परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 108वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है. इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब अहमद फ़राज़ साहब की ग़ज़ल से लिया गया है.
"मैं ने जिस हाथ को चूमा वही ख़ंजर निकला"
2122 1122 1122 22
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
(बह्र: बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़)
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 जून दिन गुरूवार को हो जाएगी और दिनांक 28 जून दिन शुक्रवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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आदरणीय समर साहब आपका आर्शीवाद मिला गजल सार्थक हुई । थाोड़ी देर हुई पर मुशायरे में हाजिरी दर्ज हो गई
आदरणीय रवि शुक्ला जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई क़ुबूल कीजिए
आदरणीय मुनीश तन्हा जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद । सादर
आदरणीय रवि शुक्ला सर जी एक अच्छी ग़ज़ल कहने के लिए बहुत-बहुत बधाईयां
आदरणीय सादर नमन। वाह जी वाह बेहतरीन मतला।
एक एक शेर बेहतरीन । बहुत अच्छी गिरह हुई है। दिली मुबारकबाद कबूल करें जी।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सुरेन्द्र इंन्सां जी । सादर
रवि शुक्ला जी बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई
जनाब रवि साहिब, बहुत ही उम्दा गज़ल हुई है मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
आज भी सोचते हैं ऐसा वो क्यूँकर निकला
जो बना फिरता था हमदर्द सितमगर निकला |
मेरे दुश्मन की ख़बर हो गयी है अब मुझको
मैं जिसे ढूंढ़ रहा था मेरे अंदर निकला |
लहरों ने पार लगाया है किनारे पे मुझे
था दुआओं का असर ऐसा मुक़द्दर निकला |
उनके चेहरे को कोई चाँद समझ बैठा है
लोग तस्दीक़ में निकले हैं कहाँ पर निकला|
मैंने तो फूल खिलाने की बहुत की कोशिश
ऐ मेरे यार तू पत्थर से भी बंजर निकला |
हूँ बहुत आज भी शर्मिंदा मेरे गुस्से पर
था निकलना किसी पर और किसी पर निकला |
बात अहमद की लगी मुझको तो अपने जैसी
"मैंने जिस हाथ को चूमा वही खंज़र निकला |
मौलिक अप्रकाशित
Dandmani nahak ji बहुत बहुत आभार
जनाब अनीस शैख़ साहिब आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
उनके चेहरे को कोई चाँद समझ बैठा है
लोग तस्दीक़ में निकले हैं कहाँ पर निकला'
ये शैर कथ्य और शिल्प की दृष्टि से कमज़ोर है ।
'हूँ बहुत आज भी शर्मिंदा मेरे गुस्से पर '
इस मिसरे को इस तरह कहना उचित होगा:-
'अपने ग़ुस्से पे बहुत आज में शर्मिंदा हूँ'
गिरह का मिसरा चुस्त नहीं है ।
समर कबीर साहब ग़ज़ल तक आने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, आपकी इस्लाह के अनुसार मैं कर लूंगा
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