आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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इतिहास के पन्ने का सच व्यक्त करती शानदार रचना के लिए बधाई आदरनीय राहिला आसिफ जी .
हर लड़ाई के बाद के विश्लेषण में यही पाया जाता है कि दोनों पक्षों ने केवल खोया ही है, ज़मीनें और महल जीतने के लिये इंसानों की बलि चढ़ा देना उचित नहीं है| अच्छी संदेशप्रद रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीया राहिला जी| आदरणीय रवि प्रभाकर जी सर के सुझाव अनुसार रचना में बदलाव करें तो उत्कृष्ट रचनाओं में शुमार हो जायेगी|
बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने आदरणीया राहिला जी। हार्दिक बधाई प्रेषित है, सादर!
वाह, बहुत संवेदनशील रचना विषय पर, बहुत भावपूर्ण और मानवीय संबंधों को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाया है आपने इस रचना में| पंच लाइन भी बढ़िया है, बधाई इस रचना के लिए
हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी! लघुकथा के अंत तक पाठक मंत्र मुग्ध सा बादशाह और बेगम के आपसी संवादों का आनंद लेता है! फिर अचानक उसे उनकी रूहों के दर्द से रूबरू होना पड़ता है! बहुत खूबसूरत लघुकथा!
सुर्ख लाल रंग-
जल्दी जल्दी हाथ चला रहे थे रज्जब अंसारी, समय कम था और काम बहुत जरुरी| अगर आज नहीं किया तो शायद फिर कभी नहीं कर पाएंगे और ये बात उनके दिल पर भार बनकर रह जाएगी| आखिर शादी में दुल्हन को पहनाये जानी वाली साड़ी तो पूरे इलाके में उन्हीं के यहाँ बुनी जाती थी और अगले हफ्ते तो उनके जिगरी दोस्त लक्ष्मण की बिटिया की शादी थी|
साड़ी बुनते हुए सोच में डूब गए रज्जब, कभी कितना खुशहाल हुआ करता था उनका गाँव| अधिकाँश हिंदुओं के बीच में तीन चार घर उनके भी थे और अगर दिवाली में उनके घर दीप जलते थे, तो ईद में बाकी लोग भी आते थे सिवई खाने| कभी फ़र्क़ ही महसूस नहीं हुआ था उनको, लेकिन जबसे नयी पीढ़ी शहर की तरफ चल दी थी, कुछ बदलाव महसूस होने लगा था| लेकिन वो उसी तरह हर घर में जाते और लोगों से दिल खोलकर मिलते| जबसे लक्ष्मण ने बेटी की शादी तंय कर दी और उसे बताया कि दुल्हन की साड़ी उसी को बनाना है तो रज्जब की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा| इधर रज्जब ने साड़ी बुनने की तैयारी शुरू की, उधर शहर में भड़क उठे दंगों की वजह से रज्जब के बच्चों और बाकी पट्टीदारों ने गांव छोड़कर कहीं और बसने की तैयारियाँ शुरू कर दी| गाँव में भी माहौल बदल गया था और सबको दूरियाँ महसूस होने लगी थी लेकिन रज्जब को तो जैसे कोई फ़र्क़ ही नहीं पड़ता था|
कल सारे लोगों ने जाने की तैयारी कर ली थी और जब रज्जब को भी कहा गया चलने के लिए तो वो बुरी तरह उखड़ गए| उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया कि किसी भी हालात में वो गाँव छोड़कर नहीं जायेंगे|
"अगले हफ्ते लक्ष्मण की बेटी की शादी है और मैंने उसे शुरू से ही वादा किया था कि उसकी बेटी की शादी में दुल्हन की साड़ी मैं ही बनाऊंगा| और ऐसे मौके पर तुम लोग गाँव छोड़कर जाने की बात कर रहे हो, कुछ तो सोचो कि क्या मुह दिखाओगे उपरवाले को| मैं तो किसी भी हाल में नहीं जाऊंगा यहाँ से और बिटिया को अपनी बनाई साड़ी में बिदा होते देखूंगा"| जब वो किसी भी हालात में जाने को तैयार नहीं हुए तो शाम को सबने गाँव छोड़ दिया और जाते जाते कह गए कि जितना जल्दी हो वो भी यहाँ से चले जाएँ| सब तो चले गए, लेकिन रज्जब ये सोच सोच कर परेशान थे कि क्या जवाब देंगे लक्ष्मण को, जब वो अकेले उसके घर जायेंगे साड़ी लेकर|
रात काफी हो गयी थी और साड़ी भी लगभग तैयार हो गयी थी| उनकी दिली तमन्ना थी कि साड़ी का रंग बिलकुल चटक लाल होना चाहिए लेकिन साड़ी के रंग को देखकर वो थोड़ा निराश हो गए| उसका रंग लाल तो था लेकिन वैसा नहीं जैसा वो चाह रहे थे| रज्जब उठे और एक लोटा पानी लेकर पिया और वापस आकर साड़ी को रंगने के बारे में सोचने लगे| वो अपनों के गाँव छोड़ के जाने का प्रायश्चित आज तक की सबसे बेहतरीन सुर्ख लाल साड़ी बना कर करना चाहते थे|
इतने में पीछे से एक लाठी का भरपूर वार उनके सर पर पड़ा| थोड़ी देर में ही उनका शरीर करघे के पास पड़ा हुआ था और उससे बहने वाले लहू से साड़ी का रंग सुर्ख लाल हो रहा था|
मौलिक एवम अप्रकाशित
कहानी अंत में आकर झकझोर देती है इन दंगों में न जाने कितनों की भावनाएँ भेंट चढ़ जाती हैं इंसानियत ही जब खत्म हो जाती है तो इन्हें किसी की भावना से क्या लेना बहुत बढ़िया लघु कथा लिखी है विनय भैया जिसका अंत बहुत देर तक सोचने को मजबूर कर देता है |मेरी हार्दिक बधाई स्वीकारें |
दंगे, फसाद और मज़हबी जूनून हमारे समाज और दर्शन के माथे पर किसी धब्बे से कम नहीं हैं। इसकी आग में क्या क्या तबाह हो जाता है। लघुकथा मर्मस्पर्शी है भाई विनय कुमार जी। पहला पैरा यदि न भी होता तब भी सन्देश साफ़ और शफ़्फ़ाक़ ही था। बहरहाल, मेरी हार्दिक बधाई अवश्य स्वीकार करें।
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