आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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सच कहा आदरणीय आपने, राष्ट्रपिता कैलेण्डर पर रह गये हैं, और केवल कैलेण्डर पर ही नहीं, टीवी पर या राजनितिक भाषणों में ही उनका जिक्र होता है, मानवीय/राष्ट्रीय संवेदनाओं और जीवन-शैली में उनके विचारों को स्थान मुश्किल से ही मिल पाता है| कुछ लोग हैं ज़रूर जो उन्हें समझते हैं, लेकिन भीड़ में वो खो गये हैं| इस रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें|
हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ पांडे जी!आप जैसे गुणी लोगों की रचनाओं का आंकलन करना और फ़िर उस पर टिप्पणी करना, बेहद कठिन कार्य है!क्योंकि इस विधा पर अभी इतनी पकड नहीं है!इतना अवश्य है कि आपकी लघुकथा बहुत अच्छी लगी!इसके मार्मिक प्रसंग ने अंतर्मन को झकझोर दिया!दफ़्तरों में नौकरशाही के मनमाने आचरण को उजागर करती बेहतरीन प्रस्तुति!ऊपर से नेताओं के घडियाली आंसू!पुनः हार्दिक बधाई!
इंसानियत की पीडा
वह जल्द से जल्द घर पहुँचना चाहता था ताकि अपनी गर्भवती पत्नी को थोड़ा घुमा लाए। कई दिनों से दोनो कही बाहर नही गए थे। ऑफ़िस से लेपटाप ,पेपर आदि समेटकर वह लगभग भागते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुँचा।तभी तेज गति की लोकल उसके सामने से निकल गई. उफ़ अब वक्त....!
अचानक उसकी नजर प्लेटफ़ॉर्म की सीढीयों के नीचे गई। अच्छी खासी भीड़ जमा थी वहां। कुतुहल वश वह भी पहुँच गया। अरे! यह क्या ये तो वही भिखारन है जो लगभग रोज उसे यहाँ दिख जाती थी। पता नही किसका पाप...। आज दर्द से कराह रही थी। शायद प्रसव- काल ..."
सहसा पत्नी का गर्भ याद कर विचलित हो गया। भीड़ मे खड़े स्मार्ट फ़ोन धारी सभी नवयुवक विडिओ बनाने मे व्यस्त थे।
"सिर्फ़... जितने मुँह उतनी बातों ने ट्रेन के शोर को दबा दिया था।"
तभी एक किन्नर ने आकर अपनी साड़ी उतार उसको आड कर दिया।
" हे हे हे... ये किन्नर... जचकी...।"
अब सिर्फ़ नवजात के रोने की आवाज...एक जीवन पटरी पर आ गया...।
दोयम दर्जे ने इंसानियत दिखा दी थी, भीड़ धीरे-धीरे छटने लगी।
मौलिक एवं अप्रकशित
प्रदत्त विषय 'तमाशबीन' के साथ सार्थकता से न्याय करती इस रचना हेतु हार्दिक शुभकामनाएं।
तमाशबीनों में संवेदन शील कुछ विरले ही होते हैं जो आगे बढ़कर मदद करते हैं और किन्नर जो सबके लिए एक तमाशे के समान होता है वो कितना संवेदन शील निकला उसका ये कदम हँसनेवालों उन तमाशबीनों के मुहँ पर तमाचा है |
प्रदत्त विषय को सार्थक करती बढ़िया लघु कथा आ० नयना जी ,हार्दिक बधाई |
आ० नयना जी, रचना के बारे में तो बाद मेंबात करूंगा पहले ये बताएँ कि
//उफ़ अब वक्त....!//
//ता नही किसका पाप...।//
//शायद प्रसव- काल ..."//
//हे हे हे... ये किन्नर... जचकी...।"//
वाक्य पूरा क्यों नहीं लिखा ?
आ. योगराज सर जी. प्रणाम.
//उफ़ अब वक्त....!// चूँकि वो सिचते-सोचते प्लेटफ़ार्म पर आ रहा था ,ति अब वक्त जाया होना था.ये वो सोच ही रहा है इसलिये "..." लगाए
//ता नही किसका पाप...।//
//शायद प्रसव- काल ..."//
//हे हे हे... ये किन्नर... जचकी...।"//---- इन वाक्यो के बीच तमाशबीन लोगो के आपस के अनेको संवाद आपस मे गड्डमगड को रहे थे इसलिये इन्हें अनकहा रखना चाहा था. वैसे पहले संवादो को कुछ इसतरह लिखा था,लेकिन खुद ही संपादन करते वक्त कांट-छांट कर ई शायद यही सफ़ल नहीं हो पाई.
पहले रचना कुछ इस तरह लिखी थी.
वह जल्दी से जल्दी घर पहुँचना चाहता था ताकि अपनी गर्भवती पत्नी को थोड़ा घूमा लाए. कई दिनों से दोनो कही बाहर नही गए थे। ऑफ़िस से लेपटाप ,पेपर आदि समेटकर वह लगभग भागते हुए प्लेटफॉर्म पर पहुँचा। तभी तेज गती की लोकल उसके सामने से निकल गई. उफ़ अब वक्त....!
अचानक उसकी नजर प्लेटफ़ॉर्म की सिढियो के नीचे गई। बहुत भीड़ जमा थी वहाँ.कुतुहल वश वह भी पहुँच गया।
अरे! यह क्या ये तो वही भिखारन है जो लगभग रोज उसे यहाँ दिख जाती थी। पता नही किसका पाप...। आज दर्द से कराह रही थी। शायद प्रसव- काल ..."
सहसा पत्नी का गर्भ याद कर विचलित हो गया.
भीड़ मे खड़े स्मार्ट फ़ोन धारी सभी नवयुवक विडिओ बनाने मे व्यस्त थे।
तभी एक किन्नर आकर अपनी साड़ी उतार उसको आड कर दिया।
" हे हे हे... ये किन्नर इसकी जचकी करवाएँगा..."
"अरे! बेशर्म देख तो उसकी छाती....।"
" जितने मुँह उतनी बातों ने ट्रेन के शोर को दबा दिया था।"
धरती से प्रस्फ़ुटित होकर नवांकुर बाहर आ चुका था। किन्नर ने उसे उठा अपने सीने से लगा लिया।
भीड़ धीरे-धीरे छटने लगी।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आपके सुझाव आने पर उन्हे ध्यान के रख संकलन में सुधार करती हूँ.आपके अमूल्य सुझावो व समय के लिये आभार आपका
पहले से बेहतर हो गई है, मगर अधूरे वाक्य अभी भी अटपटे से लग रहे हैं अभी भी I
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