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आहा ये हुई बढ़िया लघुकथा
कथाक्रम चल रहा है पाठक को बांधे है
अचानक परिचय खुलता है और पंचलाइन प्रभाव छोड़ने को तुरंत तैयार
मेरे लिए एक बेहतरीन लघुकथा
इस रचना पर आपको बहुत बहुत बधाई आदरणीया Shraddha Thawait जी
समय और परिस्थिति से पहचान बदल जाती है , आपकी लघुकथा ने इस चीज को बहुत बेहतरीन तरीके से सामने रखा है । बहुत बहुत बधाई इस लघुकथा के लिए..
समय पर सभी को पहचान लिया जाता है| इस वक्ती मित्रता से लाभ कमा ही लिया जाता है| सत्य आधारित लघुकथा हेतु आपको हार्दिक बधाई, श्रद्धा जी !!
अच्छी लघुकथा हुई है, कई मौको पर लोग मतलबी पहचान बनाते दीखते हैं, आदरणीया श्रद्धा जी बधाई इस प्रस्तुति पर.
अवसरवादी पहचान कैसे लोगो के सामने जरुरत पड़ने पर उभरती है इसका बहुत ही सटीक चित्रण हुआ है! हार्दिक बधाई आ. श्रद्धा जी!
पहचान
‘प्रेम पर तो वश नहीं था, पर शादी से पहले यह सब नहीं’
‘कम ऑन डार्लिंग , तुम किस दुनिया में रहती हो, जमाना कितना आगे बढ़ गया है ?’
‘मैं तो भारत में रहती हूँ पर तुम शायद किसी पाश्चात्य देश में ?’
‘यार, तुम मेरा मूड ख़राब कर रही हो I’
‘और तुम मेरा जीवन खराब करना चाहते हो ?’
‘अरे हम शादी तो कर रहे हैं न ?’
‘पिछले दो साल से तुम यही कह रहे हो I’
‘देखो आज मैं तुम्हारी एक न सुनूंगा , यहाँ तुम्हे बचाने वाला भी कोई नहीं है I‘
‘अच्छा ------ ! तो वीराने में इसीलिये लेकर आये थे ?’
‘हाँ तुम्हारा गरूर तोड़ने के लिये I ’
‘ओह, तो मैं तुम्हें आज पहचान पायी !’- लडकी ने चप्पल हाथ में लेते हुए कहा I
(मौलिक व् अप्रकाशित )
जोश देने वाली और प्रेरणादायक लघुकथा आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
आ० अनुज
अनुगृहीत हुआ . सादर .
आ० खनगवाल जी
सादर आभार
जय-जय !
इस हिसाब से तो उन हाथों में चप्पल दो वर्ष पहले ही आजाना था. क्योंकि अन्दर का राक्षस कितने ही मुखौटे ओढ़ ले, कभी न कभी उसकी झलक मिल ही जाती है, विशेषकर लड़कियों को. ऐसा मैंने सुना है.
सचेत करती और सकारात्मक वातावरण के लिए आग्रह करती इस व्यवस्थित लघुकथा केलिए हार्दिक बधाई, आदरणीय गोपाल नारायनजी.
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