परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 75 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब अर्श मलसियानी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"जहाँ सब कुछ हुआ इतनी इनायत और हो जाती "
मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन मुफाईलुन
1222 1222 1222 1222
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 23 सितम्बर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 24 सितम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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सियासत की अगर नज़र-ए- इनायत और हो जाती
पता मजहब चल जाता, सियासत और हो जाती
वफा होती अगर उनमें, ये दिक्कत और हो जाती
कि, उनके वस्ल की हमको भी आदत और हो जाती
अगर फूलों की , पत्तों की बग़ावत और हो जाती
बहारों को ख़जाँ होने की मुहलत और हो जाती
वो पत्थर दिल नहीं, पत्थर हैं, आईनों ! ज़रा समझो
तुम्हें वो तोड़ देते गर शराफत और हो जाती
मेरी तनहाइयों को, मेरी सरगोशी से नफ़रत है
तुम आते तो, खमोशी को शिकायत और हो जाती
चलो अच्छा हुआ केवल सुने, देखे नहीं हैं हम
वगरना छद्म किरदारों से नफरत और हो जाती
तेरे इनकार ने ही क्या दिये हैं मसअले सारे ?
तेरे इक़रार से क्या मेरी क़िस्मत और हो जाती ?
उड़ाने तेरे ख़्वाबों की यक़ीकन अर्श छू लेतीं
अमल में गर तेरे रूहानी शिद्दत और हो जाती
कफन भेजे ज़रा सी आग, लकड़ी और भिजवा दें
‘’जहाँ सब कुछ हुआ इतनी इनायत और हो जाती "
अगर तिश्ना लबों के हाथ में पानी दिये होते
कई लब मुस्कुरा देते इबादत और हो जाती
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पुछल्ला-
अभी पेलेट गनों को रोकने की बात से बहतर
उन्हें घर में छिपा लेते हिफ़ाज़ात और हो जाती
वो तक़रीरें दिया करते हैं उर्दू और अरबी में
अगर हिन्दी में कर देते क़यामत और हो जाती
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
बहुत उम्दा ग़ज़ल कही है आ० गिरिराज भंडारी जी, ग़ज़ल के बाद पुछल्ले भी बढ़िया कहे हैंI हार्दिक बधाई प्रस्तुत हैI पहले मतले के सानी को देखें:
//पता मजहब (?) चल जाता, सियासत और हो जाती// कुछ छूट गया है न?
इस शेअर के ऊला पर भी नज़रे सानी फरमाएँ
//चलो अच्छा हुआ केवल सुने, देखे नहीं हैं हम// "केवल सुने" और "देखे नहीं हम" सही नहीं है क्योंकि यह भाषा सम्मत नहींI
"केवल सुना" और "देखा नहीं हमने" दुरुस्त शब्द हैंI तो इस मिसरे को ऐसे नहीं किया जा सकता?
//चलो अच्छा हुआ केवल सुना, देखे नहीं हम ने//
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