आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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ओबीओ लाइव् लघुकथा गोष्ठी अंक-17 में आप सभी का स्वागत हैI
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज भाई जीl
"--जड़ें--"
" अरे दादू! आप यहाँ ? कभी भी बारिश ओर तेज हो सकती हैं, घर चलो जल्दी.." रघु ने उनका हाथ खींचते हुए कहा। "
वे अपने सर पर हाथ धरे नदी किनारे उकडू बैठे थे। इंद्र देवता की अनुकम्पा से नदी पूरे उफान पर थी। उनसे सावित्री नदी की अठखेलियां देखी नही जा रही थी। नदी धीरे-धीरे रौद्र रूप ले रही थी।
नही सेतु! तुम्हारा अस्तित्व मैं यूँ ही नहीं मिटने दूँगा। तुम तो मेरे गाँव के सर्वेसर्वा हो , जीवन हो हमारा। तुम्हें अभी इस तूफ़ान को झेलना होगा। "--उम्र के चलते वे अपने आप मे बुदबुदा रहे थे।
" बेटा! मुझे चिंता है इस पुल की.. हमे जोड़ने वाली यही तो एकमात्र..."
"लेकिन दादू..."
" कैसे बताऊँ रघु, अरे बेटे ! ये विरासत है हमारी। इसी ने तो हमारे गाँवों को आपस मे जोड़े रखा है।
लकडी से सिमेंट-कंक्रीट मे ढलता यह पूल अब बूढा हो गया है। टनो का भार ढोया है इसने। अब मृत्युशैया के निकट हैं। जीर्णोद्धार चाहता है। गाँव के सरपंच ने काफ़ी कोशिश की थी इसे मजबूत करने की। हर बार गुहार लगाते सरकार से किंतु पैसा यहाँ तक आते-आते इतना ही बचता की उस पर मामूली रखरखाव के पैबंद ही लग पाते। बस यही विडंबना है। "
" चलिए आप पहले घर चलिए पानी तेज हो गया है। बाँध के द्वार खुल गये तो ..."
उफ़नती सावित्री नदी ने तांडव रूप लेते हुए अपने तटबंध तोड दिए थे, और वह भी भरभराकर गिर पडा। पानी के तेज बहाव मे कब गायब हुआ पता ही नही चला। ऐसा लगा मानो माँ ने पुन: अपनी ओट मे समेट लिया हो।
उनकी जीवन रेखा अंतत: उसे लील गयी।
"जल्दी उठिए दादू --
समय ने उसकी जडों को चाहे कमजोर कर उसे खत्म कर दिया हो। अपनी जडों को कमजोर नहीं होने दूँगा।
मौलिक एवं अप्रकाशित
आ.अर्चना जी अभार आपका
आ.रतन सर जी धन्यवाद
बेहद संवेदनशील लघुकथा से आपने गोष्ठी की शुरुआत की है आदरणीया नयना जी . विरासत विषय को परिभाषित करती इस सार्थक लघुकथा के लिए बधाई प्रेषित है .
आ.कांता जी ह्र्दयतल से आभार
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