भाग - २
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’दूसरा सप्तक’ की भूमिका लिखते समय अज्ञेय ने कहा है, कि, ’प्रयोग का कोई वाद नहीं है । हम वादी नहीं रहे, न ही हैं, न प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य है ।’ वे आगे कहते हैं - ’जो लोग प्रयोग की निन्दा करने के लिए परम्परा की दुहाई देते हैं, वे ये भूल जाते हैं कि परम्परा कम से कम कवि के लिए कोई ऐसी पोटली बाँध कर अलग रखी हुई चीज नहीं है जिसे वह उठा कर सिर पर लाद ले और चल निकले .. ’संस्कार देने वाली हर प्रम्परा कवि की परम्परा है । नहीं तो वह इतिहास है, शास्त्र है, ज्ञान-भण्डार है, जिससे अपरिचित भी रहा जा सकता है ।’ कहने का तात्पर्य यह है कि प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है, बल्कि साधन है । यही कारण है, कि प्रयोगों के द्वारा ही कविता या कोई कला, कोई रचनात्मकता, आगे बढ़ सकी है । प्रयोग में महत्त्व उस सत्य का है जो प्रयोग से प्राप्त होता है । अन्यथा कोरी प्रयोगशीलता का कोई अर्थ नहीं है । प्रगतिवाद की शक्तिशाली सर्जनात्मकता के तत्त्व प्रयोगवाद में विकसित और पुष्ट हुए ।
यदि भावदशा के साथ प्रस्तुतीकरण को देखा जाय तो ‘नये भावबोध’ का प्रबल स्फोट ही नयी कविता है, जो लगातार जड़ होती जा रहीं अभिरुचियों पर प्रहार किया है । नयी कविता के कवि मुक्तिबोध के विचार से (1) तत्त्व के लिए संघर्ष, (2) अभिव्यक्ति को सक्षम बनाने के लिए संघर्ष (3) दृष्टि विकास के लिए संघर्ष करता है । जहाँ प्रथम का सम्बन्ध मानव-वास्तविकता के आधिकारिक सूक्ष्म उद्घाटन एवं अवलोकन से है । दूसरे का सम्बन्ध चित्रण सामर्थ्य से है और तीसरे का सम्बन्ध विभिन्न सिद्धांतों से है, विश्व के दृष्टि के विकास से है, वास्तविकताओं की व्याख्या से है ।
प्रयोवाद का ही नया काव्यात्मक तेज़ ’नयी कविता’ में नयी प्रवृत्तियों के साथ हुआ है । हिन्दी में प्रयोगवाद के ही आधार स्तम्भ ’नयी कविता’ के जन्मदाता बने । नयी कविता युग की जटिल वास्तविकता को, रागात्मक सम्बन्धों के बदलाव आदि को अधिक व्यापकता से अभिव्यक्त कर सकती है । यह नयी कविता जन-जीवन से भाषा, बिम्ब-प्रतीक, मिथक, अर्थ-लय आदि ग्रहण करती है । इसलिए यह सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से व्यापक जनमानास की अभिव्यक्ति प्रतीत होने लगती है । यही कारण है कि मानवतावादी, मानववादी, मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणवादी, अस्तित्ववादी, अतियथार्थवादी विचारधाराओं की अलग-अलग ध्वनि इसमें सुनायी देती है । नयी कविता की नवीनता है - आत्मसजग, विवेक-वयस्क मानव-व्यक्तित्व,उसकी सामाजिकता तथा व्यक्ति के अनेकानेक रूपों की महत्त्व-प्रतिष्ठा । यह अनुभूति की विविधता और विस्तार की कविता है ।
अर्थात, यह स्पष्ट हुआ कि, प्रयोगवाद के बाद हिन्दी में जो नवीन काव्यधारा उमड़ कर प्रवाहित हुई उसे ’नयी कविता’ कहा गया । इस कविता में प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को बहुत सी गतिशील विशेषताएँ मौजूद रहीं । प्रयोगवाद और ’नयी कविता’ की तीन धाराएँ हैं - (1) मार्क्सवादी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं मुक्तिबोध (2) मनोविश्लेषण धारा तथा लघुमानवसिद्धांत का समर्थन करते अज्ञेय (3) भवानी प्रसाद मिश्र तथा नरेश मेहता जैसे कवि जो स्वतंत्र रूप से नये काव्य सर्जन में प्रवृत्त थे ।
लेकिन यह भी उतना ही सच है, कि सभी रचनाकार संयत और सुगढ़ता के साथ समय के व्यवहार और मानवीय दशा को अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे थे । और यह भी उतना ही सही है कि अपनी तमाम सैद्धांतिकता के बावज़ूद नयी कविता के अनुयायी गीत रचना की अनुशासनबद्धता से परेशान रहे हैं । विहंगम दृष्टि डालें तो तो ’नयी कविता’ गीति-काव्य की नियमबद्धता और अनुशासन से हताश, इससे भागे हुए लोगों का माध्यम होती चली गयी । इसके बाद तो कविता के नाम पर जिस तरह की बोझिल और क्लिष्ट प्रस्तुतियों का दौर चला कि पहेलियाँ तक पानी भरें ! कई बार तो शुद्ध राजनीतिक नारों तक को कविता की तरह प्रस्तुत किया गया । यथार्थ-अभिव्यक्ति के नाम पर गद्यात्मक पंक्तियाँ, कई बार तो क्लिष्ट शब्दावलियों में शुद्ध गद्य-आलेख, ’यही नये दौर की कविता है’ कह कर ठेले जाने लगे । काव्य-तत्त्व की मूल अवधारणा से परे नये मंतव्यों को लादा गया । जनरुचि तक का कोई खयाल ही नहीं रखा गया । इस तथ्य पर किसी का ध्यान नहीं गया कि जिस भूमि के जन की सोच तक गीतात्मक हो, जहाँ के प्रत्येक अवसर और सामाजिक परिपाटियो के लिए सरस गीत उपलब्ध हों, उस जन-समाज से गीत छीन लेना कैसा जघन्य अपराध है ! गीत या छान्दसिक रचनाओं, जो कि मनुष्य़ की प्राकृतिक भावनाओं, वृत्तियों और भावदशा के शाब्दिक स्वरूप हैं, के कथ्य बिना अंतर्गेयता के संभव ही नहीं हो सकते । यही कारण है कि छान्दसिक रचनाएँ सामान्य जन-मानस को इतनी गहराई से छू पाती हैं । तभी, छन्दों के हाशिये पर ठेले जाते ही पद्य-साहित्य, जो जन-समाज की भावनाओं का न केवल प्रतिबिम्ब हुआ करता है, बल्कि जन-समाज की भावनाओं को संतुष्ट भी करता है, रसहीन हो कर रह गया । परन्तु, ऐसी अतुकान्त परिस्थितियों में भी भावार्द्र रचनाकर्मी दायित्वबोध से प्रेरित हो, तो कई बार अपनी नैसर्गिक प्रवृति के कारण, लगातार बिना किसी अपेक्षा के गीतकर्म करते रहे । एक पूरे वर्ग का छान्दसिक रचनाओं पर सतत अभ्यास बना रहा ।
यहीं इसी काव्यधारा के लगभग समानान्तर जब ’नयी कविता’ का ज़ोर था, ’नयी कविता’ आन्दोलन काव्य की मुख्यधारा थी, उसी समय ’नवगीत’ की धारा फूटी । हमें गीतों के नये कलेवर पर बात करते हुए उन कारणों को समझना होगा कि वे क्या कारण थे कि गीतों की वापसी हो रही थी ? वस्तुतः, जिस भावभूमि में गीत प्रत्येक स्तर पर प्रभावी हो उस भावभूमि भारतीय उपमहाद्वीप में रसहीन गद्य बहुत दूर तक अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं बन सकता । एक समय कई कारणों से गीत और छान्दसिक रचनाएँ जनता से दूर चली गयी थीं, ठीक उसी तरह नयी कविता अपनी शुष्कता और नीरस प्रतीति के कारण जनता द्वारा नकार पाने लगी । विगत चालिस वर्षों में एक कविता कायदे से आमजन की जिह्वा पर स्थान नहीं पा सकी तो यह स्पष्ट होता है कि वैचारिकता का क्लिष्ट स्वरूप मंथन के अवयव अवश्य देदे, सप्रवाह वाचन के क्रम में वैधानिक साधन के संबल से विचारों का संप्रेषण अधिक आग्रही हुआ करता है ।
यही कारण है कि, गीति-काव्य की इस नयी विधा से गीतकार बहुत प्रभावित हुए । ’नयी कविता’ के कई कवि ’नयी कविता’ की भाव-भूमि पर गीत भी लिखने लगे थे । सन् 1958 में प्रसिद्ध कवि-समीक्षक राजेन्द्र प्रसाद सिंह के सम्पादन में ’गीतांगिनी’ का प्रकाशन हुआ । विद्वान सम्पादक ने उन गीतों को ’नवगीत’ की संज्ञा दी । उनकी मान्यता थी कि ’नवगीत’ विशिष्ट अर्थ में गीतों के मात्र पूरक नहीं, बल्कि संपृक्त इकाई हैं । इस संदर्भ में ब्रजभूषण मिश्र ने वैधानिक विन्दुओं को स्पष्ट करते हुए इसके सात मौलिक तत्त्व गिनाये हैं - ऐतिहासिकता, सामाजिकता, व्यक्तित्व, समाहार, समग्रता, शोभा और विराम । और, आगे उन्होंने पूरक के रूप में ’नवगीत’ के पाँच विकासशील तत्त्व बताये हैं - जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्वबोध, प्रीति-तत्व और परिचय ।
सन् 1959 ई में ठाकुर प्रसाद सिंह के गीत संकलन ‘वंशी और मादल’ का प्रकाशन हुआ, जिसमें नये-नये बिम्बों का प्रयोग हुआ था । ठाकुर प्रसाद सिंह ने राजेन्द्र प्रसाद सिंह के संग्रह ’गीतांगिनी’ के गीतों को नवगीत न मानते हुए, ’वंशी और मादल’ के गीतों को ही सही नवगीत बताया । नवगीत का प्रस्थान विन्दु उन्होंने इसी संग्रह को माना । इसके बाद सन 1969 से नव संभावना, नयी चुनौती, नयी विषयवस्तु और सौंदर्यबोध से ’नवगीत’ रचे जाने लगे । हम इस विवाद में पड़ना उचित नहीं समझते । कारण कि, कोई मानवीय चेतना व्यापकता के उच्च स्तर पर वैयक्तिक प्रयासों का प्रतिफल नहीं होती । इस सत्य को नवगीत का समीक्षक समाज जितनी ज़ल्दी स्वीकार ले उतना ही अच्छा । निराला की पंक्ति ’नव गति नव लय, ताल छन्द नव’ के आलोक में नवगीत की प्रतिष्ठा देखने वाले नवगीतकार केदारनाथ अग्रवाल के सामाजिक भावबोध और वैयक्तिक व्यवहार का सामाजीकरण की पारस्परिकता को नकार दें यह काव्य-साहित्य के लिए कभी उचित नहीं होगा ।
’नवगीत’ का ’नव’ उपसर्ग मात्र नहीं है, बल्कि यह उपमा है, जो इन गीतों को उस दौर की नुमान्दग़ी करने का स्वरूप देता है । नवगीत चिंतन के स्तर पर सर्वाधिक यथार्थपरक, अपनी ज़मीन से जुड़ी और भारतीयता से भरी होती है । भारतीय समाज के जन के मन, जन की परम्परा, आस्था और संघर्ष नवगीत में बढिया से अभिव्यक्त होते हैं । नवगीतों में एक तरह से आंचलिकता और क्षेत्रीयता होती है, जिसके माध्यम से रचनाकार और पाठक ग्रामीण निश्छल-जीवन, कस्बाई अनुभूतियों, भावना के स्तर पर लोकधर्मी संस्कारों से जुड़ा होता है । जिन्दग़ी की कठिन अनुभूतियों को जिन्हें सामान्य गीतों के माध्यम से शाब्दिक न किया जा सके, नवगीतों के माध्यम से सहज ही अभिव्यक्त होने लगे हैं । नवगीत अनुभूति, जीवन के अनुभव और आधुनिक विचारों की गीतात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम हैं । ऐसे गीत सामाजिक समझ की आधुनिक चेतना से टकरा कर ही अभिव्यक्ति पाते हैं ।
छायावाद के बाद बहुत दिनों तक यह भ्रम बना रहा कि गीत वर्तमान ज़िन्दग़ी के उलझाव और उसकी क्लिष्ट संवेदनाओं को ढो सकने में सक्षम भी हैं या नहीं ? किन्तु, नयी कल्पना और टटकापन से लबरेज़ बिम्बों के प्रयोग से यह भ्रम बखूबी टूटा । कहने का तात्पर्य है कि जिन ’गीतों’ ने इस भ्रम को तोड़ा वही नवगीत हैं । माहेश्वर तिवारी के शब्दों में हम कहें तो, हर नवगीत गीत है, लेकिन हर गीत नवगीत नहीं होता है । देहाती या कस्बाई के ठेठ बिम्ब या प्रतीक नवगीतों को युगधर्मी बनाते हैं । यानी, नवगीत समाज के वंचितों का साथ देते हैं । नयी कविता पर काम करने वाले रचनकर्मी नवगीतों के विन्यास की कसौटी पर अपनी कविताई को आँक सकते हैं । वर्ना, नयी कविता के कर्मियों पर यह आक्षेप लगता ही रहेगा कि काव्य अनुशासन से हताश लोगों को नयी कविता संरक्षण देती है ।
गीतों का उत्स जहाँ मानवीय संवेदनाओं से अभिप्राणित नितांत वैयक्तिक अनुभूतियाँ होती हैं, उनका लक्ष्य मनुष्य की संवेदनाएँ ही होती हैं । मनुष्य़ की सामुहिक सोच एवं विभिन्न मनोदशाएँ भी गीतों में ही सार्थक स्वर पा सकती हैं । ऐसा यदि सहज तथा प्रवहमान ढंग से हुआ है तो फिर न केवल ’गीत’ नये आयामों में ’नवता’ को जीते हैं, ’नवगीत’ की अवधारणा एक बार फिर से परिभाषित होती हुई-सी प्रतीत होती है । इन अर्थों में प्रश्न उठता है, कि क्या स्वानभूतियों का व्यापक होना समष्टि से बनते संवाद का इंगित नहीं होता ? या हो सकता है ? क्या हर व्यक्तिगत अनुभव व्यापकता में समूचे मानव-समुदाय का अपना अनुभव नहीं होता ? क्योंकि, वस्तुतः कोई सचेत एवं दायित्वबोध से सजग कवि अपनी व्यक्तिगत सोच में समस्त मनुष्य-जाति को ही जीता है । तभी तो व्यष्टि-समष्टि से बँधा कोई गेय-संप्रेषण वस्तुतः मानवीय चेतनानुभूति का ललित शब्द-स्वरूप हुआ करता है । विभिन्न भावों को ग्रहण कर उसकी वैयक्तिक अभिव्यक्ति मानवीय विशिष्टता है । गीतों का सम्बन्ध भले ही वैयक्तिक हृदय और उसकी अनुभूतियों से हुआ करता है, किन्तु, मानव-समाज के कार्मिक वर्ग का सामुहिक श्रमदान इन गीतों के शाब्दिक स्वरूप से ही प्रखर तथा ऊर्जावान होता रहा है । ग्रामीण परिवेश में गीत गाती स्त्रियों की सामुहिक कार्यशीलता हो या खेतों या कार्यक्षेत्र में कार्यरत पुरुषों का समवेत प्रयासरत होना हो, गीत स्वानुभूतियों को ही समष्टि की व्यापकता में जीते हैं । अर्थात, वैयक्तिक हृदय से उपजे गीतों का बहुजन-प्रेरक, बहुउद्देशीय-स्वर एवं इनकी सांसारिकता पुनः एक सिरे से परिभाषित होती है । अर्थात, सामुहिक श्रमदान के क्रम में भावजन्य, आत्मीय, सकारात्मक मानवीय संस्कार ही गीतों के सर्वमान्य होने का प्रमुख एवं व्यापक कारण हुआ करता है । नवगीत से हो कर गुजरना एक टटका अनुभव है, जिसमें आत्मीयता का अपनापन है । मानवीय सम्बन्धों पर पड़ती हर तरह की चोट को मिला स्वर हैं ये नवगीत । अधिक भावुकतापूर्ण जीवन दृष्टि, और अभिजात्य ठसकपन इन नवगीतों के विषय हो ही नहीं सकते । नवगीत यथार्थबोध का मुखर पक्षधर है । आजके मशीनी युग में जीते हुए मानव की ज़िन्दग़ी की लयात्मक प्रस्तुति हैं ये नवगीत । इसी कारण कहते हैं कि, काव्य क्षेत्र में नवगीत साहित्यिक प्रवृति की आन्तरिक सोच-मंथन प्रक्रिया के फलस्वरूप प्राप्त सर्वहारा जीवन-दर्शन के कारण आये हैं । आज़ादी के पूर्व जिन भरोसों पर आमजन जी रहा था, आज़ादी मिल जाने के बाद उसे बड़े झटके लगे । नेता या शासक वर्ग की कथनी-करने में दीखते अंतर से जनता का मोहभंग हुआ । समाज में आलस, थकान, कुंठा व्याप को स्वर देना आवश्यक प्रतीत हुआ । हर कदम पर ठगे हुए होने का अहसास होने लगा । आपसी अविश्वास बढ़ने लगा । झुंझलाहट एक तरह से आम लोगों की आदत में शुमार हो गयी । पारिवारिक टूट के कारण सभी त्रस्त होने लगे । ऐसी स्थिति में भला काव्य-विधा कैसे अछूती रह सकती थी ? माहौल की इसी विद्रूपता को नयी कविता के समानान्तर गीति-काव्य की विधा में सरस बहाव मिला । इसतरह, नवगीत व्यक्ति की सामाजिक मोहभंगता की उपज हैं ।
अपने शिल्पगत गठन और आकार में नवगीत छोटे होते हैं । नवगीत को पढ़ते हुए शाब्दिक, शैल्पिक टटकापन, संक्षिप्तता, सांकेतिकता, लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता, नयी काव्य-भंगिमा की अनुभूति होती है । आंचलिकता का भाव प्रभावी होता है, इसी कारण, लोकप्रचलित शब्द, लोक समर्थित-आश्रित बिम्ब और प्रतीकों का उपयोग बहुतायत में होता है ।
वस्तुतः, गीतों में आया आधुनिकताबोध गीतों में सदियों से व्याप गये ’वही-वहीपन’ का त्याग है । इसे पारम्परिक गीतों को सामने रख कर समझा जा सकता है, जहाँ बिम्ब-प्रतीक ही नहीं कथ्य तक एक ढर्रे पर टिक गये थे । रूमानी भावनाओं या गलदश्रु अभिव्यक्तियों से गीतों को बचा ले जाना भगीरथ प्रयास की अपेक्षा करता था । इसी तरह के प्रयास के तहत अभिव्यक्तियों के बासीपन से ऊब तथा अभिव्यक्ति में स्वभावतः नवता की तलाश आधुनिक सृजनात्मकता प्रक्रिया का आधार बनी । जो कुछ परिणाम आया वह ’नवगीत’ के नाम से प्रचलित हुआ ।
परन्तु, आमजन को जोड़ने के क्रम में यह भी प्रतीत होने लगा है, और यह अत्यंत दुःख के साथ स्वीकारना पड़ रहा है, कि नवगीतों के माध्यम से हो रही आज की कुछ अभिव्यक्तियाँ मानकों के नाम पर अपनी ही बनायी हुई कुछ रूढ़ियों को जीने लगी हैं । जबकि गीतों में जड़ जमा चुकी ऐसी रूढियों को ही नकारते हुए ’नवगीत’ सामने आये थे । इस स्थिति से ’नवगीत’ को बचना ही होगा, आज फ़ैशन हो चले विधा-नामकरणों से खुद को बचाते हुए ! यह स्वीकारने में किसी को कदापि उज़्र न हो, कि ’नवगीत’ भी प्रमुखतः वैयक्तिक अनुभूतियों को ही स्वर देते हैं जिसकी सीमा व्यापक होती हुई आमजन की अभिव्यक्ति बन जाती है ।
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संदर्भ :
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कविता की विकास यात्रा : नयी कविता, गीत और नवगीत (भाग -१) // --सौरभ
ज्ञातव्य :
इस आलेख के दोनों भाग एक बृहद आलेख के तौर पर ओबीओ वार्षिकोत्सव, भोपाल की स्मारिका ’शब्द-शिल्पी’ में प्रकाशित हो चुके हैं. यहाँ उक्त आलेख का दो भागो में हुआ पुनर्प्रकाशन ओबीओ के नियमानुसार आलेख के ’अप्रकाशित’ होने के दावे का खण्डन नहीं करता ।
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विशिष्ट आलेख, सार्थक पोस्ट. आपको बहुत -बहुत धन्यवाद
आदरणीया कान्ताजी एवं आदरणीय अशोक शर्माजी, आपने इस आलेख को देखा-पढ़ा, हार्दिक धन्यवाद.
क्या आपने इस आलेख के पहले भाग को पढ़ लिया है ?
आप तो समर्पित हो गये साहित्य को। आज की व्यस्तताओं के बीच इतना समय अध्ययन, शोध्ा व आलेख के लिये निकाल पाना सम्माननीय है। बधाई के पात्र हैं आप।
आपका सादर धन्यवाद. समय दिया आपने यही कम बात नहीं है, आदरणीय तिलकराज जी. वर्ना ऐसे आलेखों को लेकर आज के साहित्यकर्मियों में बहुत उत्साह नहीं हुआ करता. आलेख ’लम्बा’ जो है ! हा हा हा.......
इस आलेख को आपके ही शहर भोपाल में आयोजित ओबीओ वार्षिकोत्सव के आयोजन के अवसर निस्सृत स्मारिका ’शब्द-शिल्पी’ में समुचित स्थान मिला है.
मुखर अनुमोदन केलिए सादर धन्यवाद.
आदरणीय सौरभ सर, आलेख साझा करने के लिए हार्दिक आभार. बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय मिथिलेश जी, आपने इस आलेख का पुनः वाचन किया यह आश्वस्तिकारी है.
शुभ-शुभ
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