आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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इसका कथानक लघुकथा का नहीं लग रहा...कहानी का लग रहा है...
मोहतरम जनाब सुनील साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
आदरणीय प्रभाकर सर का मत अनुकूल है । कथा पढ़ने पर पाया कि विरासत में जो मिला उसका निर्वाह तो किया गया लेकिन अंत समय में वह बदल क्यों गया ,जैसा कि अंतिम पंक्ति से व्यक्त रहा है । यूँ तो लेखक का अपना दृष्टिकोण और व्यक्तिगत सृजन होता है । कथ्य और शिल्प की नज़र से आपकी यह रचना बेमिसाल है आदरणीय सुनील जी ।
बड़ी नाक को प्रतीक बना कर अभिमान की एक सच्ची तस्वीर जेहन में बनाती हुई और अंत में उसी अभिमान को नष्ट करने का सन्देश देती हुई इस रचना के सृजन हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें भाई सुनील जी|
वाह्ह नाक की विरासत अर्थात खान दान के रुतबे ,अकड़ की विरासत ..बहुत खूब ..नाक का बिम्ब लेकर इस दम्भी विरासत पर बढ़िया कटाक्ष किया है राज सत्ता खत्म होने के बाद इसी विरासत की अकड़ में कितने राजे महाराजे डिप्रेशन का शिकार हुए | बहुत अच्छी लघु कथा लिखी है सुनील भैया हार्दिक बधाई |
हार्दिक बधाई आदरणीय सुनील वर्मा जी।सुंदर लघुकथा।
एक नए विषय पर सुन्दर रचना. बहुत खूबसूरती से आप ने नाक का बखान किया है . बधाई आप को .
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