आदरणीय साथिओ,
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक 53 में आप सबका हार्दिक स्वागत है.
हार्दिक धन्यवाद सर आपका
अधिकारी के अधिकार
वह एक सरकारी अधिकारी थे, साहिबियत में डूबे, अपने ऑफ़िस में बैठे दैनिक प्रकरण तेज़ी से निपटा रहे थे। बगल में उनका बाबू बैठा उनके सामने फ़ाइल रखता और याचक को बुलाता, वे सम्बंधित याचक से कुछ पूछते, किसी से मुस्करा के बात करते, किसी को हड़काते, किसी को डराते, किसी किसी को डाँट के भगा देते। उनके फ़ैसले बाबू के इशारे पर होते थे। जिससे मुस्करा कर बात करते उससे उन्हें मुस्करा कर ही बात करने के संकेत बाबू से मिल जाते थे। उसका काम हो जाता था वह ख़ुशी-ख़ुशी आता और ख़ुशी-ख़ुशी चला जाता था। शेष सभी परेशान, उत्पीड़ित अनुभव करते हुए अंततः चुपचाप चले जाते थे।
उन्हीं के कमरे में पीछे की एक कुर्सी पर बैठे एक बुज़ुर्ग सज्जन यह सब देख रहे थे। जब उनकीं फ़ाइल का नंबर आया तो वे आगे बढ़ कर अधिकारी महोदय के सामने खड़े हुए। अधिकारी ने उनसे कुछ आवश्यक कुछ अनावश्यक सवाल किए, शायद बाबू से उन्हें पर्याप्त संकेत नहीं मिले थे। बुज़ुर्ग को उनके कुछ प्रश्न अटपटे लगे और उन्होंने सीधे से अधिकारी से कहा, “आप मेरी फ़ाइल देखें, सभी ज़रूरी काग़ज़ लगे हुए हैं, आप उन्हें देखें और निर्णय लें।”
इसपर अधिकारी महोदय भड़क उठे, बोले, “मैं अधिकारी हूँ, मुझे आपसे कुछ भी पूछने का अधिकार हैं, मैं चाहूँ तो आपकी एप्लिकेशन रिजेक्ट कर दूँ! आपकी फ़ाइल निरस्त कर दूँ, उसे इतना दबा दूँ कि सात जन्म कोई उसे ढूँढे तो ढूँढ नहीं पाए, आप मुझे समझते क्या हैं, आपको मालूम है, अधिकारी क्या होता है?”
बुजर्ग महोदय पूर्ववत शांत बने रहे और बड़े इत्मीनान से बोले, “अधिकारी का मतलब मैं यह समझता हूँ कि आपको यह दायित्त्व सौंपा गया है कि इस ज़िले के, केवल इस ज़िले के इन कार्यों को इस कार्यालय में नियमों का पालन करते हुए, निर्धारित समय में आप निस्तारित करें। न कोई काम आप ग़लत होने दें, न ग़लत किसी को करने दें, न ख़ुद ग़लत करें, आप यह देखें कि काम सही हो और सही ही हो। किसी भी याचक को अनावश्यक परेशान न होना पड़े, न वो आपको परेशान करे, न आपका कार्यालय उसे परेशान करे। आपके सारे अधिकार अपेक्षित कार्य को सही तरीके से, सही समय में करने के लिए हैं, उनमें आपकी स्वेच्छारिता कहीं नहीं है, न प्रत्यक्ष, न अप्रत्यक्ष। आप अपनी सेवा, नौकरी के अंतर्गत कुछ शर्तों के साथ कुछ कार्यों को करने के लिए अधिकृत किए गए हैं, आपके अधिकार असीमित नहीं हैं और न ही सदैव के लिए।”
अधिकारी महोदय हतप्रत रह गए, उन्होंने कुछ कहने के लिए मुँह खोला ही था कि वो बुज़ुर्ग सज्जन उनसे पहले ही बोल पड़े, “आपके पास कहने के लिए कुछ भी है ही नहीं, आपने मेरी फ़ाइल अभी तक देखी ही नहीं है, उसे देख लें और आपका जो भी नर्णय हो उसे डाक द्वारा मेरे घर के पते पर जल्द-से-जल्द भेज दें। मैं यहाँ इस काम के लिए नहीं आया था। मैं तो इसलिए आया था कि चलो इसी बहाने आप से मिल लूँगा। आज से पंद्रह वर्ष पूर्व मैं इसी पद से, इसी कुर्सी से, यहीं से रिटायर हुआ था। मेरे समय का कोई भी कर्मचारी अब यहाँ है नहीं शायद। मेरे समय में कार्यालय के निर्णय डाक द्वारा घर भेजे जाते थे, शक्ल देखकर नहीं लिए जाते थे। अधिकारी अपने अधिकारों का प्रयोग करते थे, हुकूमत नहीं करते थे।”
अधिकारी महोदय अपनी कुर्सी से उठकर खड़े हो गए, कुछ कहना चाहते थे, कुछ कह नहीं पाए, वह बुज़ुर्ग महोदय आराम से धीरे-धीरे बाहर निकल गए।
कमरे में एक अप्रत्याशित सन्नाटा रह गया था।
बढिया कथा , आज टेबल पर से फाइलों के ना सरक पाने पर इसी तरह का कठोर कदम उठाने की आवश्यकता हैं।हार्दिक बधाई आ. आपको
आदरणीय सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी , हार्दिक आभार एवं धन्यवाद , सादर।
आदाब। विषयांतर्गत पहली और बहुत बढ़िया कथानक व कथ्य पर बहुत ही भावपूर्ण, यथार्थपूर्ण रचना प्रविष्टि हेतु सादर हार्दिक बधाई जनाब डॉ. विजय शंकर साहिब। बड़े संवादों को छोटे कथनोपकथन में कहा जा सकता है मेरे विचार से।
आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी , आभार एवं बहुत बहुत धन्यवाद। आपने गंभीरता से रचना को पढ़ा और मान दिया , आपने जिस ओर इंगित किया है , वह स्वीकार है पर विवशता यह है कि वर्षों से हम अपने ही लोगों को सिखाते आ रहें हैं पर वे वह नहीं सीखते और न ही अपनाते हैं , वे वैसे ही काम करते हैं जैसे वे चाहते हैं , यही हमारे पिछड़ेपन का कारण है। अब तो सरकार भी ऐसे लोगो की छटनी करने की नीति अपना रही है। लोकतंत्र का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हर पदासीन व्यक्ति स्वेच्छाचारिता को ही अपना अधिकार समझ ले और पब्लिक पर गुर्राये। आशा है आप सहमत होंगे। सादर।
जी, शुक्रिया।
आदरणीय डाॅ.विजय शंकर जी बहुत बहुत मुबारकबाद विषय पर पहली व शानदार लघुकथा सादर।
आदरणीय आसिफ ज़ैदी जी , हार्दिक आभार एवं धन्यवाद , सादर।
कार्यालयों की कार्य प्रणाली का बहुत सही चित्रण किया गया है,लघुकथा का मध्य नसीहतों से बोझिल सा लगा. मूल्यों से अवगत कराता अंत सुखद है.
आदरणीय सुश्री आशा जुगरान , आपका आभार एवं धन्यवाद , आपने लघु -कथा को मान दिया। निवेदन करना चाहूँगा कि लघु -कथा में जो अंश आपको या किसी को बोझिल लग सकता है वही लघु -कथा का सार है। किसी कार्यालय में जहां ऐसे ही कार्य होते हों वहां सुधारात्मक परिवर्तन कैसे लाये जाएँ यह एक चिंतनीय विषय है। अतः इस अंश को कुछ विस्तार जान बूझ कर दिया गया है। आशा है आप सहमत होंगी। पुनः एक बार धन्यवाद , सादर।
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