आदरणीय साथिओ,
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सादर आभार आदरणीया कल्पना भट्ट दी, यह प्रयास आपको ठीक लगा और अपनी टिप्पणी द्वारा आपने मेरा उत्साहवर्धन भी किया|
देश के वीर नायकों और शहीदों को पात्र बनाकर लघुकथा लिखना मुझे भी बहुत पसंद है, अत: आपकी यह लघुकथा मुझे विशिष्ट लगी भाई चंद्रेश कुमार छ्तलानी जी प्रदत्त विषय से भी न्याय हुआ है तथा रचना कथ्य एवं शिल्प की दृष्टि से भी उम्दा है. लेकिन लघुकथा का प्रारंभ और अंत दुर्भाग्य से ढीला रह गया. क्या सिर्फ धोती-कुर्ता पहनने से ही आज़ादी आती है? आप एक सक्षम लघुकथाकार है, आप इन कमिओं पर अवश्य पार पा लेंगे. लेकिन कथानक आपकी उच्च-स्तरीय कल्प्नाशीलता को दर्शाता है जिस हेतु हार्दिक बधाई. बहरहाल बात लघुकथा के “प्रारंभ” और “अंत” की चली है तो साधिकार आपको एक लेक्चर देना चाहूँगा:
मेरा मानना है कि किसी लघुकथाकार के लेखन कौशल की वास्तविक परीक्षा कथानक के चयन के पश्चात ही प्रारंभ होती हैII अब उसे किसी धनुर्धर की तरह घूमती हुई मछली की आंख पर निशाना साधना होता हैI कथानक के चुनाव के बाद, इस प्रक्रिया के तीन मुख्य अंग है:
प्रारंभ कला : लघुकथा का प्रारम्भ प्रभावशाली हो तो पाठक के ह्रदय में उत्सुकता जागती है कि आगे क्या हुआ. एक कमज़ोर प्रारंभ वाली रचना को पाठक गम्भीरता से ही लेतेI अत: आवश्यक है कि लघुकथा का प्रारंभ प्रभावशाली हो. लघुकथा का प्रारंभ बिलकुल किसी धनुर्धर द्वारा अपने वाण को विश्वास और कुशलता से कमान पर चढ़ाने जैसा हैI
मध्य कला: रचना जब प्रारंभ से मध्य की तरफ बढ़ती है तो वहां कथ्य और शिल्प के बुनावट और कसावट की आवश्यकता बहुत अधिक हो जाती हैI इस स्तर पर यदि कोई चूक हो जाए तो लघुकथा की गति मंथर होकर रचना में हल्कापन ला सकती है. यह किसी धनुर्धर द्वारा कमान पर वाण चढ़ाकर उसकी रस्सी को अभीष्ट दूरी तक खींचने जैसी एक अति संवेदनशील प्रक्रिया होती हैI एक कुशल एवं अनुभवी धनुर्धर कमान की डोरी में आवश्यकता से अधिक या कम खिंचाव देने के प्रति सदैव चौकन्ना रहता है. कम खिंचाव से वाण नियत स्थान तक नहीं पहुँच पाएगा तथा अधिक खिंचाव से कमान की डोरी के टूटने का जोखिम भी होता हैI
अंत कला: लघुकथा का अंत उसकी आत्मा होती है, अंत से ही रचना का वास्तविक सन्देश सामने आता हैI अत: लघुकथा का अंत यदि अति-उत्तम अथवा मारक न हो तो सारा परिश्रम व्यर्थ जा सकता कथानक बिलकुल कच्चे दूध की तरह होता है, एक लघुकथाकार अपनी कल्पना शक्ति एवं उत्तम कथ्य-शिल्प की सहायता से बिलो कर लघुकथा के मध्य तक पहुँचते पहुँचते उसे मक्खन में परिवर्तित कर देता हैI लेकिन लघुकथा लेखन प्रक्रिया में “अंत कौशल” वह आंच है जिसमे पकाकर उस मक्खन में से घी निकाला जाता हैI एक धनुर्धर हरेक सावधानी बरतने के बाद भी यदि इस प्रक्रम में असफल हो जाता है तो इसका सीधा सादा अर्थ यह है कि उसकी दृष्टि मछली की आँख पर थी ही नहींII
"सीखना-सिखाना" हमारे ओबीओ की परम्परा है आ० कल्पना भट्ट जी, बस उसी दिशा में एक लडखडाता हुआ कदम इस नाचीज़ ने भी बढ़ाया हैI
यह सब आपके चरणों का प्रताप है आ० समर कबीर साहिब.
तह-ए-दिल से आपका शुक्रिया अदा करता हूँ मोहतरम जनाब समर कबीर साहिब.
आदरणीय भाई साहब, आप की विस्तृत व सुंदर समीक्षा पढ़ कर दिल गदगद हो गया.
हार्दिक आभार आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी.
सादर नमन आदरणीय सर, जिस तरह से आपने इस रचना को आपने अपने आशीर्वाद से नवाज़ा और लघुकथा को ठीक करने हेतु इतने विस्तार से मार्गदर्शन किया, मेरे पास आपका आभार व्यक्त करने को शब्द नहीं हैं| मैं इस रचना को संकलन के समय बदल सकूं, इस हेतु प्रयास प्रारंभ करता हूँ|
इससे मेरी खुद की भी रिवीज़न हो जाती है भाई डॉ चंद्रेश छतलानी जी, अत: शुक्रिया तो मुझे आपका अदा करना चाहिए.
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