आदरणीय साथिओ,
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डूबते हुए सूरज के साथ बुढापे की तुलना ने रचना को एक अलग ही ऊँचाई दे दी है आ० माला झा जीI बहुत ही सुंदर लघुकथा रची है, बहुत बहुत बधाई स्वीकार करेंI कुछेक संवादों पर आपका ध्यानाकर्षण चाहूँगा:
//"हाँ मालिक। आजकल सभी के घर मशीनों से ही काम होने लगा है। हमारी बहुरानी भी ले आयीं। महरियों की छुट्टी हो गयी इस सोसाइटी से।"// "हमारी बहुरानी भी ले आयीं।" इसे हटाया जा सकता है क्योंकि बहू के मशीन लाने की बात तो पहले ही की जा चुकी हैI
//"इनसे कहो कोई ऐसी मशीन भी ले आये जिसमे इंसानों को डाल कर भी धोया जा सके ताकि ये जो अकेलापन और उम्मीदें हैं न, वो भी पूरी तरह धुल जाए। कम्बख़्त बुढापे में तकलीफ बहुत देते हैं।"// यह संवाद थोडा छोटा और चुस्त होना चाहिए थाI क्या इसको ऐसा नहीं किया जा सकता?
"इनसे कहो कोई ऐसी मशीन भी ले आएं जिसमे झूठी उम्मीदें और बुढापे का दर्द पूरी तरह धुल जाए।"
आज के विषय पर ,बुजुर्गों के हालात पर लिखी गई कथाओं का जोर दिख रहा है मेरी स्वयं की लघुकथा भी उनमे से ही एक है ...बहुत अच्छी कथा है आपकी...हार्दिक बधाई आदरणीया माला जी
"कुछ नही बड़े मालिक, देख रहा हूँ सूरज कैसे धीरे धीरे ढलता जा रहा है।"// अगर कथा यहीं पर ख़त्म हो जाती तब भी अपने सन्देश में सफल रहती I
हार्दिक बधाई आदरणीय माला जी। सुन्दर लघुकथा।
अकेलेपन और बुढ़ापे के दर्द को आपने बहुत अच्छे से उकेरा है आ माला जी | हार्दिक बधाई |
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