(1). आ० अजय गुप्ता जी
तपस्या
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लैब कंपाउंड में रिपोर्ट का इंतज़ार करते आनंद और तपस्या. लैब अटेंडेंट ने केबिन से बाहर आ कर आवाज़ दी, “रिपोर्ट ले लो. उद्भव सन ऑफ़ आनंद एंड तपस्या.” आक्रोशित सा दिख रहा आनंद उछलता हुआ सा उस तक पहुंचा और लगभग झपटते हुए उसके हाथ से रिपोर्ट ली. तपस्या को साथ लेकर कंपाउंड से बाहर एक खाली जगह में जाकर उसकी नज़रों ने तेज़ी से रिपोर्ट को स्कैन करना शुरू कर दिया. “डी.एन.ए. मैच रिपोर्ट फॉर उद्भव (8) एंड आनंद (34)”. उसके नीचे रिपोर्ट की डिटेल्स थी और लिखा था “डी.एन.ए. मैच्ड, पैटरनिटी कनफर्म्ड”.
आनंद के चेहरे के भाव इतनी तेज़ी से बदले जितनी तेज़ी से गिरगिट रंग बदलता है. आँखों में चमक उभर आई. एकदम से तपस्या की और देखते हुए बोला, “ओ तपस्या, देखो. सब ग़लतफ़हमियाँ दूर हो गई. उद्भव मेरा ही खून है. मैं ही उसका पिता हूँ. ओह तपस्या, मैं कितना खुश हूँ, ब्यान नहीं कर सकता.”
तपस्या का हाथ पकड़ कर बोलता ही चला गया, “अब मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं. पहले भी नहीं थी. पर मैं क्या करता. लोग क्या-क्या बोलते थे तुम्हारे और तुम्हारे कलीग अरुण के बारे में. उसपर उद्भव की शक्ल भी कहाँ मिलती हैं मुझ से. कोई भी होता तो यही करता. खैर अब सब पहले सा हो जाएगा. तुमने मेरा विश्वास फिर पा लिया है.”
तपस्या ने अरुण की ओर देखा. उस की आँखें भर आई. याद आ गया पिछले डेढ़ साल का सारा घटनाक्रम. सब पहले सा कैसे हो सकता है!! उसके चेहरे पर एक फीकी मुस्कान आई. आनंद की और देखते हुए कहने लगी,
“आनंद, पति-पत्नी का सम्बन्ध विश्वास का होता है और पिता-पुत्र का आस्था का. आज तुमने दोनों को सिद्ध तो किया किन्तु हमेशा के लिए खो दिया है. मैं जा रही हूँ. डिवोर्स पेपर तुम तक पहुँच जायेंगें.”
और आनंद से हाथ छुड़ा पर वो दृढ़ क़दमों से सामने की सड़क पर बढ़ गई.
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(2). आ० मोहम्मद आरिफ़ जी
विश्वास
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" ये क्या है बच्चों ?" शकूर चाचा ने बड़े आश्चर्य से बच्चों के
हाथ से लिफाफें लेते हुए कहा ।
" कुछ नहीं , थोड़ी-सी मदद है ।" बच्चों का लीडर सौम्य मुस्कुराकर बोला ।
" मगर क्यों ?" शकूर चाचा अभी भी आश्चर्य में थे ।
" पिछले दिनों हमारे मोहल्ले में कुछ शरारती तत्वों ने दंगा करवा दिया जिसमें आपका घर भी चपेट में आ गया था । फिर दंगाइयों ने देवशरण जी के घर में लूटपाट की थी । हम मोहल्ले के सभी बच्चों ने दंगा पीड़ितों की मदद करने की ठानी और 'रिलीफ फॉर रिओट विक्टिम बाय चिल्ड्रन ' युनियन बनाई । सभी ने मिलकर चंदा इकट्ठा किया । समाज के सभी वर्गों से चंदा माँगा । सभी ने बढ़चढ़कर चंदा दिया । अब हम देवशरण जी को लिफाफा देने जा रहे हैं ।"
" मगर जाते-जाते यह तो बताते जाओ बेटा कि तुम यह सब किसलिए कर रहे हो ?" शकूर चाचा ने ऐनक नाक के ऊपर सरकाते हुए कहा ।
" कुछ नहीं चाचा , हम चाहते हैं कि सभी धर्मों के लोगों के बीच विश्वास बना रहे । हमारी आस्था को कोई डिगा न सकें ।" सौम्य कहते हुए आगे बढ़ गया ।
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(3). आ० महेंद्र कुमार जी
पास्कल का दांव
"आओ पास्कल आओ, मुझे तुम्हारा ही इन्तज़ार था।" भगवान ने पास्कल को देखते ही कहा।
अब से पहले, उस वक़्त जब पास्कल ज़िन्दा था। "ईश्वर को तर्कबुद्धि द्वारा नहीं जाना जा सकता।" पास्कल ने गहरी सांस लेते हुए कहा।
"अब?" पास्कल असमंजस में था। "जब ईश्वर का ज्ञान नहीं हो सकता तो उसे मानने की क्या आवश्यकता है?" वह नास्तिकता की तरफ़ बढ़ ही रहा था कि तभी उसे ख़्याल आया। "ज़रूरी तो नहीं कि जिस चीज़ को न जाना जा सके उसका अस्तित्त्व भी न हो?"
अँधेरी रात में आसमान तारों से जगमगा रहा था। पास्कल ने ऊपर की तरफ़ देखा और कहा, "क्या हो यदि ईश्वर का अस्तित्त्व हुआ तो?" वह दो राहे पर खड़ा था। "मैं नास्तिक बनूँ या आस्तिक?"
काफी देर तक सोचने के बाद उसने कहा, "चाहे मैं नास्तिक बनूँ या आस्तिक दोनों ही सूरतों में दो ही स्थितियाँ सम्भव हैं : या तो ईश्वर होगा या फिर नहीं होगा।" उसे दो में से एक पर दांव लगाना ही था।
उसने पहली स्थिति का मूल्यांकन किया। "यदि ईश्वर न हो तो नास्तिक बनना फ़ायदेमन्द होगा और आस्तिक बनना नुकसानदायक।" और फिर दूसरी स्थिति का। "यदि ईश्वर हो तो आस्तिक बनना फ़ायदेमन्द होगा और नास्तिक बनना नुकसानदायक। पर किसमें ज़्यादा नुकसान होगा?" शतरंज के मंझे हुए खिलाड़ी की तरह पास्कल हर सम्भावना पर विचार कर रहा था।
"ईश्वर के न होने से कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ेगा पर यदि वह हुआ तो मुझे लम्बा नुकसान उठाना पड़ सकता है क्योंकि उसकी सत्ता को ठुकराने के लिए वो मुझे नर्क़ में भेज देगा। इसलिए नास्तिक बनना ज़्यादा नुकसानदायक है।" इस तरह पास्कल ने लाभ के आधार पर अपना दांव चल दिया।
भगवान के सामने खड़े पास्कल को अपनी बुद्धि पर गर्व हो रहा था। वह जानता था कि उसका दांव चल गया है।
मगर तभी। "नर्क़ में ले जा कर इसका वो हाल करो कि इसकी रूह कांप उठे।" भगवान ने उन यमदूतों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा जो पास्कल को पकड़ कर ले आये थे।
पास्कल चौंक गया। "ये क्या भगवन्? मैंने तो आजीवन आपकी सेवा की है। मुझे तो स्वर्ग मिलना चाहिए?"
"तुम्हें क्या लगा था, मैं तुम्हारी चालाकी पकड़ नहीं पाऊँगा?" भगवान ने पास्कल की तरफ़ घूर कर देखा और कहा। "लोग दुनिया को धोखा देते हैं और तुमने मुझे धोखा देने की कोशिश की?"
यमदूत उसे घसीटते हुए ले जा रहे थे और वो ज़ोर-ज़ोर से चीख़ रहा था। "ये गलत है। मेरे साथ धोखा हुआ है।"
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(4). आ० तस्दीक अहमद खान जी
अंध विश्वास
आज़ाद सिंह रोज़ की तरह सवेरे सवेरे बीवी के साथ वरानडे में पड़ी कुर्सियों पर बैठते ही बहू को आवाज़ देने लगे, "बहू चाय ले आना"l
बहू फौरन दो कप चाय देकर अंदर चली गई l
चाय की चुस्की लेते हुए पत्नी आज़ाद सिंह से कहने लगीं," तीन साल हो गए बहू घर का चराग नहीं दे पा रही है, सोचती हूँ अगले महीने बाबा हरीराम के आश्रम में सत्संग है, आप कहें तो बहू को उनके पास लेजा कर आशीर्वाद दिलवा लाऊँ l
आज़ाद सिंह बीच में ही बोल पड़े," नहीं, नहीं, आज कल के बाबाओं का कोई भरोसा नहीं, आए दिन बलात्कार के केस में बाबा पकड़े जा रहे हैं, बाबा हरीराम पर भी शिष्या के साथ बलात्कार की इन्क्वायरी चल रही है "l
पत्नी ने फ़िर आस लगाते हुए कहा," पड़ोस में मोहन की बहू के औलाद उनके आशीर्वाद से ही हुई है "l
आज़ाद फ़िर दिलासा देते हुए बोले," यह सब तुम्हारा वहम है, सिर्फ़ भगवान पर भरोसा रखो, बहू का तो इलाज चल ही रहा है "l
आज़ाद सिंह पत्नी को समझा रहे थे कि इतने में बाहर से अख़बार वाले ने वरानडे में अख़बार फेंक दिया l आज़ाद सिंह ने जैसे ही पढ़ने के लिए अख़बार उठाया, पहले पन्ने पर छपी ख़बर देख कर चकित हो गए और फ़ौरन पत्नी से बोले," बाबा हरीराम को पुलिस ने शिष्या के साथ बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार कर लिया?" l
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(5). आ० कनक हरलालका जी
समर्पयामि
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बाढ़ राहत दल के स्वयं सेवक एक छत पर फंसे परिवार को निकालते वक्त किसी भी तरह ७७ वर्षीय माताजी को चलने के लिए राजी न कर पा रहे थे ।
" अरे बचवा ,तुम समझत काहे नहीं हो। हम छोटे से रहे जब बियाह कर आये थे । ये रजुवा छोट सा रहा जब वो हमको छोड़ कर चले गए थे । पर हम एकहो दिन उनको छोड़ कर नहीं रहे। रोज भिनसारे उनके फोटो को परनाम कर हमार दिन सुरू होत है ,अउर उनके पांव छू कर सुतल रहत हैं । वो तो अचानक से पानी घुस आया और हम सब छत पर आ गइले। धड़धड़ा के पानी आया रहा सो संदूक खोल नहीं सके ।अब हम ई बाढ़ में उनको अकेले छोड़ कर कबहूँ ना जाई ....!! "
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(6). आ० डॉ टी आर सुकुल जी
त्रिकूट कालसर्प दोष
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ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक - 41 के सफल आयोजन, कुशल संपादन एवम त्वरित संकलन हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी ।
आदरणीय मेरा नम्र निवेदन है कि मुझे मेरी लघुकथा “काठ की हाँडी” जो कि शीर्षक क्रमाँक- 9 पर स्थापित है, उसमें आंशिक संशोधन के साथ निम्न रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान करने की कृपा करें ।
काठ की हाँडी - लघुकथा –
सुबह सुबह छतरपुर के ग्राम प्रधान तोताराम जी अपनी बैठक में अपने सहयोगियों के साथ बैठे ताज़ा राजनैतिक माहौल पर चर्चा कर रहे थे कि तभी कोमल सिंह जी इलाके के कुछ गणमान्य लोगों के साथ पधारे।
"ओहो भाई जी, हमारे तो भाग जाग गये। आज तो बड़े बड़े नेता लोग पधारे हैं। बैठो भाई, चाय पानी का जुगाड़ करता हूँ"।
"अजी चौधरी साब, तक़लीफ़ मत करो,चाय पानी की कोई दरकार नहीं है।
"जैसी आपकी मर्जी।कोई खास मक़सद"?
"बात तो खास ही है। आपको तो पता ही होगा कि अपने लीलाधर जी को इस बार हमारी "देश भक्त पार्टी" ने सांसद के लिये टिकट दिया है"।
"सुना तो था"।तोताराम जी मरी सी आवाज में बोले|
"क्या बात है, चौधरी जी, कुछ ठंडे से बोल रहे हो"?
"देखो भाई, असली बात तो ये है कि माहौल आपकी पार्टी के खिलाफ़ है। लोगों की आस्था खत्म हो गयी”|
"कैसी बात कर रहे हो चौधरी जी? अखबार, रेडियो, टी वी, सब पर तो हमारी पार्टी छायी हुई है"।
"ये सब तो आपके ज़र खरीद गुलाम हैं। आपके ही गीत गायेंगे"।
"आम जनता तो इन्हीं पर यक़ीन करती है"।
"किसी जमाने में करती थी। अब नहीं। पिछले चुनाव में आपने इसी मीडिया के भरोसे लोगों को उल्लू बनाकर चुनाव जीत लिया था। पर इस बार वह चाल कामयाब नहीं होगी"।
"चौधरी जी, ऐसा नहीं है। कितने काम हुए हैं। आप तो देख ही रहे हो"।
“जी बिल्कुल, देख भी रहा हूँ, और सुन भी रहा हूं| सब झूठे प्रचार हैं”।
"यह बात तो सच नहीं है चौधरी जी"
"पिछले चुनाव के दौरान आपकी पार्टी ने जो वादे किये थे, एक भी पूरा नहीं किया।आपका नेता एक राष्ट्रीय स्तर का नेता होकर भी एक ट्रेड यूनियन लीडर की भाषा बोलता है| कोरी गप्पें हाँकता है। तुम्हारी पार्टी की साख सबसे ज्यादा तो इसकी वज़ह से बिगड़ी है।"।
"अरे भाईजी, यही तो हमारा स्टार प्रचारक है। इसकी बदौलत तो हमें सत्ता मिली है"।
"देखो भाई, साँची बात तो ये है कि अब इस पार्टी से मेरा भी विश्वास उठ गया। मुझे तो माफ कर दो जी"।
"आपसे तो बड़ी उम्मीद है चौधरी साब।निराश मत करो| बस इस बार और मदद कर दो”।
"भाई जी, काठ की हाँडी चूल्हे पर केवल एक ही बार चढ़ सकती है"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
यथा निवेदित, तथा प्रस्थापित।
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।
मुहतरम जनाब योगराज साहिब , ओ बी ओ लाइव लघुकथा गोष्ठी अंक 41 के त्वरित संकलन और कामयाब निज़ामत के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं I
वेब साईट ओ.बी.ओ. अर्थात 'ओपन बुक्स ऑनलाइन' साहित्य के क्षेत्र में किसी परिचय की मोहताज नहीं है। अन्य सभी साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त ओ.बी.ओ. के प्रधान संपादक (आदरणीय योगराज प्रभाकर जी) के संचालन में विशेष तौर पर यहाँ लघुकथा के प्रोत्साहन के लिए महीने के अंतिम दो दिन एक लघुकथा का लाइव आयोजन किया जाता है जिसमें किसी एक विषय को देकर उस पर एक लघुकथा लिखने का आह्वान किया जाता है। ये आयोजन तीन वर्ष पूर्व ३०/०४/२०१५ से शुभारम्भ होने के बाद से निरंतर पिछले ४० आयोजनों के साथ अपनी सफल उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। लघुकथा विधा पर हिंदी साहित्य जगत में इस तरह के होने वाले आयोजनों में यह आयोजन अपनी तरह का अकेला आयोजन है जो लघुकथाकारों को प्रोत्साहित करने के अपने लक्ष्य में निरंतर लगा हुया है और निस्संदेह लघुकथा विधा के क्षेत्र में एक मील का पत्थर भी साबित हुआ है। इस बार अगस्त की बीती ३० और ३१ तारीख को ४१ वें आयोजन का विषय रखा गया था "आस्था"।
आस्था एक ऐसा विषय है जिसे किसी सीमित भाव में नहीं बांटा जा सकता, आयोजन में आई लघुकथाएं भी आस्था के इन्हीं अलग-अलग भावों को व्यक्त करने का प्रयास कर रही है। बेशक इस आयोजन में आई सभी लघुकथाएं पूरी तरह से साहित्यिक अथवा लघुकथा मानको पर सम्पूर्ण सफलता दर्ज करने का दावा नहीं कर सकती लेकिन निराश भी नहीं करती है।बरहाल इस बार की सभी २२ रचनाओं का परिचय यदि एक-दो पंक्तियों में दिया जाए तो वह मेरे विचार में कुछ इस तरह ही होगा।
१. आयोजन की पहली कथा "तपस्या" (अजय गुप्ता) आपसी संबंधो में शक और अविश्वास के संदर्भ में आस्था का रंग दिखाती है. पत्नी के सम्मान को कठघरे में खड़ा करना फिर उससे सब कुछ सामान्य ढंग से लेने की आशा करना क्या उचित है, इसी रचना को प्रभावी ढंग से दिखाने का प्रयास करती है लघुकथा तपस्या।
२. आपसी सद्भावना के लिए बच्चों द्वारा आगे आने के परिद्रश्य को दिखा रही रचना "विश्वास" (मोहम्मद आरिफ) सहज ही आस्था के सुंदर पक्ष को सामने रखती है।
३. आस्था के संदर्भ में सर्वशक्तिमान के प्रति सच्ची श्रद्धा और पूजा क्या होती है? क्या परमात्मा की अदालत में भी उसका निर्णय हमारी सोच के अनुसार होता है। इसी विचारधारा को 'पास्कल के सिद्धांत' से जोडकर कथ्य में ढली रचना "पास्कल का दांव" (महेंद्र कुमार) इस आयोजन की बेहतरीन रचनाओं में एक है।
४. वर्तमान में घटित हो रहे नित नए 'बाबाओं' की खबरों से जुड़ी घटनाओं पर आधारित, आस्था के अंध-आस्था रूप को सामने रखने का प्रयास करती है लघुकथा "अंध विश्वास" (तस्दीक अहमद खान)।
५. अपनी परम्पराओं और अपने प्रियजनों (विशेषकर जीवन साथी ) के प्रति व्यक्ति कितना अधिक मोह और आस्था रखता है, इस बिंदु को दिखाने का प्रयास करती है रचना 'समर्पयामि' (कनक हरलालका)।
६. कितनी विचित्र मानसिकता है मनुष्य की, कि वह आस्था और अंधविश्वास के वशीभूत होकर तो अपना धन दुसरों को देने के लिए तैयार हो जाता है लेकिन एक जरुरतमन्द और मेहनती व्यक्ति को उसकी पूरी कीमत देने में कई बार सोचता है। इसी भाव को दिखाती है लघुकथा "त्रिकूट कालसर्प दोष" (टी आर शुक्ल)।
७. प्रदत विषय को बड़ी मुखरता से उजागर करती है लघुकथा "आस्था" (विनय अंजु कुमार)। आस्था के नाम पर हो रही शरारतें, महिलयों के साथ छेड़खानी और वर्तमान में नारी से अधिक एक पशु के सम्मान में लगे, मानव की मानसिकता की सुंदर बानगी है ये रचना।
८. लघुकथा "नुमाइश" (प्रतिभा पाण्डेय) में आस्था के नाम पर होती दिखावेबाज़ी और आडंबर रचने वाली मानसिकता पर अच्छा प्रहार किया गया है।
९. वर्तमान राजनीति परिदृश्य के संदर्भ में रची गयी रचना "काठ की हाँडी" (तेजवीर सिंह) चुनी गई सरकार पर विश्वास-अविश्वास के प्रश्न को सहज ही सामने रखना चाह रही है।
१०. आस्था के साथ-साथ पूरा विश्वास भी हो तो दुआएँ जरुर कुबूल होती हैं, इस बात को कहने का एक प्रयत्न है लघुकथा "सार्थक हुई दुआ" (बबिता गुप्ता)।
११. जब हम किसी के प्रति आस्था रखते हैं तो क्या वह सम्पूर्ण होती है या केवल एक औपचारिकता निभाने की बात होती है। विश्वास या आस्था शब्द की व्याख्या करने का प्रयास करती है लघुकथा "आस्था की संपूर्णता" (विरेंदर वीर मेहता)
१२. घर अलग, दर अलग, भाषा अलग, क्षेत्र अलग फिर भी जीवन मूल्यों के प्रति आस्था एक जैसी! इस बात को मुखरता से दिखाती है रचना "आस्था से भीगा मन" (आशिष श्रीवास्तव)।
१३. नर में ही नारायण बसते हैं, इस आस्था का सुंदर उधाह्र्ण सामने रखती है लघुकथा "इंसानियत" (बरखा शुक्ल)।
१४. ये तो सभी जानते है कि समय अपनी गति से सारे कार्य करता है लेकिन फिर भी मानव सर्वशक्तिमान ईश्वर पर, (चाहे वह किसी भी नाम से पुकारा जाए) अवश्य भरोसा करता है, या यूँ कहे कि परेशान-हताश व्यक्ति को सहज ही अपनी आस्थाओं पर विश्वास होने लगता है। 'कालखंड' पर ध्यान न दे तो, मनुष्य की इसी आस्था को दिखाने का अच्छा प्रयास, लघुकथा "विश्वास" (मुजफ्फ़र इक़बाल सिद्दीकी)।
१५. वर्तमान राजनैतिक माहौल को केंद्र बिन्दु बनाती और विभिन्न पक्षों के बीच जनता के विश्वास और सोच की विवेचना करने का प्रयास कर रही है रचना "भोलापन या बड़बोलापन"(शेख शहजाद उस्मानी)।
१६. जब कोई व्याक्ति एक जिम्मेदार नागरिक होने का दायित्व निभाने का प्रयास करता है तो क्या उसे सकारत्मक सहयोग मिल पाता है? इस प्रश्न को उठाने का प्रयास करती है लघुकथा "विश्वास की विवशता" (अर्चना त्रिपाठी)।
१७. धार्मिक यात्रायें हमेशा से आस्था और अंधविश्वास के बीच खड़ी नजर आती रही है समाज में, इसी कथ्य पर बुनी गयी है कथा "आस्था" (डॉ विजय शंकर) कथा सुंदर ढंग से इस बात को दिखाने का प्रयास करती है।
१८. कभी-कभी आस्था भी दवाई का कार्य कर देती है क्या....? इसी बात को रचना "स्वास्थ्य" (ओमप्रकाश क्षत्रिय) में दिखाने की कोशिश की गयी है। शायद कहा जा सकता है कि आस्था भी किसी दवाई से कम नहीं होती यदि इसे अंधविश्वास की परिधि से दूर रखा जाए।
१९. हमारे समाज में एक बहुत बड़ी विसंगति ये है कि हम अपने पक्ष को सदैव सही समझते है और दुसरे के पक्ष को उसकी दृष्टि से कभी देखना ही नहीं चाहते। इसी बात को बेहतरीन तरीके से रखने का सुंदर प्रयास हुआ है लघुकथा "आस्था के चक्रव्यूह" (सीमा सिंह) में। प्रदत्त विषय आस्था को एकदम नए तरीके से परिभाषित किया गया है इस लघुकथा में।
२० . आतंकवाद बनाम जिहाद, जैसे ज्वलंत मुद्दे पर प्रस्तुत लघुकथा "दोराहे के मोड़ पर" (योगराज प्रभाकर) संवाद शैली में बेहतरीन ढंग से कथित जेहाद, आपसी नफरत, और दहशत की राजनीति का वास्तविक रूप सामने रखती नजर आती है। लघुकथा का अंतिम पंक्ति //.....तो कम-से-कम इतनी तसल्ली तो रहेगी कि अपने वतन में जाकर मरे हैं।"// आस्था के बहुत उम्दा रंग को हमारे सामने रखती है।
२१. राजनीतिक इतिहास में एक वोट पर गिरी सरकार के घटे घटनाक्रम को आधार बना कर लिखी गयी रचना "आस्था" (मनन कुमार ) सहज ही आस्था को एक और रंग दिखाने का प्रयास करती है।
२२. आयोजन की अंतिम रचना 'सहवास' (नयना(आरती)कानिटकर) में पति-पत्नी के आपसी रिश्तों के जुड़ाव में आस्था कितनी गहरी हो जाती है, इस कथ्य को बहुत ही प्रभावी ढंग से दिखाने का प्रयास किया गया है।
उपरोक्त पंक्तियाँ न तो आयोजन में शामिल रचनाओं की समीक्षा है और न ही इन रचनाओं के गुण या दोषों के बारें में कुछ कहा गया है, यहाँ केवल 'आस्था' विषय पर आयोजन में शामिल रचनाओं का एक परिचय देने का प्रयास किया गया है। अत: अनंथ्या न लें........ सादर धन्यवाद।
बेहतरीन पहल, बेहतरीन विश्लेषण। हार्दिक आभार मुहतरम जनाब वीरेंद्र वीर मेहता साहिब।
हार्दिक आभार भाई शेख शहजाद उस्मानी जी, आपके स्नेहिल शब्दों के लिए... सादर
वाह वाह वाह! आनंद आ गया भाई वीर मेहता जी . कमाल की समीक्षा की है.
तहे दिल से आभार आदरणीय भाई जी, सादर प्रणाम स्वीकार करें.... सादर
शानदार समीक्षा और सार्थक पहल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता जी. आपके परिश्रम को नमन. सादर.
आ. भाई जी लघुकथा गोष्ठी अंक ४१ के आयोजन हेतु बधाई. मैं जानती हूँ मैं बडी देर से आपको बधाई दे रही पर....
मेरा नम्र निवेदन है कि मुझे मेरी लघुकथा “सहवास” जो कि शीर्षक क्रमाँक- २२ पर स्थापित है, उसे संशोधन के साथ निम्न रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान करें ।
"सहवास"
दो हफ़्ते से ज्यादा हो गये हैं उन्हें आय.सी.यू. में भर्ती हुए। बुढापा, डॉयबिटिज, ब्लडप्रेशर सबने एक साथ जोर मार दिया है। वेंटिलेटर पर सारे शरीर में नलियाँ ही नलियाँ। सिर्फ दस मिनट बैठने देती है सिस्टर। मैं भी तो बुढा गई हूँ। थक जाती हूँ काम करते-करते। पचास साल का साथ है उनका।अकेले कैसे छोड दूँ! आज बेटा-बेटी भी आ गये हैं, सहारे के लिए। उनकी भी भाग-दौड चल रही है। ये एक्सपर्ट वो एक्सपर्ट....
अकेलेपन की कल्पना से मैं भी भयभित हो जाती हूँ कभी-कभी। कई दिनों से ठीक से खा भी नहीं पा रही हूँ।
वे भी ये जानते हैं कि मैं उनके बगैर कभी अकेले कुछ नहीं खाती। हमेशा नाराज होते रहते थे, "राधा, तुम सुनती क्यों नहीं! मेरा काम ही ऐसा है। देर-सबेर हो ही जाती है। तुम वक्त पर खा लिया करो। वर्ना बाद में बिमारियाँ घेर लेंगी तुम्हें।"
पर मैं जानती थी कि मैंने खाना खा लिया तो वे खुद के साथ लापरवाह हो जाएँगे......।" फिर साथ ही खाना हमारे जीवन का हिस्सा बन गया था।
मैं अपने विचारों में मगन थी। बेटा-बेटी और डॉक्टर साहब कब आकर मेरे समीप खडे हो गए, पता ही नहीं चला।
वे तीनों अंग्रेजी में आपस में कुछ बातें कर रहे थे पर मेरा ध्यान उस ओर नहीं था। लेकिन "अब वेंटिलेटर हटा देते हैं...." जैसे कुछ शब्द जरुर मेरे कानों तक पहूँच गये थे।
"माताजी ! अब आप घर जाईए। पिछले कई दिनों से आप यहाँ हैं। बच्चें हैं अब यहाँ पर। आप थोडा आराम कर किजिए और हाँ! लौकी का सूप बनाकर भेजिए पेशेंट के लिए।" डॉक्टर साहब कहते हुए बाहर निकल गये।
"चलो माँ ! चलते हैं.....भैया है यहाँ पर।" शिनू मेरा हाथ पकडकर उठाते हुए बोली।
मैं अनमनी-सी उठकर चल दी पर मेरा मन वहीं छूट गया।
घर आकर नहाया, खाना खाया, थोडा और सूप बनाकर बेटी से जिद करने लगी, "अब चलो भी फिर से अस्पताल। तुम्हारे पापा इतने सालो में कभी.....दो घन्टे गुजर गए हैं हमें घर आए।
"मम्मा! आप थोडा आराम कर लेती तो... मैं ड्रायवर के साथ सूप....." शिनू ने कहा।
"तो तु रहने दे। तू आराम कर ले। मैं अपने से ही निकल जाऊँगी।" मैनें उससे कहा और बाहर निकलने लगी तभी....
"मम्मा! मम्मा! रुको तो। भैया का फोन....." मगर मैं कहा सुनने वाली थी।
"तुमने मुझे जबरन खिला दिया। पापा वहाँ भूखे बैठे है।" थर्मस उठाकर मैं बाहर निकलने को हुई।
गेट पर पडौसी शर्मा जी और... को देखते ही धडकन बढ गई।
"शिनू! शिनू! मैं ना कहती थी वो मेरे बिना न खा पाएंगे....नहीं---नहीं ...."
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