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ग़ज़ल - फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है // --सौरभ

2122  2122  2122  212

 

एक दीये का अकेले रात भर का जागना..
सोचिये तो धर्म क्या है ?.. बाख़बर का जागना !

सत्य है, दायित्व पालन और मज़बूरी के बीच
फ़र्क़ करता है सदा, अंतिम प्रहर का जागना !

फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।

राष्ट्र की अवधारणा को शक्ति देता कौन है ?
सरहदों पर क्लिष्ट पल में इक निडर का जागना !

क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी 
दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ।

हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना !                         [ताज़ीम - इज़्ज़त, आदर

आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ?
किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना !
*************
(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by जयनित कुमार मेहता on September 10, 2016 at 7:20pm
आदरणीय सौरभ जी,
मैं स्वयं लगभग 1 वर्ष से ग़ज़ल विधा की साधना में लगा हूँ। किन्तु पंक्तियों के बीच की पंक्तियाँ समझ पाना अभी भी मेरे लिए असंभव की हद तक कठिन है।
शायद यही ग़ज़ल की विशेषता है। इस विधा के लिए 1 वर्ष की अवधि की नगण्यता को जानता हूँ इसलिए निःसंकोच जो पंक्तियाँ स्पष्ट नहीं हो पातीं उनके निहितार्थ रचनाकार से पूछ लेता हूँ।

आपकी प्रस्तुत ग़ज़ल के प्रथम पाठन में तो ज़्यादा समझ में नहीं आया, तो मैंने कुछ टिप्पणियां पढ़ी और फिर 2-3 बार आपकी ग़ज़ल तब जाकर इस रचना की विशेषताएं मेरी समझ में आयीं।

किसी भी शेर को बड़ा-छोटा न आंकते हुए मैं पूरी रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई देने के साथ-साथ आपके प्रति आत्मिक आभार प्रकट करता हूँ, क्योंकि इस स्तर की रचनाओं से आप अप्रत्यक्ष रूप से हम जैसे नए-लोगों के समझ को विस्तृत करने का पुण्य काम कर रहे हैं।
सादर!!
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2016 at 12:00am

इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिली दाद कुबूल करें आदरणीय सौरभ जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 8, 2016 at 11:47pm

आपके अनुमोदन से उत्साहित हुआ हूँ, आदरणीय रवि शुक्ल जी. हार्दिक धन्यवाद 

Comment by Ravi Shukla on September 8, 2016 at 4:06pm
आदरणीय सौरभ जी गूढ अर्थ और संकेत के शेर से रची बसी ग़ज़ल के लिए आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 8, 2016 at 12:49am

आदरणीय विजय शंकरजी, आपने जो कुछ ग़िफ़्ट को लेकर कहा है, वस्तुतः उक्त शेर का वही भाव है. कि बाज़ार गिफ़्ट की औकात तय करने लगा है, न कि मन की भावनाएँ तय कररही हैं. 

Comment by Dr. Vijai Shanker on September 8, 2016 at 12:35am
आदरणीय सौरभ पांडेय जी ,
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ,
गिफ्ट का ब्राण्ड देखा जाता है , वही प्रेम का ब्राण्ड ( और मूल्य भी ) निर्धारित करता है।
पर खेद की बात है कि कितने लोग न अभी और न कभी इन बातों से प्रभावित हुए , यह एक मर्ज है जो केवल तथाकथित विकासशील ( अविकसित अथवा अल्पविकसित मानसिकता के ) लोगों की समस्या है वरना दुनिया में अभी भी फूलों का गुलदस्ता सबसे लोकप्रिय गिफ्ट है। ( प्रसंगतः , पूजा शब्द की व्युत्पत्ति पुष्प पर ही आधारित है और पुष्प-अर्पण ही पूजा है ) हमारे यहां तो जो माननीय भी जनसभाओं में आते हैं वे भी मंच पर ही "सादर भेंट " को उलट पुलट कर देखने लगते लगते हैं। भेंट का मूल्यांकन करते हैं या अपनी औकात का प्रदर्शन ?
शायद इसीलिये वस्तु के मूल्य से अधिक सांस्कृतिक मूल्यों का महत्त्व ( ?) बताया जाता है , माना जाता है या नहीं , यह निश्चित नहीं है।
सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 7, 2016 at 11:04pm

आदरणीय गिरिराज भाई जी. आपके मुखर अनुमोदन केलिए हार्दिक धन्यवाद. 

//बेडरूम क्या ड्राइंग रूम क्या , हर जगह बाज़ार जागृत है //

बेड-रुम को जानबूझ कर प्रायरिटी दी गयी है, आदरणीय.

आज के दौर के सक्रिय युवक-युवतियों की ज़िन्दग़ी में बेड-रुम के बिस्तर पर देर-देर रात तक लाल-लाल आँखें लिये लगातार बँधती जाती भोली हिचकियों के कई बार कारण ये ग़िफ़्ट ही हुआ करते हैं जो अपनी क़ीमत के कारण संतुष्ट ही नहीं कर पाते. आज ग़िफ़्ट के पीछे का भाव नहीं, ग़िफ़्ट के ऊपर का प्राइस-टैग अधिक महत्त्वपूर्ण हो चला है. .. :-))

//अब भी जग रहे हैं आदरनीय , आपको पता नही //

अब कोई मुग़ालता बाकी नहीं है, आदरणीय. न वास्तविक दुनिया में, न ही आभासी दुनिया में..  ... 

सब देख लिया.

सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 4:48pm

आदरनीय सौरभ भाई , मतला ता मक्ता सभी अशआर बेहतरीन कहन का उदाहरण है। कुछ शेर बहुत पसंद आये आदरणीय -
फ़िक्रमन्दों से सुना, ये उल्लुओं का दौर है
क्यों न फिर हम देख ही लें ’रात्रिचर’ का जागना ।     रोज देख रहे हैं , आदरणीय

क्या कहें, बाज़ार तय करने लगा है ग़िफ़्ट भी 
दिख रहा है बेड-रुम तक में असर का जागना ।     बहुत खूब , बेडरूम क्या ड्राइंग रूम क्या , हर जगह बाज़ार जागृत है

हर गली की खिड़कियों में था कभी मैं बादशाह
वो मेरी ताज़ीम में दीवारो-दर का जागना !            अब भी जग रहे हैं आदरनीय , आपको पता नही ... हा हा हा ,,                

आज के हालात पर कल वक़्त जाने क्या कहे ?
किन्तु ’सौरभ’ दिख रहा है मान्यवर का जागना !-    सच है आदरनीय , इसी जागने से, अभी उम्मीद भी बाक़ी है

हार्दिक बधाइयाँ आदरनीय , गज़ल के लिये ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2016 at 1:36pm

उत्साहवर्द्धन केलिए सादर धन्यवाद, आदरणीय विजयशंकर जी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 6, 2016 at 1:35pm

हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय नवीन जी.

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