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मिथिलेश वामनकर जी आप ने मेरी लघुकथा की एक नई दृष्टि से समीक्षा कर दी . आप की इस उदारता के लिए ह्रदय से आभारी हूँ
(( 1. सामान्य स्तर कि पुत्र की तरक्की और पुत्र के नाम से पहचाने जाने पर ख़ुशी से आँखे छलछला आई
2. केशव और प्रेमचंद (रीति काल के व्याकरणिक छंद रीति पालक और आधुनिक वैचारिक युग के प्रतिनिधि सुत) द्वितिय कहकर काल और आगे बढ़ा लिया इन प्रतीकों पर कथा को अपने लिए खोल रहा हूँ और आनंद ले रहा हूँ ))
आप की इस समीक्षा के लिए
पुनः आप का शुक्रिया
अपने पुत्र के नाम से पहचान कायम होती है, तो पिता का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है| वह पुत्र तो धन्य है जिसने अपने पिता के लिए अग्रणी पंक्ति में स्थान सुरक्षित करा दिया !! इस तरह की सार्थक कथा हेतु हार्दिक बढ़िया आ० ओमप्रकाश जी सर !
सटीक प्रतीकों के माध्यम से बढ़िया लघुकथा रची है आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी, बधाई स्वीकारें।
पिता के कारण कभी बेटे की पहचान होती है और जिस दिन बेटे के कारण पिता की पहचान होने लगे, सच वो दिन पिता के लिए सबसे सुखद पल होगा. बहुत ही प्यारी लघुकथा हुई है, बहुत बहुत बधाई आदरणीय ओमप्रकाश क्षत्रिय जी.
भावनाओं को सुन्दर विन्यास मिला है आदरणीय ओमप्रकाशजी. एक पिता को इससे बड़ा औरक्या सम्मान चाहिये ?
हार्दिक बधाई..
आदरणीय ओम प्रकाश जी आपकी कथा पढ़ कर तो हमारी भी आँखे छलछला गयी ,बधाई इस अनोखी कथा के लिए
आदरणीय ओम प्रकाश भाई
हर पिता को उस शुभ दिन का इंतजार रहता है जब वह बेटे के नाम से जाना जाय । उसे लगता है कि एक पिता की हैसियत से उसने अपनी ज़िम्मेदारी सफलता पूर्वक निभाई है और एक माँ की खुशी का क्या कहना।
आपकी यह कथा हर परिवार की कथा है , मेरी हार्दिक बधाई
प्रदत्त विषय को पूर्णतः सार्थक करने वाली बहुत अच्छी लघु कथा ,दिल को छू गई .बहुत बहुत बधाई आ० ओम प्रकाश जी
इस कथा में मुझे एक अधूरापन लगता है देखे गुनीजन क्या कहते हैं ?
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