आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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दाग़
हाथ में किताबें पकडे बदहवास सा युवक लगभग हांफता हुआ थाने में दाखिल हुआI
“नमस्ते सर!” एक बहुत ज़रूरी बात करनी है आपसेI” उसने अपनी साँसों पर काबू पाते हुए थानेदार से कहाI
“बैठोI” थानेदार ने सामने पड़ी कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहाI “हाँ बतायो, क्या बात करना चाहते हो?”
“सर! शहर में बहुत बड़ा खून खराबा होने वाला हैI” युवक ने अपने माथे का पसीना पोंछते हुए कहाI
“खून खराबा? कौन करने वाला है ये खून खराबा?”
“जी, वो छोटी बस्ती के कुछ शरारती लोगI” युवक ने लगभग फुसफुसाते हुए उत्तर दियाI
“मगर तुम ये सब कैसे जानते हो?”
“जी मैं कॉलेज से वापिस आ रहा था तो गोल पार्क के एक कोने में कुछ लोगों को दंगे फसाद की बातें करते हुए सुनाI”
“क्या बातें कर रहे थे वो लोग?”
“जी, वो लोग कह रहे थे कि कल रात बड़ी बस्ती को आग लगा देंगे और वहाँ एक एक को चुन चुन कर मारेंगेI” युवक के माथे पर पसीने की बूँदें चमक उठींI युवक को ध्यान से देखते हुए थानेदार ने पूछा:
“मगर तुम हो कौन?”
इससे पहले कि युवक कुछ बोलता, एक अधेड़ हवलदार ने पास आते हुए ऊँचे स्वर में कहा:
“ये क्या बताएगा साब! मैं बताता हूँI ये गोल हवेली वालों का लौंडा हैI”
“वही गोल हवेली जो छोटी बस्ती में है?” थानेदार ने आश्चर्य भरे स्वर में युवक से पूछाI
“जी सर, वहीI” युवक ने आँखें नीची करते हुए उत्तर दियाI
“साब जी! आज तक शहर में जितने भी दंगे फसाद हुए है, उन सब मे इन हवेली वालों का हाथ रहा हैI” युवक को घूरते हुए उस में हवलदार ने कहाI
“क्यों भई! क्या हवालदार ठीक कह रहा है?”
“जी... जी काफी हद तक!” युवक ने कुछ झिझकते हुए उत्तर दियाI
“देखा साब?” हवालदार की आवाज़ में जीत की ख़ुशी थीI “यह ज़रूर इसकी कोई चाल हैI”
थानेदार कुर्सी से उठकर युवक के पास आया और उसका कन्धा थपथपाते हुए पूछा:
“एक बात बतायेI वो सब तो तुम्हारे अपने लोग हैं, तो फिर उन्हीं के खिलाफ मुखबरी क्यों?”
युवक ने किताबों को कसकर सीने से लगाते हुए उत्तर दिया:
“अपने खानदान पर लगे कलंक को धोना चाहता हूँ सर!”
.
(मौलिक और अप्रकाशित)
आ.योगराज सर जी फ़िता काटने की बधाई. इस जबरदस्त रचना पर टिप्पणी क्या लिखू. ऐसा पश्चाताप अगर सभी को हो जाए तो सरा दृश्य ही बदल जाए.बधाई आपको
बहुत खूबसूरत तरीके से पाठकों के मन में उत्कंठा जगाती बेहतरीन पंच का प्रभाव कथा ने कायम किया है. पिता के पाप का प्रायश्चित बेटे के द्वारा होना , अपराध परम्परा का बेटे द्वारा त्याज्य चिंतन को साकारात्मक सोच के लिये प्रेरित करता है. विसंगतियों को पोषण ना मिलना आज के युवाओं के संदर्भ में भी प्रेरक विषय है. लेखन ऐसा ही हो जो समाज में स्वस्थ वातावरण तैयार करें .आपकी सार्थक रचनायें हमें लेखन कौशलता के बारिकियों को समझने में कक्षा के समान होती है. अभिनंदन आपका .
वाह, कितने बेहतरीन तरीके से आयोजन का शुभारम्भ किया है आपने, बहुत बेहतरीन रचना विषय पर| ज्ञान शायद यही होता है जो सही और गलत में फ़र्क़ करना सिखा देता है| कोई तो होता है जो ऐसे कलंक धोता है और बहुत बेहतरीन तरीके से दर्शाया है आपने इस रचना में| बहुत बहुत बधाई सर
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