आदरणीय साथिओ,
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समाधान--
"मम्मी ! दादू को साफ़-साफ़ कह दो कि मेरी पर्सनल लाइफ़ में दख़ल न दें।" उनकी दुलारी पोती अपनी माँ से भुनभुनाई।
"अनिमेष! पापा को समझाओ कि ज़माना बदल गया है, लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं तो आपस में मिलना जुलना स्वाभाविक है।" यह उनकी सुघड़-संस्कारी ; सदैव उनका कहा मानने वाली बहू की आवाज़ थी।
बाहर बिज़ली कड़कने से वे आज़ पहली बार सिहर गए। 'आह ! जिसके मुँह में ज़बान नहीं थी;.. आज..?" यूँ लगा जैसे बादल उनकी छाती पर ही फट पड़ेंगे। छाता उठा कर फौरन वे घर से कुछ ही दूर उस बाँध की तरफ़ निकल आये।
लगभग हमउम्र थे वे और यह बाँध। जब भी वे उलझन में होते, यहाँ आ जाते। उस बाँध को निहार कर उन्हें शान्ति मिलती। गर्व से माथा उठाए बेहद विशाल, बहुत मज़बूत! निरंकुश लहरों को अपने उसूलों पर विनियमित करता हुआ, जैसे कह रहा हो मेरे दामन में आये हो तो मेरी मर्जी के मुताबिक़ रहना होगा। पर आज यह क्या? इकट्ठा हुई लहरें ,उस बाँध की बन्द खिड़कियों को पूरी ताक़त से धकेल रहीं थीं और बाँध.... चरमरा रहा था। परिणाम सोच कर ही उनका कलेजा मुँह को आने लगा।
एकायक बाँध की खिड़कियाँ आधी खोल दी गईं। कुछ पलों में लहरें खुद को सिकोड़ कर उस गलियारे से गुज़रने लगीं।खिड़कियाँ पार करते ही लहरें बड़े-बड़े चक्कों पर जा कूदती और उन्हें नचा देतीं और विशालकाय जेनरेटर ऊर्जा उगलने लगते। सम्मोहित हो इस दृश्य को देखते-देखते,एकाएक वे मुस्कुरा उठे।
कुर्ते की ज़ेब टटोल कर उन्होंने मोबाइल निकाल कर नम्बर डायल कर दिया:
"देखो तुम उन लोगों से मिल-जुल सकती हो।"
"ओ दादू सच्च?" उस तरफ से पोती की चहक गूँजी।
"हम्म! पर तुम्हे प्रॉमिस करना होगा कि तुम अपनी मर्यादाओं का ख्याल रखोगी।"
"आई प्रॉमिस दादू ! बिलीव मी! थैंक्यू सोsss मच !"
मुस्कुरा कर सिर झटकते हुए उन्होंने कॉल डिस्कनेक्ट की और मोबाइल ज़ेब में रखते हुए घर की तरफ वापस चल दिए। लहरें अब शान्त हो चली थीं। उन्होंने महसूस किया कि धीरे-धीरे बाँध पर दबाव कमज़ोर हो रहा है।
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय सुधीर जी, जेनरेशन गेप से उपजी समस्या का समाधान देती बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. ढहते किले को तनिक दर्द अवश्य हुआ किन्तु समय पर समाधान खोजकर ख़ुद को ढहने से बचा लिया. इस सकारात्मक लघुकथा पर हार्दिक बधाई. सादर
हार्दिक धन्यवाद आपका
आपकी मेहनत आपकी रचनायों से सदैव झलकती है अत: आपकी लघुकथा पढ़कर हमेशा मन प्रसन्न हो जाता है भाई सुधीर जी, घर के बुज़ुर्ग और एक बाँध में सचमुच बहुत समानता होती है दोनों ही निरंकुशता और चंचल जलराशि पर अंकुश लगाए रखते हैं. चरमराते बाँध को देखकर यह बात दादू जी को अच्छी तरह समझ आ जाती है कि लेकिन भले बुज़ुर्गी हो या बाँध, उनकी एक उम्र होती है. दोनों को ही किसी समय अपनी सत्ता से च्युत होना ही पड़ता है. कुल मिलकर लघुकथा बेहद सुन्दर हुई है जिस हेतु हार्दिक बधाई प्रस्तुत है. लेकिहं अभी भी कहानी के एक दो सिरे ढीले हैं जिन्हें कसने की ज़रूरत है:
1. //"अनिमेष! पापा को समझाओ कि ज़माना बदल गया है, लड़के-लड़कियाँ साथ-साथ पढ़ते हैं तो आपस में मिलना जुलना स्वाभाविक है।" यह उनकी सुघड़-संस्कारी ; सदैव उनका कहा मानने वाली बहू की आवाज़ थी।//
यह अनिमेष कौन है? इसका ज़िक्र क्यों ज़रूरी था? क्या यही बात बहू खुद ससुर जी को नहीं कह सकती थी?
2. //"देखो तुम उन लोगों से मिल-जुल सकती हो।"//
किन लोगों से? क्या दादा जी ने उसको लड़कियों से मिलने को भी मन किया हुआ था?
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