आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी आभास गुलाटी का शपथ-पत्र देकर रौशनी और मोती की पाँच वर्षीय बेटी तनु को अपने पास रखने के हृदय परिवर्तन का औचित्य स्पष्ट नहीं हो पाया है? लघुकथा पर कई पक्षों पर अभी काम करने की जरुरत महसूस हो रही है अन्य टिप्पणीकारों ने इंगित भी कर दिया है। बरहाल आयोजन में सहभागिता के लिए बधाई।
मुहतरम जनाब आरिफ साहिब , प्रदत्त विषय को परिभाषित करती लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ---
न्याय और मानवीय संवेदना से मिश्रित अच्छी लघुकथ है आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी। मेरी तरफ से हार्दिक बधाई।
आ० आरिफ जी , लघुकथा वाली बात पूरी तरह नहीं आ पायी . पर आप बेहतर करेंगे इसकी उम्मीद है . सादर .
आदरणीय आरिफ़ जी, बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई. सादर
आ.मोहम्मद आरिफ़ जी बढ़िया सकारात्मक रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
प्यार मुझसे जो किया तुमने...
"सच कहूँ तो मुझे शर्म आती है कि मैंने उससे कभी प्यार भी किया था।" अदिति ने कॉलेज छूटने के बाद आज पहली बार मिल रही साक्षी से कहा।
इस शहर से तक़रीबन ढाई सौ किलोमीटर दूर, आज से ठीक एक साल पहले। "तू बहुत घमण्डी है।" रंजीत ने मुकुल की तरफ गिलास बढ़ाते हुए कहा जो अभी भी अतीत की गलियों में खोया हुआ था।
"क्या उसके बाद उससे कभी मुलाक़ात हुई?" साक्षी ने अदिति से पूछा। "नहीं। और मैं चाहती भी नहीं कि हो।"
"चलो यार, काफी वक़्त हो चुका है। अब हमें चलना चाहिए।" उधर अली रंजीत और मुकुल से कह रहा था।
अदिति को मुकुल के दोस्त कुछ ख़ास पसन्द नहीं थे जिनमें रंजीत और अली का नाम भी था। अदिति वैसे तो किसी से नहीं मिली मगर फ़ोन पर मुकुल से सबके बारे में सुन रखा था। उसने कई बार इस विषय में उससे बात भी की। "तुम उन सबका साथ छोड़ क्यों नहीं देते? बस उन्हीं के साथ रोज रात को घूमना, दारू पीना और वो क्या है तुम्हारा अण्डा-चावल खाना। छी!"
"ऐसा क्यों कह रही है? तू तो उसे बहुत चाहती थी।" साक्षी ने अदिति से पूछा।
"हाँ, मगर वो नहीं। वो किसी और को चाहता है। उसने मुझसे ख़ुद बताया था, वो भी बिना सोचे कि मुझे फील कैसा होगा।" अदिति की आवाज़ में एक दुःख था।
"पागल तो तू ही थी उसके पीछे। अब आया न समझ में कि छोटी कास्ट वाले कैसे होते हैं!" साक्षी ने अदिति से कहा।
"शायद सही कह रही है तू।" थोड़ी देर चुप रहने के बाद अदिति ने टॉपिक चेंज किया। "ख़ैर, ये सब छोड़। आज मेरी शादी की सालगिरह है। पता तो मैंने तुझे बता ही दिया है। शाम को आना ज़रूर।"
"क्या खिलाएगी?"
"जो भी तू कहे लेकिन नॉन वेज को छोड़ कर। तू तो जानती ही है।"
गिलास में पड़ी-पड़ी चाय ठण्डी हो चुकी थी। तीनों जब भी फैक्ट्री से नाईट ड्यूटी के बाद छूटते तो घर जाने से पहले स्टेशन पर चाय ज़रूर पीते। "तूने उसे धोख़ा दे कर अच्छा नहीं किया।" रंजीत ने मुकुल से कहा। "और मैंने सुना है कि आज उसकी किसी से शादी भी होने वाली है?" अली ने पूछा।
मुकुल अभी भी ख़ामोश था। उसने कोई जवाब नहीं दिया। वह चुपचाप वहाँ से उठा और घर की तरफ चल दिया। रंजीत और अली वहीं बैठे उसे जाते हुए देख रहे थे, चाय वाले के रेडियो से आती हुई आवाज़ को अनसुना करते हुए... प्यार मुझसे जो किया तुमने तो क्या पाओगी।
(मौलिक व अप्रकाशित)
सादगी, सरलता और स्पष्टता लघुकथा की तीन महत्वपूर्ण ख़ूबियाँ मानी जाती हैंI लघुकथा को किसी निर्मल नदी की तरह निर्बाध आगे बढ़ना चाहिएI सच कहूं तो आपकी इस लघुकथा में उलझाव के कारण स्पष्टता की कमी आ गई हैI दो कथाएं आपस में इस तरह गड्डमड्ड हो गई हैं कि आपने कहना क्या चाहा है, पता ही नहीं चल पा रहाI अदिती, साक्षी, अली रंजीत और मुकुल - कुल मिला कर पांच पात्र हो गए हैं जिसकी वजह से उलझाव सा आ गया हैI कभी एक दृश्य तो कभी दूसरा दृश्य, बात बनी नहीं भाई महेंद्र कुमार सिंह जीI इस कथा पर और काम करें, और सहभागिता हेतु अभिनन्दन स्वीकारेंI
आदरणीय योगराज सर, लघुकथा के जटिल हो जाने का मुझे बेहद खेद है। मैं प्रारम्भ में सिर्फ एक (मुकुल के) दृष्टिकोण से कहानी कहना चाहता था पर बाद में प्रयोग करते हुए मैंने इसे दो दृष्टिकोणों से कहने की कोशिश की। संभवतः इसीलिए कहानी दुरूह हो गयी। आपकी सलाह मेरे लिए अमूल्य है। मैं भविष्य में इसका अवश्य ख्याल रखूँगा। सादर!
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