आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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दिमाग को झकझोरने वाले पंच को लिए हुए इस रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें, आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी सर| संवादों में कोमा का प्रयोग सही स्थान पर और वांछित स्थानों पर केवल तीन डॉट्स देने के बाद इस रचना को और अधिक आसानी से पढा जा सकेगा| सादर,
तमाशबीन
कर्....कर्....करात्...........
आरी के आखिरी वार से बूढ़ा देवदार दम तोड़ता हुआ धराशायी हो गया. अंधेरे में जंगल की आह दूर तक सुनाई दी. त्रिशूल और नंदादेवी के शिखर पर चाँदनी कँपकँपा गयी. शिखर ध्यानमुद्रा में नि:श्चुप थे.
ठीक उसी समय दिल्ली सहित दुनिया के कितने ही शहरों के राजपथ और गली-कूचों में न जाने कितने असहाय, असुरक्षित बहू, बेटी और बच्चों का शीलहरण हुआ.
हिमालय से लेकर हमारे ‘सभ्य’ समाज के शिखर पर आसीन चमकता हर कुछ, हर कोई तमाशबीन बना बैठा रहा – ज़िंदगी अपने ढर्रे पर अपने ही अंदाज़ में लुढ़कती रही किसी क्रांति की तलाश में.
(मौलिक तथा अप्रकाशित)
ज़िंदगी अपने ढर्रे पर अपने ही अंदाज़ में लुढ़कती रही किसी क्रांति की तलाश में.----आज के हालात का सही चित्रण किया है आ० शरदिंदु जी आपने प्रकृति का दोहन हो या नारी शील हरण इंसान बस तमाशबीन बनकर देखता रहा शिखर पर आसीन हल्के में लेते रहे जिन्दगी यूँ ही चलती रही |बहुत सारगर्भित प्रस्तुति है हार्दिक बधाई
यथार्थ के आसपास और मौजूदा हालात का बेहद सजीव चित्रण हुआ है आ० डॉ शरदिंदु मुकर्जी साहिब, मेरी दिली बधाई स्वीकार करें I
बढ़िया कथा हुई है आदरणीय डॉ शरदिंदु मुकर्जी जी । हार्दिक बधाई ।
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