आदरणीय साथिओ,
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आदरणीया राहिला जी, आपकी टिप्पणी उत्साहवर्धन कर गयी, बहुत बहुत आभार.
दोनों ही रचनाएँ उत्तम सृजन का बेहतरीन उदाहरण हैं आदरणीय गणेश जी "बागी" सर, सादर बधाई स्वीकार करें| उत्तम शीर्षक, अच्छा कथ्य और तीक्ष्ण अंत युक्त लघुकथा 'बाज़ार' ने मुझे विशेष प्रभावित किया| सादर,
आदरणीय चंद्रेश भाई, आपकी सकरात्मक प्रतिक्रया हेतु दिल से आभार.
सराहना हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी.
दोनों ही लघु कथा बेहतरीन हुई आद० बागी जी दिल से बहुत बहुत बधाई |
आदरणीया राजेश कुमारी जी, सराहना हेतु बहुत बहुत आभार.
अनपढ़-गंवार/ डाॅ सन्ध्या तिवारी
"नमस्ते मेमसाब ।"
"नमस्ते शीला, आ गयी? चलो सबसे पहले चाय बनाओ दो कप।"
"दो कप क्यों ? आज साब नहीं पियेंगे।"
बाई ने पूछा
"नहीं, साहब बाहर गये हैं ।"
अच्छा....ऽऽ देखा....ऽ मेमसाब, हमने आप से कई थी , कि साब की चप्पल पै चप्पल चढ़ी है वे कहीं जान वाले है ।
हो गयी न मेरी बात सच्ची।
" आंहां... ऽऽ तू तो बड़ी शगुनिया है । "
माया ने अखबार में नज़रे गड़ाये हुये हंसकर कहा
".....मेमसाब मेरी रासी में का लिक्खो है ज़रा पढ़ के सुनाय देउ।"
"शीला.... ऽऽ ,
तू न निपट अनपढ़- गंवार है।लोग चांद और मंगल पर पहुंच गये और तुझे न जाने कहां - कहां की बातें सूझती हैं। कुछ नहीं होता इन सबसे। केवल पोंगा पन्थी है यह सब। जा , जाके काम निपटा । और हां उसके बाद यह 'लाफिंग बुद्धा' इधर इस कार्नर .. रखना । विंडचाइम बेडरूम के मेन डोर पर बीचोंबीच लटकाना और हां यह बैम्बूपाॅट इन्टरेन्स में रखना ।ध्यान से।"
डिंग... ऽऽ डांग...ऽऽ. डिंग...ऽऽ डांग...ऽऽ डोर वेल ने बाहर आने वाले की उपस्थिति दर्ज करवायी।
"देख शीला दूध वाला आया होगा।"
माया ने सोफे में धंसे हुये बाई को आवाज लगाई
" मेम साब मेरे हाथ गन्दे है ,बर्तन मांज रही हूं..ऽ।"
" अच्छा रुक । दूध मैं ही ले लेती हूं, तू अपना काम कर ।"
कहती हुयी माया ने अपने रिवाउन्डिंग बालों को क्लैचर की गिरफ्त में कैद कर लिया और भगौना लेकर दूध लेने दरवाजे पर गयी।
रोज़ वाले ग्वाले की जगह आज एक काना दूध वाला सामने था ।
" तुम कौन ? " माया ने पूछा
" जी... मेमसाब , जो रोज दूध लेके आवत हैं वे हमार भैय्या है आज उनकी तवीयत खराब सो हम आये।"
" अच्छा ठीक है , दो जल्दी ।"
सुबह - सुबह काना देख मन कुछ कसैला हो गया दूध लेकर पलटी तो देखा बाई की चप्पल पर चप्पल चढ़ी है, भन्ना गया उसका दिमाग।
क्षणभर ठिठकी , फिर अगले ही पल बाई की चप्पलों को ठोकर मारकर अलग करके आकर अखबार में 'अपना" आज का राशिफल पढ़ने लगी।
बहुत ही प्यारी सी लघुकथा है आ० डॉ संध्या तिवारी जीI सही कहा है आपने कि आजकल पढ़े लिखे गंवारों की भी कोई कमी नहीं हैI इस प्रभावशाली लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करेंI
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