आदरणीय साथिओ,
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आपका स्नेह मिला ! मेरे लिए आशीर्वाद हुआ । आभार आपका ।
आदरणीय अनुपमा बाजपाई जी आप को लघुकथा सुंदर सन्देशयुक्त बढ़िया हुई है.
आपका रचना पर आना सुखकर लगा , सर ! आभार आपका ।
दोनों ही कथाएं बढ़िया हुई हैं आदरणीया अन्नपुर्णा जी | हार्दिक बधाई
आभार आदरणीया कल्पना भट्ट जी ।
(1). प्रच्छन्न भेड़िये
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सुबह स्कूल पहुँचते ही कक्षाध्यापक ने बुला भेजा। मिनी अपनी एक सहपाठी को साथ लेकर उनके कमरे में पहुँची।
"ये तुम्हारी मासिक परीक्षा की काॅपी जाँच रहा था"
बहुत देर वे काॅपी पलटकर दिखाते रहे। स्वस्थ और ऊँची कद-काठी की मिनी अपनी पाँचवीं कक्षा की सहपाठीयों से बड़ी दिखती थी। उसकी मित्र कब तक रूकती उसे उसकी कक्षा में जाना था। मिनी भी उठ खड़ी हुई।अध्यापक ने उसे झिड़़का-
"इस बार तुम्हारा प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है।"
ये सुनकर पढ़ाई में मेहनती मिनी के चेहरे पर तनाव और परेशानी झलकने लगी।
अध्यापक ने मिनी को सांत्वना देने उसके सिर और फिर उसके कंधे को हाथ से थपथपाया। अचानक उनका हाथ उसके कंधे से फिसल कर उसके दूसरे अंगों तक पहुँच गया। उसने मिनी को जकड़ लिया । सर की उन्मत्त मुखाकृति देख पहले तो मिनी घबराई फिर उसे माँ की सीख याद आई। जोर से हाथ में पकड़ी कलम सर के हाथ में गड़ा दी। हाथ की पकड़ छूटते ही भागी और शोर मचाने लगी।
तत्काल प्रभाव से निलंबित उस अध्यापक को जब पुलिस लेजारही थी तब अपनी सहपाठीयों के साथ खड़ी मासूम मिनी की आँखें साहस से चमक उठीं....!!
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मौलिक एवं अप्रकाशित ।
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2. "सुपात्र"
धीरे से लाॅन का गेट खोला, तो वहाँ लगे झूले पर कोई झूलता दिखाई दिया, उसके गुनगुनाने की मद्धिम सी स्वरलहरी फूलों की खुशबू के साथ वहाँ फैली हुई थी।
" सुनिये, शुचि से मिल सकता हूँ क्या?",
उसने पुकार कर कहा। आज न जाने किस मनोदशा के वशीभूत हो उससे मिलने चला आया। करीब दस-बारह वर्ष हुए जब अपने कारोबार के सिलसिले में अमेरिका जाने की बात सूचित भर कर वहाँ से चला आया था। वह भी एकरस जीवन में बदलाव चाहता था। , ये सोचते पल्लव के मन में शब्दों का ताना-बाना जुड़ रहा था कि वह कैसे शुचि को समझायेगा...
झूले से उतर वह व्यक्ति धीरे-धीरे उसके पास आया।
वह देककर हक्का-बक्का रह गया। वही वर्षों पुरानी शुचि... जरा भी समय की धूल नहीं चढ़ी, तनिक भी दुःख में नहीं घुली..वही सलज्ज, मासूम आँखें , आत्मविश्वास से दमकता चेहरा और कोमल मुस्कान । लंबे काले घने बाल।
सारे रास्ते बुने उसके संशय, विचार और पौरूष का दर्प धुआँ-धुआँ हो उड़ चले थे। " वो, वो मैं यूँ ही जरा आज इधर आया था तो सोचा कि तुम्हारा हाल जान लूँ", वह हकला गया। मानो जिह्ववा में कोई शक्ति ही ना हो ।
शुचि की हँसी वहाँ खनकती बिखर गई -" क्या हाल जानना है मेरा, बोलो..?? जब तुम एक सधे व्यापारी से नाप-तौलकर, सब हिसाब कर आगे बढ़ लिये थे तो आज इतने बरसों बाद क्या देखने आए हो...??? ...तुमने सोचा होगा कि मैं तुम्हारे दुख में विगलित , संतप्त जीवन काट रही होऊंगी। पर मैंने तुम्हारे धोखे की पीड़ा को अपनी जीवन धरा की खाद बनाकर उस पर हँसी-खुशी के उजास उपजायें हैं । ",
पल्लव अपराधी सा सिर झुकाए सुन रहा था।
ईश्वर नहीं चाहते थे कि मेरे सच्चे विश्वास को गलत हाथों में सौंपें इसलिए उन्होंने तुम्हारी जगह रिक्त कर दी , जिससे कि सर्वथा उपयुक्त पात्र ही उसका हकदार बने..!! कहकर मुस्कुराती वह पुनः झूले की ओर चल दी ।
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मौलिक एवं अप्रकाशित ।
आ. अर्पणा शर्मा जी आपकी दोनों लघुकथाएँ बहुत शानदार हैं। " प्रच्छन्न भेड़िया "वास्तव में शिक्षक ही ऐसा बन जाए तो भेड़िया तो कहलाएगा ही। " सुपात्र " में लीक से हटकर एक सोच दर्शाई है। बहुत बहुत बधाई आपको।
"प्रच्छन्न भेड़िये" एक शानदार लघुकथा है जो एक सार्थक सन्देश देने में सफल रही हैI अलबत्ता "सुपात्र" एक बहुत ही जाने पहचने साधारण से कथानक पर आधारित हैI ऐसे कई दृश्य हम हिंदी फिल्मों में अक्सर देखने को मिल जाते हैंI मुझे इस कथा ने क़तई प्रभावित नहीं कियाI लघुकथा लिखने से पहले एक लघुकथाकार को तीन चीजों का ध्यान रखना होता है कि उसे लघुकथा में:
1. क्या कहना है? इसका तात्पर्य है कथानक (प्लाट) का चुनाव। अर्थात सन्देश क्या देना हैI
2. क्यों कहना है? अर्थात लघुकथा कहने का उद्देश्य वास्तव में क्या है। अर्थात क्या लेखक के पास कहने के लिए कोई विशेष बात है? कहने का मतलब यही कि उसी बात को दोहराने से क्या लाभ जो पहले ही सैकड़ों बार कही जा चुकी होI
3. कैसे कहना है? इस बात का सम्बन्ध लघुकथा की भाषा/शैली से है। भाषा जितनी सरल और अक्लिष्ट तथा शैली जितनी विशिष्ट होगी होगी, शब्दों का चुनाव जितना सटीक होगा, रचना उतनी ही प्रभावशाली बनेगी।
बहरहाल अभ्यासरत रहें प्रयासरत रहेंI तथा मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें अर्पणा शर्मा जीI
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