परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 114वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला"
2122 1122 1122 22
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
(बह्र: रमल मुसम्मन् मख्बून मक्तुअ )
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 नवंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 दिसम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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चाँद आया न कभी भोर का तारा निकला
दौर मुश्किल था बहुत कौन सहारा निकला।१।
लूट कर हम को मजे में हैं लुटेरे लेकिन
न्याय के घर में गये दोष हमारा निकला।२।
दे नहीं सकता कभी नीर ये सागर मीठा
पर हमें नीर नदी का भी तो खारा निकला।३।
डूब जाने की तमन्ना भी अधूरी ही रही
जिसको मझधार समझते थे किनारा निकला।४।
नाज़ करते थे बहुत हम भी हुनर पर तेरे
"तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला"।५।
बस्तियाँ रात जलाई थी सुना है जिस ने
वो ही शासन का यहाँ सब से दुलारा निकला।६।
छोड़ कर धर्म के चश्मे से गये थे जिस हित
आज क्योंकर वो वतन कौम को कारा निकला।७।
बाँट कर देश के टुकड़े दो किये थे जिसने
सब दिलों में क्यों वही कोढ़ दुबारा निकला।८।
मौलिक.अप्रकाशित
आ. भाई दण्डपाणि जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए आभार।
आदाब मुसाफ़िर भाई, इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए आपको ढेरों मुबारकें। सभी अश'आर बहुत दरुस्त वज़न में हैं, और कईयों में मौजूदा सूरत-ए-हाल की तरफ़ ख़ूबसूरत और ज़हीन इशारे हैं।
आ. भाई रवि जी, गजल पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार ।
अच्छी ग़ज़ल हुई लक्ष्मण भाई। चौथा शेर बहुत पसंद आया।
आ. भाई अजय जी, गजल को समय देने और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'लूट कर हम को मजे में हैं लुटेरे लेकिन
न्याय के घर में गये दोष हमारा निकला'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं हो सका,देखियेगा ।
'दे नहीं सकता कभी नीर ये सागर मीठा
पर हमें नीर नदी का भी तो खारा निकला'
इस शैर का सानी मिसरा रदीफ़ से इंसाफ़ नहीं कर सका,यूँ कर सकते हैं:-
'पर यहाँ नीर नदी का भी तो खारा निकला'
गिरह ख़ूब हुई ।
'बस्तियाँ रात जलाई थी सुना है जिस ने'
इस मिसरे में 'थी' को "थीं" कर लें ।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। गजल की सराहना व मार्गदर्शन के लिए हार्दिक आभार ।
न्याय के...में कहने का तात्पर्य यह है कि आज न्याय मिलने के बजाय पीड़ित को ही दोष दिया जा रहा है...
आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई जी एक बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए बहुत-बहुत बधाइयां।
आ. भाई अमित कुमार जी, सादर आभार।
मुसाफ़िर जी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल कीजिये अच्छी ग़ज़ल हुई है, समर सर कि बातों का संज्ञान लें
आ. भाई अनीस जी, हार्दिक धन्यवाद।
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