आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीया नीता जी!
आपका कहना शत प्रतिशत सही है आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी। हम सब बहुत ख़ुशनसीब हैं जो आ. योगराज प्रभाकर सर जैसे मंच संचालक हमारे बीच हैं। रचना को पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार।
वाह बहुत बढ़ीया लघुकथा कही है आपने। कथा का प्रस्तुतिकरण बहुत प्रभावशाली है। लघुकथा प्रदत्त विषय से पूर्णरूपेण न्याय कर रही है। लघुकथा का शीर्षक चयन इस आयोजन का बेस्ट शीर्षक चयन है जिससे निजी तौर पर मैं बहुत खुश हूं। अक्सर हमारे साथी शीर्षक पक्ष को अनदेखा कर जाते हैं जबकि शीर्षक लघुकथा का एक अहम हिस्सा होता है। बधाई स्वीकारें मित्रवर !
आदरणीय रवि जी, आपके शब्दों ने विशेष संबल प्रदान किया। आपको कथ्य और शीर्षक दोनों पसंद आये इसके लिए आपका हृदय से आभार।
आदरणीय वीरेंद्र भाई जी, आपके स्नेहिल शब्दों से अभिभूत हूँ। लघुकथा आपको पसंद आयी इसके लिए आपका हृदय से आभार, सादर!
पर्दे की पीछे
“ये हमें बाँटना क्यूँ चाहते हैं” नंदू ने दर्द भरी आवाज़ से मास्टर से पूछने के अंदाज़ में कहा ।
मास्टर चुप चाप कुर्सी पर बैठा कल की घटना के बारे में सोच रहा था ।
और नंदू ने फिर बात को आगे बड़ाई और फिर कहने लगा, “हमारे पास बाँटने को है भी क्या है, इन शरीरों व् दिलों से किसी को जख्मों कि सिवा क्या मिलेगा ?”
कुछ दिनों से गाँव के हलात बदल गए थे,संतू कि परिवारों का बाईकाट चल रहा था ।
संतू और नंदू दोनों साथ साथ ही जंगल में काम करने जाते थे ।
कल उसने अचानक ही नंदू से कहा था “अब हमें ये गाँव छोड़ना होगा ” ।
संतू की जात के कुछ परिवार पहले ही गाँव छोड़ कर जा चुके थे । तो संतू के चेहरे पर भी उस दिन डर झलक रहा था ।
नंदू को रात भर नींद नहीं आई थी इस लिए सुबह जल्दी ही मास्टर को पूछने के लिए पहुंच गया था ।
अभी भी नंदू मास्टर के चेहरे की तरफ देख रहा था, मगर कोई जवाब नहीं मिल पा रहा था ।
“इस बार तो हम ने पुगार बढ़ाने की बात भी नहीं कही ” नंदू ने खुद से कहा, फिर उस लगा नंदू का परिवार ही क्यूँ, हम भी मजदूरी करते है।
मास्टर सोच रहा था , “क्या मेरा जवाब इनको संतुस्ट कर पायेगा ?”
फिर भी मास्टर ने कहना शुरू किया, नंदू, “सरपंच और लाला” ।
“क्या हुआ उनको ?” बात के बीच ही नंदू ने कहा ।
“उनको कुछ नहीं होता, जब उनको कुछ होने लगता है, तो वो आपके बीच कुछ करने लगते है” ।
“समझा नहीं’,यही बात कि हम समझ नहीं पाते और उनका शिकार बन जाते हैं हम ।
अचानक ही नंदू के विचारों के प्रवाह को झटका लगा ।
जब मास्टर ने कहा, “बात तो ताकत की है” ।जब किसी ताकत छीनने लगती है तो .......... ।
सरपंच को लाला ही सरपंच बनाता था और सरपंच उसे किसी काम में विरोध नहीं कर सकता था, पर इस बार उस को लगा सरपंच ने संतू के कबीले को अपनी साथ कर लिया है, और लाले की अब सरपंच को जरूरत नहीं रह गई ।
“तभी ये ........”..नंदू ने कहा
“ये पर्दे के पीछे की राजनीती अगर हम तुम को समझ जाते तो”, मास्टर ने नंदू से कहा ...... ।
“आज संतू, कल नंदू तुम फिर पता नहीं कौन ......., जब तक हम सब इस पर्दे के पीछे की राजनीती, बे पर्द नहीं करते , ये सिलसिला चलता ही रहेगा” । मास्टर ने कहा ।
नंदू उठा और संतू के घर की तरफ चल पड़ा ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
अच्छा प्रयास है आ० मोहन बेगोवाल जीI संक्षिप्तता और बेहतर भाषा/बर्तनी से रचना और प्रभावशाली बन सकती थीI बहरहाल सहभागिता हेतु बधाई स्वीकार करेंI
बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर, थोड़े एडिटिंग से और बेहतर हो जाएगी| बधाई आपको
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