आदरणीय साथिओ,
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घड़ी की सुईयां
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दादा और पोता, टीवी स्क्रीन पर आँखें गड़ाए बैठे थे जहाँ कश्मीर के मुद्दे पर गरमा गर्म बहस चल रही थीI वक्ताओं का पूरा पैनल बहुत ही जोश में थाI हर कोई एक दूसरे से बढ़ चढ़ कर भारत के विरुद्ध विष वमन कर रहा थाI
"हिन्दुस्तानी फ़ौज हमारे कश्मीरी भाईओं पर दिन रात जुल्म कर रही हैI" एक वक्ता ने लगभग चिल्लाते हुए कहाI
"हिंदुस्तान की सरकार बेगुनाह कश्मीरियों का कत्ल कर रही हैI" दूसरे वक्ता ने ऊँचे स्वर में कहाI
"दिन दिहाड़े हमारी माँ बहनों की इज्ज़त लूटी जा रही हैI" लम्बी दाढ़ी वाले वक्ता का स्वर उभराI
"हमारी फ़ौज इंडिया की ईंट से ईंट बजा देंगेI" यह एक सेवानिवृत्त सेना अधिकारी का स्वर थाI
"हम तन मन और धन से अपने जिहादी भाईओं की मदद करेंगेI" लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना ने अपना बाजू हवा में लहराते हुए कहाI
"इंशाअल्लाह! बहुत जल्द कश्मीर में हमारा झंडा लहरा रहा होगाI" जलती आग में घी डालती हुई यह आवाज़ एक जिहादी नेता की थीI
"जिस कश्मीर को ये हिन्दुस्तानी अपना सिर कहते हैं, हम इस सिर को धड़ से अलग किये बगैर हम चैन से नहीं बैठेंगेI" दोनों बाहें उठाते हुए यह फतवा लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की तरफ से उछाला गयाI
इसी बीच दादा और पोते ने एक दूसरे की तरफ देखाI जहाँ नौजवान पोते की मुट्ठियाँ तनी हुईं और माथे पर क्रोध की रेखाएं थीं वहीँ बूढ़े दादा जी के चहरे पर निराशा और ऊब के मिश्रित चिन्ह उभर आए थेI अचानक टीवी के सामने से उठते हुए दादा जी ने कहा:
"मैं अब सोने जा रहा हूँ बेटाI"
उन्हें यूँ अचानक उठते हुए देख पोते ने पूछा: "इस मुद्दे पर आपकी क्या राय है दादा जी?"
दादा जी के चहरे पर एक फीकी सी मुस्कान फैलीI अपनी छड़ी से दीवार पर टंगे मानचित्र की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने उत्तर दिया: "बेअक्ल लोग हैं ये सबI 1971 में बांग्लादेश गंवा दिया था....लगता है अब बलोचिस्तान की बारी हैI"
पोते के चेहरे पर चढ़ी क्रोध की लाली सहसा पीलेपन में परिवर्तित होने लगी, किन्तु टीवी पर बहस अभी भी जारी थीI
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(मौलिक और अप्रकाशित)
हमसे कश्मीर ले लेना पाकिस्तान का एक दिवास्वप्न भर है। इस बात को आपने बड़ी कुशलता से लघुकथा का रूप दिया है। हार्दिक बधाई आपको
टिक-टिक, टिक-टिक! यह समय ही है, जो देगा दिवास्वप्नों के समय/घड़ी की सुइयों को विराम! टीवी की भड़काऊ बहस और बयानबाज़ी पर दादा और पोते के हाव-भाव /भाव-भंगिमाओं और प्रतिक्रियाओं से बढ़िया संदेश सम्प्रेषित करती बेहतरीन रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार आदरणीय सर श्री योगराज प्रभाकर जी।
मुहतरम जनाब योगराज साहिब ,प्रदत्त विषय को परिभाषित करती सुन्दर लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
घड़ी की सुईयां स्वयं को दोहराती हैं पर कई लोग इस बात को भूल कर दिवास्वप्न देखने लग जाते हैं. देश के मौजूदा हालात को बयां करती उम्दा लघुकथा कही है आपने सर. दादा और पोते का प्रयोग सूक्ष्म रूप से बहुत कुछ कहता है. हमेशा की तरह इस बार भी शीर्षक शानदार है. मुझे बेहद पसन्द आया. दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
यक़ीनन!
वाह! सही मायनों में दिवास्वप्न।बरसों हो गए कितना गंवाया फिर भी खयालों में जीना न छोड़ा।बेमिसाल सृजन हेतु हार्दिक बधाई सर जी।परन्तु "पोते के मुँह की लाली पीलेपन में बदलने लगी "सटीक नहीं लगीं।पीलापन बीमारी ,घबराहट या डर का प्रतीक होता हैं।बजाय इसके " क्रोध की लाली शांत ठहराव में बदल गई या कुछ और।सर जी ,आपको टोकने की हममें हिम्मत नहीं है इसलिए कान पकड़ कर पहले ही क्षमा सहित।सादर।
हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभकर भाई जी ।आपकी लघुकथा पर कुछ लिखना हमारे लिये संभव ही नहीं है।यह हमारे लिये पाठ्य क्रम है जिससे सीखने और समझने की आवश्यकता है। दिवास्वपन का सजीव चित्रण।लाज़वाब लघुकथा।
पहले मेरे मन मे भी ये प्रश्न आया था। कहानी को फिर पढा और समझ मे आया कि ये संवाद पाकिस्तानी दादा पोते के बीच है। दादा से हकीकत सुनकर पोते के चेहरे पर डर का पीलापन है।
बहुत ख़ूब।
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब, शीर्षक भी उम्दा,बहुत उम्दा कथानक,संवाद भी उम्दा,हर एतिबार से एक शानदार लघुकथा,इस बहतरीन प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
कुछ टंकण त्रुटियों को भी देख लें ।
ओह!क्षमा सर जी, एक बार मुझे भी लगा कि ये पाकिस्तानी हैं फिर सोचा यहीं के हैं ।आखिर गुरु ,गुरु ही होता है यूहीं चेलों को सही राह पर नहीं ले जाता।अपनी धृष्टता के लिए सॉरी ।समझ का फेर हो गया।अब लग रहा है ये कथा तो बिल्कुल नया नज़रिया सिखा रही है।हमें अपने सीमित दायरे से बाहर निकल कर सोचना सिखा रही है।आज एक सबक़ और सिखा।हार्दिक आभार।
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