियादारी
“क्या बात है बेटी? जबसे ससुराल से आई है, ना तो दामाद जी ने तेरी कोई खैर खबर ली है, और ना ही तू खुद भी कोई बात करती है. सब ठीक तो है?” कई दिन की ऊहापोह के बाद, मालती ने बेटी से साफ़-साफ़ बात करने का निश्चय कर, पूछ ही लिया.
बचने की कोई राह ना देख, बेटी ने भी मन का हाल कह डाला, “माँ मैं वापस नहीं जांउगी अब वहाँ.”
“ये क्या बोल रही है तू! क्यों?”
“माँ, इनके भाभी के साथ संबंध हैं... मैंने इनको खुद अपनी भाभी के कमरे से रात-विरात निकलते देखा है,” बेटी का दर्द शब्दों से छलक पड़ा. “और पूछने पर बेहयाई से उत्तर मिला कि भाई फौज में हैं तो भाभी का ख्याल भी तो मुझे ही रखना होगा...”
“ओह, बस ये बात है?” मालती ने ऐसे कहा जैसे सामान्य सी बात हो.
“ये छोटी बात है, माँ?” खीज कर बेटी ने कहा.
“इतना बड़ा घर है उनका, कैसे तेरा रिश्ता उस घर में किया है मैंने... समझदारी से काम ले! इस घर की तकलीफों, और वहाँ के सुख के बारे में तो सोच!” माँ ने समझाया.
“उनकी बदचलनी सहन करना समझदारी है, माँ?” बेटी ने दुःखी स्वर में कहा.
“हाँ, बेटा, समझदारी ही है, ये. अगर मुझे भी मेरे समय में कोई समझाने वाला होता, तो अपने पति को छोड़ मैं भी यूँ कष्ट भरा जीवन बिताने को मजबूर ना होती...”
मौलिक एवं अप्रकाशित
आभार दीदी आपकी त्वरित उपस्थिति शीतल बयार की जैसी है.. मेरा मनोबल बढ़ गया ये जान कर कि आपको कथा पसंद आई...
आ.सीमा जी संवेदनाओ से लरबेज कथा के लिए बधाई स्वीकार किजीए.
कथा कसी हुई और चुस्त है, जिस हेतु बधाई I विस्तार से बात कल करूंगा I
विषय को सार्थकता से परिभाषित करती कथा। कुछेक जगह अभी सुधार की गुंजायश बाकी है। सादर बधाई।
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