परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 89वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब जिगर मुरादाबादी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे "
221 2121 1221 212
मफऊलु फाइलातु मफाईलु फाइलुन
(बह्र: मुजारे मुसम्मन् अखरब मक्फूफ महजूफ)
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 24 नवम्बर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 25 नवम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
Tags:
Replies are closed for this discussion.
आपकी ग़ज़ल में काफ़िया दोष है आ. अमित जी. मंच पर मौजूद लेखों का लाभ उठाएँ. आयोजन में सहभागिता हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
हार्दिक बधाई ।
लिपटी लहू में हर दफ़ा जब आस्तीं रहे
फिर दोस्ती पे बोलिए कैसे यकीं रहे
बन कर सदा अज़ीज़ मेरे हमनशीं रहे
ख़ुशियाँ कभी यहाँ तो वहाँ, ग़म यहीं रहे
कोई तो ले कहीं से ख़बर भूल कर कभी
हम को भी हो यक़ीन कभी हम कहीं रहे
वो शख़्स जो कि जिस्म में है रूह सा बसा
शामिल उसी की ज़िन्दगी में हम नहीं रहे
थे आँधियों की ज़द में कई लोग और भी
हर बार क्यूँ निशाने पे जाने हमीं रहे
आवाज़ अब किसी को मैं देता नहीं कभी
जिसको मिले ख़ुशी जहाँ पे, वो वहीं रहे
ज़ज्बात मेरे दिल में जो थे मर गये सभी
"ऐ इश्क़ हम तो अब तेरे क़ाबिल नहीं रहे"
इस राज़ को छुपा के कहीं दफ़्न कर दो तुम
दुनिया कहीं न जान ले ये, हम नहीं रहे
(मौलिक व अप्रकाशित)
आदाब आ. मोहम्मद आरिफ़ जी. ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हृदय से आभारी हूँ. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
आदरणीय महेंद्र जी ,
उम्दा ग़ज़ल हुई है, हार्दिक शुभकामनाएं.
सादर
बहुत-बहुत शुक्रिया आ. अजय जी. हार्दिक आभार. सादर.
आदाब आ. समर कबीर सर. आपने बिलकुल सही कहा है, यह ग़ज़ल मैंने जल्दी में कही (कल ही लिखी और कल ही पोस्ट कर दी) है. पिछली बार मुशायरे में शिरकत न कर पाने से इस बार मुशायरे में ग़ज़ल प्रस्तुत करने का मोह नहीं त्याग पाया. यही वजह है कि ग़ज़ल को रवां होने का वक़्त नहीं मिल सका. हालाँकि इसमें ग़ज़ल सम्बन्धी मेरे अल्प ज्ञान का भी प्रमुख हाथ है. आपने ग़ज़ल में जो भी कमियाँ बतायी हैं उनसे मैं इत्तेफ़ाक रखता हूँ. देखता हूँ कि ग़ज़ल कैसे बेहतर हो सकती है. आपकी इस्लाह के लिए दिल से आभारी हूँ. बहुत-बहुत धन्यवाद. सादर.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |