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व्यथित मन .....

कहते हैं
अंतर्मन की व्यथा को
कह देने से
हल्का हो जाता है
मन

कहा
आईने से
तो बिम्ब देख
और भी
व्यथित हो गया
मन

कहा
एकांत से
तो अंधेरों में
अट्टहास करती
असंख्य ध्वनियों ने
चीर डाला
व्यथित
मन

कहा
स्वप्न से
तो स्मृतियों के
सागर पर
मिल गया
मुझ जैसा ही
एक और
तन्हा
व्यथित
मन


देखा उसे
तो और भी
व्यथित हो गया
मन ही मन

ये

मन 

व्यथा
गर्म लावे सी
निर्झरणी बन
बह निकली

भावों की सुलगन में

जल गए
मन के

कुछ अनकहे
व्यथित अंश
मिट गयी
सारी व्यथा
एक बूँद
लावे में
मन को
मिल गया
एक और
मन

निर्मल हो
समा गया
निस्संकोच
किसी
मन के
मन में
ये
व्यथित
मन

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on November 24, 2016 at 8:11pm

आदरणीय डॉ. गोपाल जी भाई साहिब आप जैसे गुणीजनों की  ऐसी प्रशंसा से अलंकृत हो कौन रचनाकार स्वयं को धन्य न मानेगा। आपके इस आशीर्वाद का हार्दिक हार्दिक आभार सर. 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 23, 2016 at 7:48pm

आ० सरना जी आपको शब्दों का चतुर बाजीगर कहू तो अत्युक्ति नहीं होगी. सादर  

Comment by Sushil Sarna on November 23, 2016 at 12:48pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी सृजन आपके आगमन से उपकृत हुआ। आपकी आत्मीय प्रशंसा का हार्दिक आभार। मंच पर आपकी कमी खलती रही। 

Comment by Sushil Sarna on November 23, 2016 at 12:46pm

आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने आत्मीय स्नेह से पोषित कर मान देने का  दिल से आभार। 

Comment by Sushil Sarna on November 23, 2016 at 12:45pm

आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति में निहित भावों को अपने आत्मीय स्नेह से पोषित कर मान देने का  दिल से आभार। 

Comment by Sushil Sarna on November 23, 2016 at 12:44pm

आदरणीय गिरिराज भंडारी जी प्रस्तुति में निहित भावों को समर्थन देती आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 22, 2016 at 5:55pm

आदरणीय सुशील सरना सर, व्यथित मन की अकुलाहट को शब्दिक करती बहुत शानदार प्रस्तुति हुई है. बहुत बहुत बधाई. सादर 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 22, 2016 at 3:15pm
सही कहा है आपने आदरणीय सुशील सरना सर । बधाई आपको इस रचना के लिये ।
Comment by Samar kabeer on November 22, 2016 at 2:57pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,फ़िक्र में डूबी अच्छी कविता लिखी अपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 22, 2016 at 1:58pm

व्यथा
गर्म लावे सी
निर्झरणी बन
बह निकली

भावों की सुलगन में

जल गए
मन के

कुछ अनकहे
व्यथित अंश
मिट गयी
सारी व्यथा
एक बूँद
लावे में
मन को
मिल गया
एक और
मन    ---  आदरनीय बहुत सही बात कही आपने , ऐसे ही तो व्यथा बह जाती है और मन हल्का हो जाता है ... आपको कविता के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।

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