आदरणीय साथिओ,
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आपको रचना पसंद आ गयी बस मेरी मेहनत सफल हो गई।आपका हार्दिक आभार आ. योगराज प्रभाकर जी
बहुत अच्छी विषय पर आपने लघु कथा लिखी कई बार बच्चे अपने कैरियर को लेकर सही निर्णय नहीं ले पाते तो माँ बाप का मार्गदर्शन उनको सही राह दिखाता है जो वो आगे जाकर समझ भी पाते हैं इस कहानी में वही तथ्य उभर कर आया है
बहुत बहुत बधाई अर्चना जी
आपका हार्दिक आभार रचना पर उम्दा प्रतिक्रिया देने के लिए।सदैव आपकी प्रतिक्रिया एवं मार्गदर्शन हेतु प्रतिक्षारत रहूंगी आ. राजेश कुमारी जी
प्रद्दत विषय पर सुंदर रचना हुयी है अर्चना त्रिपाठी जी, हालांकि प्रस्तुति अपनी बात कहने में सफल हुयी है फिर भी अंत में कथा एक ऐसे बिन्दु पर ठहर जाती है, जहां से दो नजरिये से देखा जा सकता है.... आपने इसे एक माता पिता के नजरिये से देखना चाहा है. जो सटीक भी है, लेकिन फिर भी हो सकता है कुछ विचार इसके विपरीत भी हो, बरहाल अच्छी रचना के लिए बधाई स्वीकार करें अर्चना जी
सही निष्कर्ष निकाला अपने आ. वीर जी ,दरअसल आज एक ट्रेंड चल गया हैं बच्चो की आजादी और उनके अनुसार कैरियर चयन को समर्थन देने का।लेकिन कभी कभी माता-पिता की विवशता भी होती हैं जिसमे चाहकर भी वे बच्चे का साथ नही दे पाते।और दोषी करार दिए जाते हैं। हार्दिक धन्यवाद आपका साकारात्मक टिप्पणी के लिए
बदलते परिणाम
कुछ रोज़ से महेंद्र उदास-सा था न घर और न ही दफ्तर में उस का मन लग रहा था। उसे पता नहीं लग रहा था। आगे जब कभी साहिब मुझे उदास देखता तो कमरे में बुला कर कहता, " बता क्या बात है, पैसे चाहिए और साहिब का हाथ जेब की तरफ जाता और वह पैसे निकाल कर दे देते। "
पर इस बार उसे ये समझ नहीं आ रहा था कि साहिब इस बार मेरी तकलीफ को समझते हुए भी अनजान क्यूँ बन रहें हैं, उस को भी लगा कि इतनी बड़ी रकम का जोखिम और कोई नहीं उठाएगा।
महेंद्र को पता नहीं चल रहा था कि अब वह क्या करें, उस के लिए इतनी बड़ी रकम के लिए और कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।
पिछली बार पैसे देते हुए साहिब ने कहा था की, "मुझे पता नहीं चलता कि क्यूँ इतने पैसे फक्शन पर खर्च करते हो जितने पैसे तूने उस दिन खर्च किया वह तेरी तीन महीने की तनख़ाह के बराबर थी, बता ये हिसाब किताब आप कैसे पूरा करोगे और उम्र भर करजाई बने रहोगे। "
इस बार ये बात बताने पर भी की उसने माँ की वर्षीय मनानी है साहिब दिल नहीं पसीजा था।
शाम ढलने को थी, सभी कमरों को ताला लगा दिया गया, साहिब अपने कमरे में बैठा अभी काम कर रहा था।
महेंद्र ने धीरे से कमरे में झाँका।
"महेंद्र क्या बात है?"
सर जी, कुछ नहीं
"बात तो है, मगर इस बार तेरी बात मेरे दिल तक नहीं पहुंच रही, इस को मेरी सोच ने पकड़ लिया है। "
दिल से बात दिमाग तक आ गई है,। सोचता हूँ दिल के साथ दिमाग तक का सफर तू भी करे, इस लिए मैं इस बार तेरा मसला हल नहीं कर पाऊँगा।"
साहिब ने बैग पकड़ा और बाहर को चल पड़ा।
तब महेंद्र के मन में पहले तो गुस्सा आया मगर बाद में उस ने खुद को कहा, "क्यूं न वह साहिब व इन दकियानूसी रवायतों का साथ व सहारा भी छोड़ दूँ, और ताला लगाने लगा ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
विषयांतर्गत एक नये मुद्दे पर बढ़िया रचना के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल साहिब। लेकिन अभी इस पर और समय देने व सम्पादन की आवश्यकता मुझे महसूस हो रही है। प्रथम पुरुष के सर्वनामों और पात्र नामों के साथ स्पष्टता की आवश्यकता लगती है।
बरसी जैसी परम्पराओं को बेशक मनाना चाहिए लेकिन हद की हद की चादर में रहकर।आज इन परम्पराओं के नाम पर कुछ ज्यादा ही दिखावा करने लगे हैं।बढिया विषय उठाया हैं आपने। हार्दिक बधाई आपको आ. मोहन बेगोवाल जी
परम्पराओं को निभाने के नाम पर फिजूलखर्ची के विरुद्ध सन्देश देती अच्छी लघुकथा। प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें आदरणीय मोहन बेगोवाल जी।
विषयांतर्गत बहुत ही बेहतरीन लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी ।
फिजूलखर्ची जैसा विषय बढ़िया उठाया है आपने, प्रस्तुतीकरण पर और मेहनत की जरुरत है. बहरहाल बहुत बहुत बधाई आपको आ महान बेगोवाल जी इस रचना के लिए
लघुकथा का कथानक बहुत ही उत्तम है लेकिन ट्रीटमेंट में कमजोर संप्रेषणीयता व भाषा तथा ढीले शिल्प के कारण पूरा प्रभाव नही छोड़ पाई। लेकिन रचना से उभरा संदेश प्रदत्त विषय से न्याय कर रहा है जिस हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है।
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