आदरणीय साथिओ,
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अंत में अपना जाना पहचाना नीड़ ही सूकून देता है , इस शाश्वत सत्य को बढ़िया ढंग से कहा है आपने ,हार्दिक बधाई आदरणीय ओमप्रकाश जी
आदरणीय प्रतिभा पांडे जी आप की सरल, सुंदर व सारगर्भित टिप्पणी पढ़ कर अच्छा लगा. शुक्रिया आप का .
आदरणीय विनय जी बहुत बेहतरीन लघुकथा लिखने के लिए कोटि कोटि बधाई
हार्दिक बधाई आदरणीय ओम प्रकाश जी।वाह आदरणीय मज़ा आ गया।कितनी सरल और संतुलित भाषा में कितनी गहरी बात कह दी ।लाज़वाब प्रस्तुति।
आदरणीय तेजवीर सिंह जी आप की प्रतिक्रिया सदा मुझे प्रोत्साहन देती है. शुक्रिया आप का .
आदरणीय छोटेलाल जी आप का शुक्रिया. आप ने गलत जगह पोस्ट कर दिया है. शायद गलती से यहाँ पोस्ट हो गया है.
कामकाजी लोगों की दुविधा व सुविधा को उजागर करती उम्दा कथा के लिये बधाई आद० ओम भाई जी ।
वापसी
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-बिलकुल नहीं।
-थोड़ी प्रतीक्षा कर लेती।
-कहा न?अब और नहीं...।
-संघर्ष से ही सफलता मिलती है।
-हाँ दीदी,संघर्ष से ,छलावे से नहीं।
-क्या मतलब है तुम्हारा?
-यही कि हम ठगे गये,बस।
-उँ?
-हाँ।अब बटुआ खाली है दीदी।वापसी के किराये भर के पैसे बचे हैं,वो भी ट्रेन के सेकेण्ड क्लास के।
-मेरे-तुम्हारे जेवर हैं न।देख लेंगे कुछ दिन और।कहीं तुम्हे कोई फिल्म/सीरियल मिल जाये।
-नाटक खत्म हुआ दीदी।पटाक्षेप होना बाकी है।
-समझी नहीं मैं।
-वे गहने ही तो बिकते रहे अब तक,घर-किराये और खाने-पीने के लिए।
-और तुम...
-सादगी का नाटक करती रही ,कि सादगी में रुप निखरता है,रोल मिल जाते हैं।
-मोंटी ने कुछ नहीं किया?
-किया दीदी,किया। उसने मेरे भोलापन से खेल किया',रजनी फफक पड़ी।
-कलमुँहा कहाँ मिलेगा?खून पी जाऊँगी उस हरामी का',बबिता गुर्रायी। रजनी सामान समेटने लगी।
"मौलिक व अप्रकाशित"
छल के बाद घर वापसी . सुन्दर रचना आदरणीय मनन कुमार सिंह जी. बधाई .
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय ओम प्रकाश भाई।
अक्सर ऐसे ही छले जाते हैं लोग, बढ़िया रचना विषय पर| बधाई आपको इस प्रभावी रचना के लिए
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