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विषय पर बहुत सही कटाक्ष करती लघुकथा. सच! नेता की जान-पहचान कुछ इसी तरह होती है जो समय देखकर बदल जाती है. बहुत-बहुत बधाई आदरणीय चंद्रेश जी
हृदय से आभारी हूँ भाई जितेन्द्र जी !!
क्या तेवर है आपकी लघुकथा के चंद्रेश भार्इ । सुगठित विन्यास व प्रभावशाली वार्तालाप शैली । प्रस्तुति हेतु शुभकामनाएं ।
"तो बात दे दे न विपिन बाबू !.. हो जायेगी न ?" - बाँके बिहारी ने जोर से सुनाते हुए पूछा.
"हाँ भाई हाँ, जरूर हो जायेगी.. मौसम है ही ऐसा !.." - विपिन बाबू ने अपने टेबुल से ही बैठे-बैठे कहा.
"मौसम-वौसम छोड़िये, सर.. साफ़-साफ़ बताइये, हम हाँ कर दें न ?" - बाँके बिहारी ने अपने कहे पर ज़ोर दिया.
"तुम भी न बाँके.. हाँ-हाँ हो जायेगी.. बोल दो.."
इतना सुनना था कि बाँके बिहारी साथ खड़े उस आदमी को करीब-करीब घसीटता हुआ ऑफ़िस से बाहर ले गया - ".. अब सुन लिया न ? अब पतियाओगे जे डील हो जायेगा ? बड़े बाबू हैं, गछ लिये सो गछ लिये ! इनकी बात बड़े साहब भी नहीं काटते.."
बाँके बाबू की ये फुसफुसाहट उस आदमी को पूरी तरह से अपने कब्ज़े में कर चुकी थी. फिर भी उसने पूछा - "मने डील हमरे फेभर में ही होगा न, बाँके भाई ?"
"धुर मर्दे.. अब कौन भासा में सुनोगे जी..?"
उस आदमी को बाँके बिहारी से शायद इसी लहज़े की उम्मीद थी कि क्या, उसने अपने झोले से दस-दस हज़ार की पाँच गड्डियाँ निकालीं और उसके हाथों में रख दीं.
अभी एक घण्टा भी नहीं बीता था. पहाड़ी इलाके के पनबरसा बादल, पटपटा के झिहर पड़े. बाँके बिहारी सीधा विपिन बाबू के टेबुल पर पहुँचा और उनके सामने ढाई सौ रुपये रख दिये - "पक्का पाँच सौ की बाज़ी लगी थी बड़े बाबू ! आपके सपोर्ट पर ही जीत गया.. देखिये, येब्ब्बड़े-ब्बड़े 'बूँदा' बरस रहे हैं.. "
बड़े बाबू मुस्कुराते हुए वो ढाई सौ रुपये अपने ज़ेब में रख लिये - " तुम भी न बाँके.. बाज़ी लगाने में तुम अब शहर भर में 'वर्ल्ड फ़ेमस' हो चुके हो.. "
बाँके बिहारी अपनी इस ’वर्ल्ड फ़ेमस’ हुई ’पहचान’ पर फूला नहीं समा रहा था..
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(मौलिक और अप्रकाशित)
आदरणीया कान्ताजी,
आपको इस लघुकथा का कथ्य स्पष्ट हुआ यह जानना मेरे लिए भी सुखद है. बाँके बिहारी जैसे दलाल इसी सिस्टम की इज़ाद हैं.
अनुमोदन केलिए हार्दिक धन्यवाद.
शानदार आंचलिक शब्दों का प्रयोग , सुन्दर रचना ,हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ सर ! सादर
आदरणीय हरि प्रकाशजी,
सही है, प्रस्तुति के पात्रो के संवाद में भाषायी आंचलिकता कौतुक उत्पन्न करती है. इस रचना पर समय देने केलिए हार्दिक धन्यवाद.
एक सीधे साधे इंसान को कितनी आसानी से ठग लेते है लोग , आंचलिकता से भरपूर बेहतरीन रचना । समझने में थोड़ी मेहनत करनी पड़ी, लेकिन शब्द विन्यास ने मन मोह लिया ।
// "मने डील हमरे फेभर में ही होगा न, बाँके भाई ?"
"धुर मर्दे.. अब कौन भासा में सुनोगे जी..?"// जइसन पंक्तियन के पढ़ के मन एकदम झूम गईल । बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी इस रचना के लिए..
आदरणीय विनय कुमारजी,
यह लघुकथा कथ्य के संदर्भ में तनिक क्लिष्ट अवश्य है. कारण कि यह उन परजीवियों (दलालों) की बात करती है, जो व्यवस्था के चिपके ज़रूर हैं, लेकिन उसका हिस्सा नहीं हैं. वे इस व्यवस्था की लचरता से अनैतिक लाभ लेते हैं और इसीको खोखला भी कर रहे हैं. आपको यह कथा पसंद आयी, यह जानना मेरे लिए भी सुखदायी है.
हार्दिक धन्यवाद
आदरणीया मालाजी,
आपने जितनी आसानी से इस कथा को समझ लिया यह जानना मेरे लिए भी सुखद है. अलबत्ता, यह लघुकथा सरकारी बाबुओं की पोल नहीं खोलती, इसका विश्वास कीजिये.
प्रस्तुति के पात्रों के संवादों में बिहार में बोली जाने वाली आंचलिक भाषाओं का टच अवश्य है. प्रस्तुति पर समय देने केलिए हार्दिक धन्यवाद.
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