आदरणीय साथिओ,
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अंतर के दर्द को व्यक्त करती सुंदर लघुकथा. बधाई आदरणीय अंजना बाजपाई जी .
अपनी बनायी कैदों से खुद ही निकलना होगा .., विषय जाना पहचाना है पर निर्वहन सुन्दर हुआ है .हार्दिक बधाई आपको आदरणीया अंजना बाजपेई जी
लघुकथा प्रदत्त विषय को परिभाषित करने में काफी हद तक सफल रही है आ० अंजना बाजपेई जी जिस हेतु आपको हार्दिक बधाई. लेकिन कथ्य और शिल्प के दृष्टिकोण से रचना अभी और मेहनत मांग रही है.
पति के अत्याचारों को याद करते हुए निम्नलिखित संवाद अटपटा लगता है.
//“मेरे पति ने तो एक ही जन्म में साथ जन्मों का प्यार दे दिया है। अब और जन्मों के लिए उन्हें क्या माँगू!”//
इसके स्थान पर:
//“मेरे पति ने जो इस जन्म में दिया, वही अगले जन्मों में भी देगा!”// करना क्या बेहतर न होगा?
पडोसने की बजाय , यदि उसके साथ हुए अत्याचारों की घटनाएँ/यादें/आवाज़ें ही यदि उसे उलटे चक्कर लगाने पर विवश कर दें तो बात में दम पैदा हो सकता है. क्योंकि जैसा कि सुनील भाई ने कहा है कि आज के दौर में इस तरह किसी के टोकने से कोई ऐसा क़दम नही उठाता है.
सुधार की गुंजाइश हमेशा होती है प्रिय अंजना! इस मंच पर सीखने को बहुत है गुणी जन के मार्गदर्शन से आपकी रचनाओं में और निखार आएगा! ये मेरा दृढ़ विश्वास है। उज्ज्वल भविष्य के लिए ढेरो ढेर शुभकामनाएँ।
हार्दिक बधाई आदरणीय अंजना वाजपयी जी।बेहतरीन प्रस्तुति।
अच्छी कथा हुई है आदरणीया अंजना जी | हार्दिक बधाई |
विषय बढ़िया उठाया है आपने, बस प्रस्तुतीकरण में कुछ और मेहनत चाहिए थी| बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए आ
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