आदरणीय साथिओ,
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बधाई एक अच्छी रचना के लिए... थोड़ा संवाद भी होते तो अधिक अच्छा होता।
अंग दान के सार्थक सन्देश में पिरोई गई ,प्रदत्त विषय से न्याय करती सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रा जी
कथानक अच्छा है आ. आशुतोष जी पर इसे जो ट्रीटमेंट मिलना चाहिए था वह नहीं मिल पाया. साथ ही, इसमें कालखंड दोष भी है. आयोजन में सहभागिता हेतु मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
आदरणीय योगराज जी सर और अन्य सुधीजनों की तरह ही मेरा भी यही मानना है कि इस कथानक पर एक अच्छी प्रेरणा देती हुई कहानी का सृजन किया जा सकता है| आयोजन में सहभागी बनने हेतु सादर बधाई स्वीकार करें|
आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी, आपने इस लघुकथा में एक बहुत बड़े कालखंड को समेटने की कोशिश की है| एक बड़ी कहानी का आउटलाइन लगता है| आपकी भाषा और उसका प्रवाह अद्भुत है|
लघुकथा – रोशनी की किरण -
प्रिय सुमित्रा,
मालूम नहीं, अब तुम्हें मेरा प्रिय लिखना भी पसंद आयेगा कि नहीं। मुझे भी कई बार सोचना पड़ा कि प्रिय लिखूं कि नहीं। सच में मुझे खुद भी यक़ीन नहीं कि इस अलगाव के बाद मुझे प्रिय लिखने का अधिकार है भी कि नहीं।
आज तुम्हें अपनी माँ के घर गये हुए पूरा डेढ़ महीना हो गया। मैंने कई बार तुम्हें फोन किया लेकिन तुम्हारा मोबाइल भी बंद रहता है, शायद तुमने नया नंबर ले लिया होगा?
मुन्ना के स्कूल से भी फ़ोन आया था, उसकी पढ़ाई का भी नुकसान हो रहा है।
पिछले दस वर्ष में बहुत बार अकेले रहना पड़ा है लेकिन इस बार अखर गया क्योंकि तुम झगड़ा करके गयी थीं। तुम्हारे जाने के बाद लगभग आठ दिन तो मैं घर ही नहीं आया क्योंकि अकेले घर में एक रात गुजारना भी अपने आप को यातना देना जैसा लगता थ। जो घर कभी मेरे लिये सबसे ज्यादा सुक़ून देने वाली जगह थी, अब वही घर काटने को आता था।
तुम तो शायद यह भी भूल गयीं कि हम दोनों ने प्रेम विवाह किया था। मेरे प्रेम का अच्छा सिला दिया तुमने । वैसे प्रेम तो मुन्ना के जन्म के बाद, हम दोनों के बीच मात्र एक शब्द बन कर ही रह गया था। क्योंकि तुम मुन्ना को एक मिनट को भी अपने से ज़ुदा नहीं कर पाती थी और मेरी ज़रूरतें तुम्हारे लिये कोई मायने नहीं रखती थीं।
मैं मानता हूँ कि मुझे तुम पर हाथ नहीं उठाना चाहिये था, वह मेरी भूल थी, मगर तुमने भी तो बेहद घटिया किस्म का इल्ज़ाम लगाया था। भला कोई भी शादी शुदा और एक बच्चे का बाप , एक दस साल की लड़की के साथ... छि मुझे तो लिखने में भी घिन आती है। हाँलांकि यह भी सच है कि वह सोच तुम्हारी नहीं थी। तुम्हें गुमराह किया गया था। तुम लोगों के बहकावे में जल्दी आ जाती हो।
खैर, अब जब तुमने अपना अलग रहने का फ़ैसला मेरे ऊपर ज़बरन थोप ही दिया है तो मैंने भी एक निर्णय ले लिया है। जिन माँ बाप को तुम्हारे लिये छोड़ आया था , अब वापस उनके पास जा रहा हूँ और शेष जीवन उनकी सेवा करूंगा।
तुम्हारा - प्रदीप
प्रदीप ने पत्र को लिफ़ाफ़े में रखा, और पोस्ट करने चल दिया।
प्रदीप ने खिड़की से बाहर देखा, मूसलाधार बरसात हो रही थी। बादल गड़गड़ा रहे थे, लेकिन उसे पत्र पोस्ट करने की इतनी बेताबी थी कि बरसात के बंद होने का भी इंतज़ार नहीं किया। छाता निकाला और चल दिया।
जैसे ही दरवाज़ा खोलकर बाहर निकला, उसकी आँखें चकाचौंध हो गयी, लगा जैसे आकाश में बिजली चमकी हो।
सामने जो दृश्य था उस पर यक़ीन ही नहीं कर पा रहा था, सुमित्रा बेटे के साथ खड़ी थी।
मौलिक एवम अप्रकाशित
हार्दिक आभार आदरणीय ओम प्रकाश जी।
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