आदरणीय साथिओ,
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जिज्ञासा - लघुकथा –
भीष्म पितामह कुरुक्षेत्र के युद्ध में घायल होकर रणभूमि में शर शैया पर पड़े थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों ही प्रतिदिन युद्ध समाप्त होने पर पितामह का कुशल क्षेम जानने जाते थे। अर्जुन से पितामह का कष्ट देखा नहीं जाता था। वह चाहता था कि पितामह को इस कष्ट से शीघ्र मुक्ति मिले। उसके मन में एक अपराध बोध जन्म ले चुका था क्योंकि पितामह की इस हालत का जिम्मेवार वह खुद को ही मानता था। उसकी इच्छा थी कि श्री कृष्ण, पितामह को अपना शरीर त्यागने को कहें, क्योंकि पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान था।
बार बार अर्जुन के आग्रह पर, श्री कृष्ण ने पितामह से निवेदन कर ही दिया,"पितामह, आपको जब अपना शरीर अपनी इच्छा से त्यागने का वरदान मिला हुआ है तो फ़िर आप यह कष्ट क्यों झेल रहे हो"?
"माधव, आपसे कौन सी बात छुपी है। आप तो सर्व ज्ञाता हो"।
"पितामह, यह जिज्ञासा मेरी नहीं, अपितु आपके प्रिय अर्जुन की है"।
"माधव, अर्जुन तो आपका भी प्रिय है। उसकी शंका का समाधान तो आप भी कर सकते हो"।
"नहीं पितामह, मेरी भी कुछ सीमायें हैं। विधि के विधान से अलग जाकर, किसी प्राणी के जीवन से जुड़े रहस्य, समय से पूर्व, मैं भी नहीं प्रकट कर सकता"।
"माधव, आप की तरह मुझे भी कुछ प्रतिबंधों का पालन करना होता है।मुझे भी अपने अतीत के अभिशप्त क्षणों की व्याख्या, अपनी भावी पीढ़ी के समक्ष करने की अनुमति नहीं है"।
"पितामह आपने बड़ी कुशलता से मेरे प्रश्न को उलझा दिया"।
"माधव, ऐसे जटिल प्रश्नों के समाधान का उत्तरदायित्व समय पर छोड़ देना ही न्यायसंगत होता है"।
मौलिक एवम अप्रकाशित
बहुत अच्छी लघुकथा है, पौराणिक पात्रों/घटनाओं को लेकर अपनी कल्पनाशीलता का पुट देकर प्रदत्त विषय बहुद सुन्दरता से परिभाषित किया है आ० तेजवीर सिंह जीI मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI
हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।
हार्दिक आभार आदरणीय समर क़बीर साहब जी।आदाब।
हार्दिक आभार आदरणीय नीता कसर जी।
हार्दिक आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।
आदरणीय तेजवीर जी कृष्ण भीष्म संबाद के माध्यम से एक बहुत ही शानदार रचना पढने को मिली , रोचक जानकारी के साथ चिंतन के लिए प्रेरित करती इस रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
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