आदरणीय साथिओ,
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"घर का वैरागी"-----
"बेटा अब मैं अपने घर लौटना चाहती हूँ. वहाँ भी सब देखना-भालना होगा न!।"
"माँ लेकिन वहाँ तुम अकेले कैसे... और फिर मुन्ना के बिना तुम्हारा जी...?"
"जी लग जाएगा बेटा ! जल्दी ही लौटूँगी। तुम्हारे यहाँ जरुरत थी, आ गई । उस घर को भी मेरा इंतजार होगा।"
"ठीक है अम्मा मैं छुट्टी की अर्जी डाल देता हूँ ।तुम्हें खुद छोड आऊँगा।"
....
उसका मानस अपने घर, बगीचे आदि की देखभाल मे उलझ गया था। दिन बितते गए थे मुन्ना दादी को ही ’माँ ' कहने लगा था। उँगली पकड़ कर चलने लगा था। स्नेहलता को अब अपने घर की याद सताने लगी थी। पोते की देखरेख में उन्होने कोई कोताही नहीं बरती थी। उनके जीवन में सवाल केवल समय की प्राथमिकता का था। जिंदगी के जोड-घटाव, गुणनफल निकलता उनका मानस पति की निर्लिप्तता में आकर उलझ जाता था।
तभी "मुन्ना मेरी दादी अम्मा" कहते धूल सने पाँवों से उनकी गोद में बैठ गया। वो उसे खिलौने मे उलझा कर बाथरुम चली गयी। अचानक जोर-जोर से रोने की आवाज से बाहर आयी । लेकिन मुन्ना वहाँ था ही नही!! दौडकर मुख्य द्वार पर आयी तो कोई अनजान आदमी मुन्ना को चुप कराने की कोशिश कर रहा था। वो झपट पडी--"कौन, कौन हो तुम? चोर-उचक्का...बच्चा चुराता..."
एकाएक वह थम गई ,भाव थम गए,आँखे वही थी- चिरपरिचित बस भाव बदल गए थे। वो उनसे नजर ना मिला पाए। पर उनकी आँखो की कोरों में छलक आए जल की गहराई मापने में उसे एक क्षण का भी समय नहीं लगा।
" स्नेह क्या बताऊँ तुम्हें मंदिर-मंदिर, आश्रम-आश्रम जहाँ गया वहाँ नया अनुभव । मेरी किसी को चिंता नहीं थी । मठाधीश ने कहा- नए आए हो भोजन कक्ष मे रहो। सबको भोजन कराके फिर स्वयं करना । उनके पैर दबाना , सुबह जल्दी उठकर.... दर-दर भटकता रहा।"
उसे इस बार भी समय को बाँधने की व्यग्रता थी। उसके प्रयासों को सार्थक बनाता समय। न शिकवा, न शिकायत। बिना किसी आग्रह के आगे बढी स्नेहलता।
मुन्ना को थामे हुए सुदीप अनुगामी बन गये।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आयोजन का श्रीगणेश करने हेतु हार्दिक शुभकामनाएं
मुन्ना के बीना
मैं छुट्टी की अर्जी डाल देता हूँ ।
तुम्हें खुद छोड आउँगा।"
बगीचे आदी की देखभाल मे उलझ गया था
दिन बितते गए
कर बाथरुम चली गई।
दौडकर मुख्य द्वार पर आई
वो झपट पडी
(रचना पर बाद में आऊँगा)
आ. सर जी टंकण की गल्तियों पर आगे से ज्यादा ध्यान दूँगी, क्षमा सहित
आ. स्नेहलता समय की महत्ता को समझती थी. पोते को बडा करने का काम बखुबी निभा चुकी थीअपना काम समाप्त होते ही लौटने में समझदारी है ऐसे मे ऐसे मे उसे पति की निर्लिप्तता को महत्व देना ज्यादा उचित नहीं लगा. ये बताने का प्रयास् किया है.सादर
घर का वैरागी- सार्थक शीर्षक के साथ भावप्रधान रचना.
आयोजन का श्री गणेश करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय नयना ताई |
नयना ताई, जिस दिन आपकी लघुकथा के कहन में स्पष्टता और शैली में सादगी आ गई, इस विधा में आपका हाथ कोई नहीं पकड़ पायेगा.
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