आदरणीय साथिओ,
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मिलों का सफ़र तय करोगे मेरे भाई. अग्रिम शुभकामनाएँ
स्वागत है लघुकथा में आपका आदरणीय | सच तो कह रहीं हैं ताई सच में बेहद ख़ुशी मिली है आपको यहाँ देखकर | सर ने सच ही कहा है ओ बी ओ जो न करवाए कम है , एक ग़ज़ल कार को लघुकथा पर कलम आखिर चलवा ही दी | जय ओ बी ओ
हार्दिक बधाई आदरणीय नीलेश जी।बेहतरीन प्रस्तुति।
बहुत बढ़िया रचना प्रदत्त विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
वाह्ह्ह्ह आज नीलेश भैया इस आयोजन में ? बहुत खूब ..रचना भी बहुत सार्थक सामयिक हुई है बहुत बहुत बधाई भैया
नारायणी
कामिनी जब से आई थी उसने हमेशा अपनी सहेली सुनंदा को रसोई के साथ रसोई होते ही देखा थाI उसके जीवट से ईर्ष्या भी होती लेकिन अक्सर उसे सुनंदा पर गुस्सा ही आताI क्योंकि उसके चहरे पर न तो कभी थकावट ही दिखती और न ही भाग भाग कर बच्चो, पति और सास-ससुर की सेवा करते हुए किसी प्रकार की झुंझलाहट हीI रोज़ की तरह आज भी उसने पहले दोनों बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजा, नहाने से लेकर दफ्तर जाने तक पतिदेव की सब फरमाइशें पूरी कीं. फिर सास-ससुर को नाश्ता दिया. घर को व्यवस्थित कर लेने के बाद अपने नाश्ते की प्लेट लिए वह हॉल में पहुँची:
“ग्यारह बजने को आए हैं, और तू अब नाश्ता करने लगी है?” कामिनी ने अधिकार भरे स्वर में कहाI
“अरे फ्री होऊँगी तभी तो करूंगी न?” सुनंदा ने उसके पास बैठते हुए मुस्कुराकर उत्तर दियाI
“इतने दिनों से देख रही हूँ, पल भर के लिए आराम नहीं तुझे” कामिनी ने अपनी कुर्सी उसके नज़दीक सरकाते हुए कहा
“अरे आराम ही आराम है. तू ये सब छोड़ ये बता कि लंच में क्या खाएगी?” उसकी बात को अनसुना करते हुए सुनंदा ने पूछाI
“हे भगवान! अभी नाश्ता ख़त्म हुआ नहीं कि तुझे लंच की चिंता भी होने लगी?” कामिनी ने अविश्वास भरे स्वर मे कहा
“डेढ़ बजे बच्चे स्कूल से आ जाते हैं और दो बजे इनको भी तो खाना भेजना होता है न. और तू लंच की बात कर रही है मैंने तो डिनर के लिए भी चने भिगोकर रख दिए हैंI”
“धन्य है रे तू! किस मिट्टी की बनी है, तुझे कभी थकावट नहीं होती क्या?” दोनों हाथ जोड़कर माथे से लगाते हुए कामिनी बोलीI
“अरे अपना घर है अपना परिवार है, थकावट कैसी?”
“मगर तुझे भी तो आराम मिलना चाहिए न?” आत्मीयता भरे स्वर में कामिनी ने कहाI
“आराम के लिए पूरी रात पड़ी होती है मेरी प्यारी कम्मो रानी” कामिनी की नाक को धीरे से पकड़ कर हिलाते हुए सुनंदा ने कहाI
“इसीलिए तो अपन ने शादी नहीं की, कौन दिन भर मुफ्त की गुलामी करे?” अपने कटे हुए बालों पर हाथ फिराते हुए कामिनी ने बहुत ही बेफ़िक्र अंदाज़ में कहाI
“अपनों के लिए कुछ करने को गुलामी नहीं सुख कहते हैं कामिनी मैडम” कप में चाय उड़ेलते हुए उसने कहाI
“सच बता क्या तुझे कभी इस हाड़तोड़ रूटीन से कोफ़्त नहीं होती?” कामिनी ने अगला प्रश्न दागाI
“कोफ़्त कैसी? मुझे तो बल्कि सच्ची ख़ुशी मिलती है ये सब करने सेI”
“ख़ुशी? मगर क्यों?” कामिनी उत्तर जानने को बेचैन थीI
“तूने गृहस्थी नहीं बसाई न?” उत्तर देने की बजाय सुनंदा ने प्रश्न उछालाI
“गृहस्थी? माई फुट! हम तो आज़ाद परिंदे हैं” स्वछन्द लहजे में उसने उत्तर दिया
चाय का कप उसकी तरफ सरकाते हुए सुनंदा ने मुस्कुराते हुए कहा:
“तब तू यह सब नहीं समझ पाएगीI”
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(मौलिक और अप्राकाशित)
हार्दिक आभार भाई उस्मानी जी.
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