आदरणीय साथिओ,
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वाह क्या बात है ! आप की बेबाक टिप्पणी की स्वागत है. सादर शुक्रिया.
आदरणीय ओम प्रकाश भाई जी, प्रस्तुत लघुकथा दो-तीन बार पढ़ी परन्तु मुझे इसमें व्यंग्य पक्ष पर हास्य अधिक भारी दिखाई दिया । स्पष्ट शब्दों में कहूं तो मुझे यह लघुकथा से अधिक चुटकुला ही लगा । ऐसे ही कथानक पर 'शिकायत' शीर्षक से एक लघुकथा आदरणीय रामकुमार आत्रेय जी ने भी लिखी है जिसे पढ़ने पर एक तीक्ष्ण व्यंग्य की अनुभूति होती है जो उस लघुकथा के सफल होने का संकेत है । यह लघुकथा प्रदत्त विषय के आस पास भी दिखाई नहीं देती । इस बार निराशा हुई । आशा है अगले आयोजन में रियल 'ओमप्रगास' भाई की झलक देखने को मिलेगी । सादर
श्री गणेश करने हेतु बधाई पर यह सच में चुटकुला ही प्रतीत हो रहा है | सादर |
अच्छी लघुकथा। आपके कहने का मधुर ढंग आपकी बात को प्रभावशाली बना सकता है। इस तथ्य को अच्छे से परिभाषित करती कथा। अध्यापन क्षर के अनुभव दिवास्वप्न से चल रहे थे! यह पंक्ति बहुत सम्प्रेषणीय नहीं बन पाई। अनुभव तो यथार्थ हैं जो घटित हो चुके हैं तो वे दिवास्वप्न कैसे ?
जीवन की प्रक्रिया के बेहतरीन रासायनिक प्रक्रिया से समझाया गया है. बधाई आप को.
जनाब सुनील वर्मा जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती उम्दा लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
वाह, एक नए विषय को बहुत अछूते ढंग से उठाया है आपने, बहुत बढ़िया. इस रचना की केमेस्ट्री अच्छी लगी, बहुत बहुत बधाई आ सुनील जी
जनाब सुनील साहिब ,प्रदत्त विषय पर अच्छी लघुकथा हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
आद0 सुनील वर्मा जी सादर अभिवादन। बढिया लघुकथा लिखी आपने। इस प्रस्तुति पर मेरी बधाई।
आपकी शानदार शैली में लिखी बहुत बढ़िया कथा , हार्दिक बधाई \\ कक्षा में पढ़ाये उनके सब़क अब द्विवास्वप्न की तरह उनके सामने चल रहे थे "बच्चों, विलेय और विलायक दोनों के समांगी मिश्रण से ही एक संतृप्त विलयन बनता है।"// इन पंक्तियों पर आदरणीया डॉ संगीता गाँधी जी से सहमत हूँ I
सेवानिवृत्ति के बाद स्वीकार्य से संबद्ध घटनायें मन मस्तिष्क को विचलित करती है,इस कथ्य और तथ्य को कथा में उकेरा है।कथा के लिये बधाई आद० सुनील वर्मा जी ।
आदरणीय सुनील जी, बढ़िया लघुकथा कही है आपने. कुछ पंक्तियाँ बेहद आकर्षक हैं जैसे, अक्सर अपने कमाये ज्ञान को कंधे पर लिए ऐसे घूमते रहते कि जैसे नये लहसुन की गठरी लिए कोई देहाती शहर की गलियों में उसे बेचने निकला हो। अथवा परेशान परिवार ने समझदारी दिखायी और एक फोन दिलाकर उनका वास्तविक दुनिया से अलग आभासी दुनिया में नामांकन करवा दिया। शीर्षक भी शानदार है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. प्रदत्त विषय और 'दिवास्वप्न' के अन्तिम पंक्ति में प्रयोग के सन्दर्भ में आपकी राय जानना चाहूँगा कि आपने उनका प्रयोग किस अर्थ में किया है. सादर.
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