परम आत्मीय स्वजन,
ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरे के 114वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह जनाब फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला"
2122 1122 1122 22
फाइलातुन फइलातुन फइलातुन फेलुन
(बह्र: रमल मुसम्मन् मख्बून मक्तुअ )
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 27 नवंबर दिन शुक्रवार को हो जाएगी और दिनांक 28 दिसम्बर दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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अच्छी ग़ज़ल हुई है जनाब अजय गुप्ता जी, कृपया बधाई स्वीकार करें। आपका शे'अर:
रब नहीं, याद किया यार ही वक़्ते-आख़िर
इश्क़ आशिक़ को तो जन्नत से भी प्यारा निकला
...बहुत पसंद आया। और आपके पुछल्ले के अश'आर पढ़ कर मज़ा आ गया!
शुक्रिया रवि जी
आदरणीय अजय गुप्ता जी एक बेहतरीन ग़ज़ल कहने के लिए बहुत-बहुत बधाइयां।
मतला का भाव स्पष्ट नहीं हो रहा है क्या इसको और बेहतर कर सकते हैं बाकी गुनीजन बताएंगे।
समय और प्रतिक्रिया देने के लिए आभार अमित जी।
मतले का भाव वैसे तो स्पष्ट है। लेकिन आप की राय के बाद दोबारा देखता हूँ।
आ. भाई अजय जी, अच्छी गिरह के साथ सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
शुक्रिया लक्ष्मण जी
जनाब अजय गुप्ता जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'मैंने दोबारा कहा तो वो दुबारा निकला'
इस मिसरे में सहीह शब्द ''दोबारा" है ।
'कौन सी झाँकी खुली किस से इशारा निकला'
इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,ग़ौर करें ।
'रब" नहीं, याद किया "यार" ही वक़्ते-आख़िर'
इस मिसरे का शिल्प कमज़ोर है,जो कहना चाहते हैं बयान नहीं हो सका ।
'ज्वालामुख से भी कभी बर्फ़ का पारा निकला?'
ये मिसरा बह्र में नहीं है,देखियेगा ।
'फ़तेह दुनिया को किया चाहे थे जिसके दम पर'
ये मिसरा ' फ़तेह' शब्द के कारण बह्र
से ख़ारिज हो रहा है,सहीह शब्द है "फ़त्ह"21, 'फ़तेह' को "फ़त्ह" कर लेें बह्र में आ जायेगा ।
'कुछ अलग जान के सच बोल दिया था तुमको
पर तुम्हें सब की तरह झूठ गवारा निकला'
इस शैर के ऊला में 'तुमको' की जगह "तुमसे"और सानी में 'गवारा' की जगह "प्यारा" करना उचित होगा :-
'पर तुम्हें सब की तरह झूठ ही प्यारा निकला'
'फूल सा गाल पे चस्पां है जनाब अब तक भी
हाथ बेगम का बड़ा ज़ोर-करारा निकला'
ये पुछल्ला कई अर्थों में दमदार नहीं ।
'मुँह लगाया तो वो आलू-बुख़ारा निकला'
ये मिसरा बह्र में नहीं 'बुख़ारा' शब्द में 'ख़ा' की मात्रा नहीं गिरेगी ।
बहुत बहुत आभार समर साहब। आपकी हर सलाह इस ग़ज़ल के लिए भी और आगे भी बहुत काम आएगी। विस्तृत मार्गदर्शन के लिए पुनः शुक्रिया।
शनी साथ निभाने को सितारा निकला l
जब अँधेरे को मिटाने ये उज़ारा निकला l
अब तलक हम न सुनी थी जो कहानी तेरी,
हम न देने कोई दिल दर्द सहारा निकला l
हम तो निकले थे ज़माने को बताने खातर,
भूल आये देखा दरिया न किनारा निकला l
सोच कर बात सुनाई है मगर फिर भी क्यूँ,
दिल को समझाने को अपना सा इशारा निकला l
इस यकीं से ही उमींदों को जगाया हम ने,
“तुझ से ऐ दिल न मगर काम हमारा निकला”
जिंदगी काश हमारी न सहारा पाती,
जिस निभाई वो सफ़र भी नकारा निकला l
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय मोहन बेगोवाल जी ग़ज़ल का अच्छा प्रयास बहुत-बहुत बधाइयां
जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब,ग़ज़ल अभी समय चाहती है,मुशायरे में सहभागिता के लिए धन्यवाद ।
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