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//ठीक हैं भाई यह आदमी ही कर सकता हैं, उल्लास के रंगो से झगडा."//..सच है .... सुन्दर रचना ,बधाई स्वीकार करें आदरणीय राजेन्द्र जी
तीन मूलभूत रंगों के द्वारा संयोजन से ही तो दुनिया के सारे रंग बनते हैं, उनके वार्तालाप से मानव द्वारा मन और प्राकृतिक रंगों से खिलवाड़ का बहुत सुंदर चित्रण हुआ है, आपकी इस लघुकथा में आदरणीय राजेन्द्र कुमार गौड़ भाई जी| कृपया सादर बधाई स्वीकार करें|
आदरणीय राजेन्द्र गौरजी, आपकी प्रस्तुति ने आश्वस्त किया है. हार्दिक धन्यवाद व बधाइयाँ
शुभेच्छाएँ
हार्दिक बधाई आदरणीय राजेंदर गौर जी !आपकी लघुकथा एक सुनहरे स्वप्न की तरह लगी!बहुत शानदार शब्द शैली से सज्जित!बेहतरीन प्रस्तुति!
प्रतीकों के माध्यम से गजब का कटाक्ष,बधाई आदरणीय।
अपना अपना रंग (लघु कथा )
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घमंड में चूर गेहूं का दाना बाली से बाहर मुंह निकालते ही अपना रंग दिखाना शुरू कर देता है / कभी कहता है मैं जन्नत के बाग़ से आया हूँ खुदा के बनाये लोगों के पेट भरता हूँ, मैं अगर न होता तो दुनिया भूखी मर जाती / गेहूं के दाने की ग़ुरूर भरी बातें सुन कर पौधे की जड़ में मौजूद पानी से नहीं रहा जाता , उसे नसीहत देता हुआ कहता है , मैं सारी दुनिया की प्यास बुझाता हूँ। ... तेरी क्या औक़ात है धरती के सारे पेड़ पौधों को मैं पालता हूँ / एक तरफ दाना और पानी अपना अपना रंग एक दूसरे पर जमा रहे थे और दूसरी तरफ खेत की मिट्टी दोनों की तकरार सुनकर मन ही मन मुस्करा रही थी /
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(मौलिक व अप्रकाशित )
महत्वपूर्ण ककौन लड़ाई हमेशा से चलती आई चलती रहेंगी...बधाई अछी कथा के लिए।
मोहतरमा सविता मिश्रा साहिबा , हौसला अफ़ज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया। ....
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