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पाँच बरस तक कुछ न कहेंगे कर लो अपने मन की बाबू ।
बात चलेगी, तो बोलेंगे, अपनी ही थी गलती बाबू ।।

चाँद-चाँदनी, सागर-पर्वत, चाहत कहाँ किसानों की है ?
मुमकिन हो तो इनके हिस्से लिख दो थोड़ी बदली बाबू ।।

खाली थाली, खाली तसला, टूटा छप्पर, चूल्हा गीला,
रोजी-रोटी बन्द पड़ी जब, क्या करना जन-धन की बाबू ।।

जो काशी बन जाए क्योटो, या दिल्ली हो जाए लंदन ।
प्यासा जन बस जल पा जाये, गाँव लगे शंघाई बाबू ।।

अच्छे-दिन, काले-धन की बातें, जुमलें हैं जुमलों की क्या ?
"बाग़ी" भी अब समझ रहा है लेते हो तुम फिरकी बाबू ।।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Mahendra Kumar on May 28, 2018 at 11:09am

उम्दा ग़ज़ल है आदरणीय गणेश जी "बागी" जी. हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on May 26, 2018 at 9:37pm

आदर्णीय समर कबीर साहब आपका बहुत बहुत शुक्रिया तनाफुर पर विस्तृत जानकारी देने के लिये।

Comment by TEJ VEER SINGH on May 26, 2018 at 12:33pm

हार्दिक बधाई आदरणीय गणेश जी बागी जी। लाज़वाब गज़ल।

Comment by Samar kabeer on May 26, 2018 at 11:30am

जनाब राम अवध जी आदाब,ऐब-ए-तनाफ़ुर उसे कहते हैं कि जिस अक्षर पर जुमला ख़त्म हो रहा है,उसी अक्षर से अगला जुमला शुरू हो,जैसे 'हम मर गये' इसमें 'हम' का आख़री अक्षर 'म' है, और 'मर' का पहला अक्षर भी 'म' है, तनाफ़ुर दो तरह का होता है,एक ये कि जिसे शब्दों के उलट फेर से बदला जा सके,दूसरा ये कि उसे बदलने से शैर का हुस्न ख़त्म हो रहा हो,जैसे 'जिगर' का मतला है:-

'जो अब भी न तकलीफ़ फरमाइयेगा

तो फिर हाथ मलते ही रह जाइयेगा'

इस मतले के ऊला मिसरे में 'तकलीफ़' का आख़री अक्षर 'फ़' और 'फरमाइयेगा' का पहला अक्षर 'फ़' है, यानी ऐब-ए-तनाफ़ुर,लेकिन यहाँ इस ऐब को निकालने से मतले का हुस्न ख़त्म हो जायेगा,अब जनाब बाग़ी जी के मिसरे में इसे बदलने से शैर का हुस्न बढ़ रहा है, उम्मीद है आप समझ गए होंगे,इसके बारे में विस्तृत जानकारी के लिए "ग़ज़ल की बातें" में आलेख मौजूद है,उसका अध्यन करें ।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on May 26, 2018 at 6:02am

आदर्णीय समर कबीर साहब ऐबे तनाफुर पर मेरा मार्गदर्शन करने की कृपा करें। इसी मंच पर एक महान शायर का तरही मिसरा दिया गया था।

दुनिया ये बदलने वाली है किस चीज पे तू इतराता है।

आदर्णीय क्या इस मिसरे में तनाफुर का ऐब नहीं है यदि है तो क्या ये जायज है? 

Comment by Samar kabeer on May 25, 2018 at 4:25pm

जनाब गणेश जी "बाग़ी" साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल है, बधाई स्वीकार करें ।

'बात चलेगी, तब बोलेंगे,अपनी ही थी ग़लती बाबू'

इस मिसरे में ऐब-ए-तनाफ़ुर देखें 'तब बोलेंगे',मिसरा यूँ कर लें तो ऐब निकल जायेगा:-

'बात चली तो,हम बोलेंगे,अपनी ही थी ग़लती बाबू'

मक़्ते के ऊला मिसरे के अंत में 'जुमलों की क्या' की जगह "जुमलों का क्या" करना उचित होगा ।

Comment by राज लाली बटाला on May 24, 2018 at 6:18am

आज की सियासत पर जबरदस्त प्रहार किया है आद गणेश जी बहुत खूब

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on May 24, 2018 at 1:40am

देश के पीड़ित वर्गों और नकारात्मक राजनीति पर रौशनी डालती बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार आदरणीय इंजी. गणेश जी 'बागी' साहिब। 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 23, 2018 at 10:59pm

आ. बागी जी, सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई । 

Comment by Shyam Narain Verma on May 23, 2018 at 10:58am
वाह बेहद खूबसूरत प्रस्तुति … हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।

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